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अप्रैल - 2019

राष्ट्रवाद, देशभक्ति, स्वाधीनता और अन्य भूलें

त्रिभुवन

पहल प्रारंभ

 

 

(स्वतंत्रता के तत्काल बाद की राष्ट्रीय परिस्थितियां, उस समय की बौद्धिक पारिस्थितिकी और चतुरसेन शास्त्री का वैचारिक चिंतन)

 

''मेरे तीन नारे हैं-राष्ट्रीयता का नाश हो, स्वाधीनता की भावना का नाश हो और देशभक्ति का नाश हो।’’- आचार्य चतुरसेन शास्त्री, जनवरी-1952 में प्रसिद्ध साहित्यकार पद्मसिंह शर्मा कमलेश के साथ एक इंटरव्यू में।

अगर हिन्दी साहित्य की आलोचना के वर्तमान मूल्यों और मानदंडों पर कसें तो आचार्य चतुरसेन शास्त्री किसी की निगाह में एक विवादास्पद साहित्यकार हैं तो किसी के लिए एक विलक्षण महालेखक। विशेषकर आधुनिक और प्रगतिशीलतावादी विचारधारा वाले लोगों की निगाह में वे प्रतिगामी भी कहे जाते हैं। कुछ लोग उन्हें पुनरुत्थानवादी या हिन्दूवादी या सांप्रदायिक भी मान लें तो हैरानी नहीं। लेकिन इस लेख के शुरू में उनके जो विचार उद्धृत किए गए हैं, वे उन्हें हिंदुत्ववादियों, राष्ट्रवादियों और स्वयंभू देशभक्त ब्रिगेड की निगाहों में घोर खलनायक तो सहज ही घोषित करवा सकते हैं।

कई बार यह भी लगता है कि ये विचार चतुरसेन शास्त्री के हैं, इस पर सहज ही न तो कोई आधुनिकतावादी भरोसा करेगा और न ही प्रतिगामिताकामी। लेकिन आज देश में जो वातावरण है, जिस तरह चिंतन हवाओं में तैर रहा है और इस कालखंड के कपाल पर धर्मोन्मादी और मनुष्यताविरोधी शक्तियों ने जो आख्यान लिख दिया है, उस स्थिति में चतुरेसन शास्त्री के कुछ शब्द हमें घुटनों के बल चलते हुए एक समय की सिंफनी वाली आकाशगंगा में ले जाने को आतुर दिखते हैं। आज हम जिस डिस्कॉर्डेंस का सामना कर रहे हैं, वह सिंफनी में तभी बदल सकता है, जब हम चिंतन और विमर्श की समस्त शक्तियों का मुंह और कदम उधर मोड़ दें।

वर्तमान परिस्थितियों में शायद ही कोई माने कि हिन्दी का कोई साहित्यकार ऐसे समय देशभक्ति, राष्ट्रीयता और स्वाधीनता पर प्रश्नचिह्न लगा रहा था, जब देश स्वतंत्र हुआ ही था और भारतीय संविधान के निर्माण की प्रक्रिया पूरी हुई भर थी। ऐसे समय जब देश में प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू का जलवा तारी था और स्वतंत्रता के मूल्यों का वैभव दिपदिपा रहा था। कांग्रेस का वैभव उत्कर्ष पर था और उसके नेताओं के हृदय और मानस अभिमान से आप्लावित थे।

  देशभक्ति और राष्ट्रवाद जैसे शब्दों की गूंज-अनुगूंज आजकल खूब सुनाई दे रही हैं। सत्ता में बैठे विशेष विचारधारा के समूहों और उनके समर्थक कागज़ी गुरिल्लाओं की मानें तो मानो स्वतंत्रतापूर्व देशभक्ति के लिए मर मिटने वाले और भारतीय राष्ट्रवाद की लौ को लपट बनाने वाले मरजीवड़े तो आज के उन स्वयंभुव राष्ट्रवादियों के सामने कुछ भी नहीं हैं। तुच्छ भी नहीं हैं। इस समूह ने शब्दों के सिंटेक्स में वह सब भर दिया है, जिससे परिभाषाएं धूमिल हो गई हैं और अर्थ रेंकने लगे हैं। भावाभिव्यक्तियों को सोशल मीडिया के सियार विभ्रम के सघन अंधेरे में हुआं-हुआं करवाकर अपने नए नैरेशन रचने की कोशिशें कर रहे हैं।

