पहल परिचय

"पहल का प्रकाशन मुख्य रूप से लेखकों  - बुद्धिजीविओं के लिए नहीं बल्कि पाठकों की उस बड़ी संख्या के लिए हुआ है जो एक खास तरह की भूमिका के लिए तैयार होने को है। हमारा उद्येश्य क्रन्तिकारी चेतना की व्यापक शिक्षा का है ." इस सुस्पष्ट लक्ष्य के साथ पहले - पहल "पहल" का प्रकाशन 1973 के उत्तरार्ध में हुआ। जो बहुत जल्द ही अग्रिम पंक्ति की पत्रिका बन गई। लगभग चार दशकों  से हिंदी साहित्य की साहित्यिक पत्रिकाओं के संसार में "पहल" का नाम महत्वपूर्ण बना हुआ है। इस लम्बे यात्रा काल में "पहल" ने अपने इतिहास में कई अनुभव दर्ज किये। प्रारंभिक दौर में ही इसके तीखे तेवरों से तिलमिलाकर "पहल" पर चौतरफा हमले किये गए, यहाँ तक की इस पर प्रतिबन्ध लगाने और संपादक को गिरफ्तार करने की मांग भी की गई। तत्कालीन नवोदित लेखकों, बुद्धिजीविओं और लघुपत्रिकाओं का इसे निर्बाध लिखित समर्थन मिलता रहा। इतिहास का निर्णय आज सामने है। उस दौर की  बाहैसियत पत्रिकाएं जहाँ आज हाशिये पर हैं, वहीं अपने सीमित साधनों के सहारे "पहल" की उत्कर्ष यात्रा आज भी जारी है। सच तो यह है कि अब उसे महज लघु पत्रिका कहना उचित नहीं होगा, आज वह एक सशक्त आन्दोलन की तरह सक्रिय है। हिंदी के श्रेष्ठ लेखकों, कलाकारों, रंगकर्मियों का ही नहीं इतर भाषायों के संवेदनशील सृजनधर्मियों का जो व्यापक सहयोग "पहल" जुटा लेती है, वह चकित कर देता है।

जबलपुर (म प्र ) से निकलने वाली इस लघुपत्रिका को इस ऊँचाई तक पहुँचाने का श्रेय उसके संपादक ज्ञानरंजन को है, जिन्हें साठोत्तरी हिंदी कहानी के अग्रणी कथाकार के रूप में सब जानते हैं। यह भी सच है कि "पहल" को यह उपलब्धि ज्ञानरंजन के लेखन की कीमत पर मिली है। इस सौदे में कहानी घाटे में रही, मगर साहित्य तो फायदे में ही है।

अब तक प्रकाशित 90 अंकों के हजारों पृष्ठों से "पहल" ने हिंदी क्षेत्र की क्रांतिकारी चेतना एवं परिवर्तनकामी सोच के विकास में जो कुछ जोड़ा है वह स्वतः में एक इतिहास बनता जा रहा है। जब-तब कविता-पोस्टर और पुस्तिकाएं भी पाठकों तक पहुंचाई गई हैं। "पहल" में प्रकाशित सामग्री प्रायः सभी भारतीय भाषायों में अनुदित होती रहीं हैं। भारत के बाहर भी यह पत्रिका अनेक विश्वविद्यालयों के एशियाई अध्ययन विभागों में जाती है। जर्मनी में तो इसके अंकों का अनुवाद भी हो रहा है।

"पहल" ने कुछ महत्वपूर्ण विशेषांक निकाले हैं। यथा - फासिज्म विरोधी अंक, मार्क्सवादी सौंदर्यशास्त्र : वाल्टर बेंजामिन, समकालीन कवितांक, पाकिस्तान में उर्दू कलम, कहानी अंक, चीन का समकालीन साहित्य, बांग्लादेश के व अफ़्रीकी साहित्य पर केन्द्रित अंक और इतिहास अंक।

प्रकाशन के अलावा "पहल" की सक्रियता उन साहित्य गोष्ठियों से भी पता चलती है, जो देश के विभिन्न शहरों में समय - समय पर संपन्न हुईं हैं। इन पहल गोष्ठियों ने लेखक - संगठनों की चुप्पी व शिथिलता के चलते ठंडे पड़े माहौल को जरूरी रचनात्मक उत्तेजना एवं ताप तो दिया ही, खेमों में बंटे रचनाकारों को एक जगह इकठ्ठा करने की पहल भी की।

इन चार दशकों के लम्बे प्रकशनकाल में दो बार इसका प्रकाशन बाधित हुआ है। पहला दौर आपातकाल का दौर था जिसमें हर तरह की स्वतंत्र सोच और अभिव्यक्ति पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया था।  किन्तु उस दौर में भी "पहल" का प्रकाशन सिर्फ अनियमित हुआ था, बंद नहीं हुआ था। दूसरा दौर हाल फिलहाल का है जब लगभग तीन वर्ष पूर्व अचानक आई इसके बंद होने की खबर से समूचे साहित्य जगत में एक तरह का सन्नाटा पसर गया। पाठकों में मायूसी छा गई। और तभी राहतभरी वह खबर भी आई, जिसका पाठकों को बेचैनी से इन्तिज़ार था।

स्वयं ज्ञानरंजन के शब्दों में " तीन वर्ष से अधिक के अंतराल के बाद 'पहल' की वापसी हो रही है। ऐसा इसके बंद होने की ही तरह, आकस्मिक हुआ।  ............इस बार अनाम लोग, जिसमें चिंतातुर युवा अधिक है, उत्साहित और सहयोगी होकर आये हैं।  ...............दूसरी तरफ एक बिखरी बेचैन दुनिया है, उसने 'पहल' का स्वागत किया है, .........."

अपने प्रकाशन के प्रारंभ से ही "पहल" अस्सी के दशक के नवोदित रचनाकरों की आवाज़ बनी थी, बनी रही। बदलते समय में भी "पहल" की यही भूमिका होगी। इसे और स्पष्ट करते हुए ज्ञानरंजन कहते हैं " .......'पहल' की इस पारी में एक बड़ी जगह नये रचनाकारों ने ही बनाई है। लेकिन निरूद्देश्य यौवन और खुले बाजार के लिये हमारे पास जगह नहीं है। .............जीवित परंपराओं से लेकर अज्ञात भविष्यों तक की पहचान और समर्थन 'पहल' की कोशिशों का स्थायी भाव है।"

Login