ग़ज़ल
कुछ दिनों का साथ कर लो लौट आना बाद में लौट जो आओ तो रखना आना जाना बाद में।।
पहले तो शर्त-ए-वफा भी छोड़ देना इश्क में और फिर हीलों से उसको आज़माना बाद में।।
गर्मी-ए-सोहबत1 में उसका पहले तो खुल-खेलना और फिर सब याद करके मुस्कुराना बाद में।।
प्यार के झरने में खेलो जिस कदर चाहो मगर वस्ल का देना पड़ेगा, आबयाना2 बाद में।।
वक्त ने लिक्खा है जो उस पर जली अल्फाज़3 में पढ़ तो लो पहले उसे, दीवार ढाना बाद में।।
1. गर्मी-ए-सोहबत = संगत की उष्णता 2. आबयाना = जलकर 3. जली अल्फाज़ = सुस्पष्ट, मोटी सुर्खी
* * * किसलिए है अगर मगर मत पूछ जानता तो है, जानकर मत पूछ।।
उनके बनने से ले के गिरने तक खौफ की बूंद का सफर मत पूछ।।
इस तरफ देख चल रहा है जो होता रहता है क्या उधर मत पूछ।।
जान्ते हैं दुआ के बारे में और क्या चीज़ है असर मत पूछ।।
किसलिए धूप में खड़ा है पेड़ पूछ सकता है तू मगर मत पूछ।।
जो कहीं का न हो सका उस से घर है, क्या चीज़ है सफर मत पूछ।।
एक दिन तो सुकून से जी ले एक दिन तो कोई खबर मत पूछ।।
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दरिया चढ़ा तो पानी नशेबों में भर गया अबके भी बारिशों में हमारा ही घर गया
पत्ते का सब्ज़ शाख पे चेहरा उतर गया झोंका हवा का शोख था छूकर गुज़र गया।
इक रोशनी थी मेरे तअक्कुब में रात भर इक साया रहनुमा था मिरा, मैं जिधर गया
इक कहकहा हो जैसे पहाड़ों में बाजगश्त इक वसवसा जो सूरत-ए-साया गुजर गया फिर पल रहा है शब़ की इसी तीरा कोख में सूरज जो कोह-ए-शाम से टकरा के मर गया
मंज़िल पे होश आया कि राहों में मिस्ल-ए-जां इक शख्स साथ-साथ था जाने किधर गया
नशेबों : निचले इलाकों में, तअक्कुब : पीछा करना, कहकहा : ठहाका, बाज़गश्त : गुंज प्रतिध्वनि, तीरा : अंधेरी, कोह-ए-शाम : शाम का पर्वत, मिस्ल-ए-जाँ : जान की तरह (प्यारा)
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वो न छूता है न कुछ बात किया करता है एक साया सा मिरे साथ चला करता है
इन फलक बोस पहाड़ों से निकल कर सूरज मेरी दीवार के पीछे ही ढला करता है
एक पत्ता भी नहीं जिस पे वो सूखा सा शजर सर फिरी तुन्द हवाओं पे हंसा करता है
दिल में कुछ ऐसे रहा करता है यादों का गुबार बंद कमरे में धुआं जैसे घुटा करता है
काश वो सित्ह तक इक बार उभर कर आये तेज़ धारा जो तह-ए-आब बहा करता है
फलकबोस : गगनचुम्बी, शजर : पेड़, तुन्द : तेज, सित्ह : सतह, तह-ए-आब : पानी के नीचे
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मिट्टी था किसने चाक पर रखकर घुमा दिया वो कौन हाथ थे कि जो चाहा बना दिया जो अब तलक छुपाये थी कमरे की रोशनी रस्तों की तीरगी ने वो सब कुछ दिखा दिया
परियों के देस वाली कहानी भी खूब है बच्चों को जिसने फिर यूंही भूखा सुला दिया
अब और क्या तलाश है क्यों दीदारेज हो मिट्टी में बस वही था जो तुमने उगा दिया
कुछ अज़दहे से रेत पे कुछ बंद सीपियां साहिल को लौटती हुई लहरों ने क्या दिया
तीरगी : अंधकार, दीदारेज़ : आंखों पर अत्यधिक जोर डालना, अज़दहे : अजगर
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नज़्म (बस्ती में पहली बार कर्फ्यू )
यह तब की बात है जब किसी बस्ती में पहली बार अचानक कर्फ्यू नाफ़िज़ हुआ था
किसी घर में कोई बच्चा उछलता कूदता बाहर से आया था सहन में नाचते चक्कर लगाते कर्फ़ियू आया कर्फ़ियू आया कोई गाना सा गाता था
यह सुनकर कदीमी घर में जन्मीं पुरानी औरतें अब आन बैठी थीं, दरीचों में कि शायद, कार्फियू दूल्हा उपर देखे और आंखें चार हों दूल्हा से कर्फ़ियू दुल्हा से मगर वीरानगी सड़कों की कदीमी घर में जन्मीं, पुरानी औरतों की हैरानगी से कुछ ज़ियादा थी
वीरानगी, हैरानगी, हैरानगी, वीरानगी मैं कुछ दिन, बड़बड़ाया था यह तब की बात है * * *
नज़्म
अब वे नहीं फुस्फुसाते एक दूसरे के कानों में
अब वे नहीं देते हवा सीनों में सुलगती चिंगारियों को तवारीख के पन्नों से
अब के नहीं लगाते तिलक काटकर अंगूठे एक दूसरे के माथों पर
अब वे सिर्फ भरते है स्वांग हमारा हमारे सामने
नज़्म
इज़राईल1
बर्कपाश मुस्कुराहटों सी पन्नियाँ हैरती, मासूम और ज्ञानी आंखों सी कांच गोलियाँ नीले, पीले सब्ज़-ओ-सियाह ख्वाबों से बेशुमार संगरेज़ो और दांत झड़े पोपले मुह जैसे कंघे
अभी अभी घर के आंगन में अपनी तमाम फूली जेबें उलट दी हैं नन्हे पप्पू ने!!