राष्ट्रवाद और देशभक्ति से जुड़े प्रश्न आज की युवा पीढ़ी को भी मथ रहे हैं और पुरानी पीढ़ी को भी झकझोर रहे हैं। कई बार तो अनायास ही यह प्रश्न उठता है कि आख़िर राष्ट्रवाद है क्या और इक्कीसवीं सदी में राष्ट्रवाद की उपयोगिता क्या रह गई है? राष्ट्रवाद और देशभक्ति की कोई प्रासंगिकता है या इनकी प्रासंगिकता समाप्तप्राय हो गई है या कि राष्ट्रवाद एक क्षरणशील तत्व है? ऐसे प्रश्न आज भी उठ रहे हैं और आज से पहले भी उठते ही रहे हैं।

एक महत्वपूर्ण प्रश्न जो कभी उठता ही नहीं है। हमारा एक ख़ास बुद्धिजीवी वर्ग अक्सर छद्म देशभक्ति और कृत्रिम राष्ट्रीयता को लेकर एक वर्गविशेष को तो निशाने पर लेता है, लेकिन इस वर्ग विशेष को जहां से प्राणवायु मिलती है, उन फेफड़ों पर अपने चिंतन का स्टेथस्कॉप कभी लगाने की कोशिश नहीं करता?  बारीकी से देखने की आवश्यकता है कि देश में जब भी एक विशेष तरह की विचारधारा की शक्तियां हाशिए की तरफ फिसलने लगती हैं तो वे कौनसी घटनाएं हैं, जो दुगुनी ताकत देखकर उनके पांव ज़मीन पर अंगद की तरह जमा देती हैं? गुजरात की घटनाओं से लेकर पुलवामा तक कहीं न कहीं ऑक्सीजन देने वाले भी ऐसे सांप्रदायिक रहे हैं, जिनका रंग कुछ दूसरा है। राष्ट्रवाद, देशभक्ति और स्वाधीनता हमें गर्वीले और पवित्र शब्द लगते हैं, लेकिन यह ख़तरा बना रहता है कि जाने ये कब सांप्रदायिक रूप ले लें और इतने संकीर्ण हो जाएं कि राष्ट्रभक्ति का मंत्र युद्ध निनाद बन जाए।

आज से कोई 15-20 साल पहले जब देश में देशभक्ति में सांप्रदायिकता का छौंक लगाकर हिंदुत्व को उफान पर लाया जा रहा था, ठीक उसी समय प्रसिद्ध साहित्यकार निर्मल वर्मा ने एक लेख ''मेरे लिए भारतीय होने का अर्थ’’ में लिखा था :  ''क्या ज़मीन के एक टुकड़े से प्यार किया जा सकता है, जिसका अपना आकाश है, समय है, अतीत है; जहां जीते हुए लोग ही नहीं, मृतात्माएं भी बसती हैं। देशभक्ति, देशप्रेम... क्या ये सिर्फ थोथे शब्द हैं, जिन्हें हमारे आधुनिक बुद्धिजीवी मुंह पर लाते हुए झिझकते हैं, जेसे वे कोई अपशब्द हों, सिर्फ एक सतही सस्ती भावुकता, और कुछ नहीं? कौन स्वतंत्र हुआ? वे हिकारत से पूछते हैं... गरीब, अमीर, छोटे, बड़े, कौन? और यदि वे कोई उत्तर में कहे... और तुम नहीं, बल्कि... वह, जो हमारे बीच में है, हमें बांधता हुआ, शताब्दियों से हमें ''हम’’ बनाता हुआ, खुद अदृश्य होते हुए भी हमें एक परिदृश्य में अंकित करता हुआ... क्या है यह? क्या इस अनाम भावना को कोई नाम दिया जा सकता है?’’ निर्मल वर्मा की यह अनाम भावना देशभक्ति ही थी।

लेकिन यह हत्प्रभ करने वाली बात है कि निर्मल वर्मा से आधी सदी पहले एक हिन्दूवादी और पुनरुत्थानशील साहित्यकार माने जाने वाले चतुरसेन शास्त्री कह रहे थे : ''मेरे तीन नारे हैं-राष्ट्रीयता का नाश हो, स्वाधीनता की भावना का नाश हो और देशभक्ति का नाश हो।’’

बात थोड़ा लंबी खिंच गई है, लेकिन यह जानना ज़रुरी है कि चतुरसेन शास्त्री ने ये कब, कहां और किस संदर्भ में कहा। बात है जनवरी, 1952 की। चतुरसेन शास्त्री का एक साक्षात्कार उन दिनों हिन्दी के साहित्यकार पद्मसिंह शर्मा कमलेश ने लिया, जो ''मैं इनसे मिला : हिन्दी के कुछ प्रमुख साहित्य सेवियों के इंटरव्यू’’ में छपा है। यह पुस्तक आत्माराम एंड संस से प्रकाशित हुई थी। इसमें चतुरसेन शास्त्री के साथ-साथ बाबू गुलाबराय, रामनरेश त्रिपाठी, सुदर्शन, सूर्यकांत त्रिपाठी निराला, धीरेंद्र वर्मा, उदयशंकर भट्ट, महादेवी वर्मा, लक्ष्मीनारायण मिश्र, शांतिप्रिय द्विवेदी, सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन अज्ञेय और डॉक्टर रामविलास शर्मा के भी इंटरव्यू थे।

इस साक्षात्कार में पद्मसिंह शर्मा कमलेश के एक प्रश्न के उत्तर में चतुरसेन जवाब देते हैं, : ''राष्ट्रीयता को जन्म गांधीजी ने सन् 1918 में दिया। उनसे प्रथम देश में यथार्थ नाम राष्ट्रवाद न था। वह भावना अपना काम कर चुकी। सहस्राब्दियों के बिखरे देश की एकरूपता स्थिर हो गई। परंतु अब आज के विश्व प्रांगण में राष्ट्र तत्व को कोई स्थान नहीं है। राष्ट्रवाद और संघर्षों को उत्पन्न करने वाला है, जनतंत्र का विरोधी है, विश्व मानव संगठन की सबसे बड़ी बाधा है। जब तक विश्व के भिन्न-भिन्न देशवासी अपने-अपने राष्ट्रों की सीमा और उसकी स्वार्थ रक्षा में तत्पर रहेंगे, युद्ध समाप्त न होंगे। जन-जन का एकीकरण नहीं होगा। इसलिए राष्ट्रीयता का नाश होकर उसके स्थान पर सार्वभौम जनसंघ का जन्म होना चाहिए।’’

इन दिनों जब देश के एक बड़े वर्ग की रगों के लहू में वार हिस्टीरिया या युद्धोन्माद बज रहा है और संकीर्ण राष्ट्रवाद और छिछली देशभक्ति तारी है, जब आप कल्पना कर सकते हैं कि अगर चतुरसेन शास्त्री राष्ट्रवाद को नए संघर्षों को जन्म देने वाला आज बताया होता तो लोग उन्हें देशद्रोही घोषित कर चुके होते। वे तो राष्ट्रवाद को साफ़-साफ़ जनतंत्र का विरोधी बता रहे हैं तो आप उस समय के दक्षिणपंथी तत्वों के औदार्य और अशक्य होने की भी कल्पना कर सकते हैं। उस समय भी प्रतिप्रश्न किया गया कि जवाहरलाल भी तो यही कहते हैं! इस पर शास्त्री ने भृकुटियां तानकर कहा : ''कहते हैं पर कर तो नहीं सकते; क्योंकि कांग्रेस का संगठन राष्ट्रवादी है। इसी से भारत में गुट बन गए। वे बनते ही जाएंगे और उनका परस्पर ऐसा संघर्ष होगा कि अराजकता का रूप धारण कर जाएगा, यदि प्रतिकार न किया गया।’’ और आज आप देखिए कि कांग्रेस को अगर कोई राष्ट्रवादी कहे तो संघनिष्ठ और भाजपा की विचारधारा में डूबे लोग कहेंगे, कांग्रेस और राष्ट्रवादी! राष्ट्रवादी तो हम हैं! हम संघ वाले, भाजपा वाले और हिंदुत्ववादी! शुद्ध राष्ट्रवादी।

चतुरसेन शास्त्री से पद्मसिंह शर्मा कमलेश ने प्रश्न किया : ''और देशभक्ति? देशभक्ति का नाश आप क्यों चाहते हैं?’’ चतुरसेन बोले : ''इसलिए कि भाई वह तो विशुद्ध पूंजीवादी पदार्थ है और जनतंत्र की भावनाओं का विरोधी है। ...देखिए 19वीं शताब्दी के मध्य भाग में स्वामी दयानंद और भारतेंदु हरिश्चंद्र ने देशभक्ति को जन्म दिया। इससे प्रथम देशभक्ति की भावना देश में न थी। राजपूत जिस देश के नाम पर लड़ते थे, वह देश नहीं राज्य थे। यह राज्य वंश और गुटों के थे। सारे भारत की विपत्ति को टालने की उत्सर्ग भावना तब देश में थी ही नहीं।’’ यह सही है कि दयानंद सरस्वती ने काशी और उदयपुर में जब अपना प्रसिद्ध ग्रंथ ''सत्यार्थप्रकाश’’ लिखा, उस समय देश में स्वदेश और स्वराज्य शब्दों का प्रयोग नहीं हुआ था। स्वामी जी ने अपने ग्रंथ में ही स्वदेश, स्वराज्य और स्वभाषा का प्रश्न उठाया। उसके बाद भारतेंदु बाबू हरिश्चंद्र ने कई नाटकों और लेखों में देशभक्ति को साहित्य का माध्यम बनाया।