1. यमराज
जाड़ों की दोपहरी थी और छत के ऊपर दिलबर था लेकिन आँख मिलाते कैसे सूरज भी तो सिर पर था।।
किस के दर पर भूल खड़ावें नंगे पाँव खड़ा था मैं कौन मेरी चौखट पर कब से छोड़ खड़ावें अंदर था।।
गैरत को क्या जाने सूझी उस दम सब दर खोल दिए घेरा छोड़ के जाने ही को जिस दम दुश्मन लशकर था।।
अभी वो थोड़ा सा थोड़ा सा प्यार मांगेगा फिर उसके बाद बहुत इखतियार मांगेगा।। हमारे वक्त का खंजर है, चुप नहीं रहता यह खूँ उछालेगा और इशतिहार मांगेगा।।
धुले धुले से फलक में तारे न जाने कब से बुला रहे हैं मगर अंधेरी गुफाओं में हम $खबीस रूहें जगा रहे हैं।। वो ताज़ा दम फिर उठे सवेरे, तो रात आंखों में काटकर हम शरीर बच्चों सी ख्वाहिशों को थपक-थपक कर सुला रहे हैं।।
अपने हाथ कहां तक जाते भाग दौड़ बस यूं ही थी उनके बांस बहुत थे लम्बे जो कनकईया लूट गए।। बाहर धूप थी शिद्दत की और हवा भी अंदर थी बेचैन गुब्बारे वाले के आख़िर सब गुब्बारे फूट गए।।
सच में है झूठ, झूठ में है सच ज़रा ज़रा आवारगी बिना यह कोई जानता नहीं।। इन आखरी घडिय़ों में भी बच्चों के वास्ते देने को मेरे पास कोई मशवरा नहीं।।
एक ज़िद्दी ज़ायका ये और क्या ऐ फना तेरे सिवा ये और क्या।। चांद ने आंखों में झांका और कहा पुतलियों में चांद सा ये और क्या।।
कोई मरने से मर नहीं जाता देखना वो यहीं कहीं होगा।।
इजलाल मजीद एक ऐसे शायर हैं, जिन्हें लिखते हुए ज़माना बीत चुका है। लेकिन ज़माने पर यह खबर आम न हो, इसका पुख्ता इंतज़ाम कर रखा था। मोहब्बतों से भरे एक छोटे से कमरे में करीबी दोस्तों के बीच डायरी के पन्नों से अपनी शायरी के मोती चुन-चुन कर सुनाते रहे। तारीफ सुनते तो चेहरे पर किसी नवयौवना की सी शर्मीली लाली आ जाती। अब यह सिलसिला टूट रहा है। लगभग 75 साल के अनोखे लबो-लहजे वाले इस शायर की यह रचनाएं हिंदी की किसी भी पत्रिका में प्रकाशित उनकी पहली रचनाएं हैं। इसी के साथ उनका गज़लों का पहला संग्रह भी हिंदी और उर्दू में 'यात्रा' से हाल ही में प्रकाशित हुआ है इस िकताब का नाम 'ख्रुद गरिफ्त' है। मूलत: लखनऊ के रहने वाले इजलाल मजीद, 1963 में भोपाल के सेफिया कालेज में हिस्ट्री के लेक्चरर मुकर्रर हुए और भोपाल के ही होकर रह गए। उर्दू के नामवर लेखक इकबाल मजीद उनके बड़े भाई है और मशहूर शायर जां निसार अख्तर उनके हम-ज़ुल्फ थे। |