लेकिन चतुरसेन शास्त्री एक और बात इस संदर्भ में कहते हैं, जो आज भी काफी लोगों को परेशान या प्रसन्न करती है। इसी इंटरव्यू में वे बोले : ''इसलिए वह देशभक्ति केवल हिंदुओं ही में रही। देश हमारी मातृभूमि है। माता सम पूजनीय है। उसके लिए आत्म-बलिदान हमारा कर्तव्य है। यह भावना केवल हिंदुओं ही में रही, मुसलमानों में नहीं। यद्यपि शुरू में एक बार इकबाल जैसों ने बिना समझे सोचे हिंदुओं के स्वर में स्वर मिलाया, पर फिर तुरंत रंग बदल गया। कारण साफ था कि वे देश को माता के समान पवित्र पूजनीय नहीं मानते थे। फतेह की हुई भोगने योग्य लौंडी समझते थे। इसी का तो यह परिणाम हुआ कि कांग्रेस की एक भी देशभक्ति की बात न चली और मुसलमानों ने उसी प्रकार देश को बांट लिया जैसे पिता की धन-धरती या जायदाद को दो बेटे बांट लेते हैं।’’ इस बात ने साक्षात्कार ले रहे पद्मसिंह शर्मा को भी परेशान कर दिया तो शास्त्री ने अपनी बात को दो टूक शब्दों में इस तरह कहा : ''वास्तव में ईंट-पत्थर, जमीन, गांव-नगर और जनपद के लिए मरना-मारना हास्यास्पद है। यदि हम देशभक्ति के स्थान पर मनुष्यभक्ति करते होते तो विभाजन होता ही नहीं। हिंदू-मुसलमान दो तत्व रहते ही नहीं। हमने देश स्वतंत्र किया, पर हम स्वयं स्वतंत्र नहीं हुए; क्योंकि हममें अभी भी मनुष्य-भक्ति उत्पन्न नहीं हुई। कुछ समय पूर्व धर्म के नाम पर लोगों ने प्राण उत्सर्ग किए थे। आज उनके वे प्राण उत्सर्ग जैसे हास्यास्पद हो गए हैं। शीघ्र ही देशभक्ति के नाम पर किए गए उत्सर्ग भी हास्यास्पद हो जाएंगे।’

दरअसल यह वह दौर था, जब प्रबुद्ध साहित्यकार और भविष्यद्रष्टा चिंतक मानकर चल रहे थे कि स्वाधीनता की पुकार गुलामी की पुकार है। यह सारे एशिया में ऐसे समय गूंज रही है, जबकि संपूर्ण विश्व सहयोग की आवश्यकता अनुभव कर रहा है। शास्त्री ने खिन्न शब्दों में कहा : कभी फ्रांस और इंग्लैंड में से एक देश के मनुष्य का दूसरे देश में पहुंचना प्राणों के मूल्य पर होता था, वैसा आज अमृतसर और लाहौर का हो रहा है। यह सब स्वाधीनता की भावना का विष है। आज देश के टुकड़े हुए हैं, शीघ्र देश के महाभवन की एक-एक ईंट बिखर जाएगी। वे बोले : मनुष्य सामाजिक जीव है। उसे स्वाधीन रहने का अधिकार नहीं है। सहयोग से रहने का अधिकार है। साहित्यकार का न कोई अपना देश है, न जाति, न धर्म, न समाज और न राष्ट्र। न इन सब के प्रति उसका कुछ कर्तव्य है। साहित्यकार को तो मनुष्य के प्रति अभिमुख होना चाहिए। विश्व में मनुष्य किस प्रकार सुखी, समृद्ध, अभय और चिरंजीवी हो, यही सोचना, विचारना और कहना साहित्यकार का कर्तव्य है। साहित्यकार मनुष्य नहीं है, क्योंकि वह अति मनुष्यों का सृष्टि-कर्ता है। वह महामानव है। जिस तुलसीदास ने राम, लक्ष्मण, सीता और भरत जैसी दिव्य मूर्तियां गढ़ीं, जिनके सम्मुख कोटि-कोटि जनपद भक्ति भाव से झुक गए, वह तुलसीदास अपनी गढ़ी हुई मूर्तियों से राम, लक्ष्मण, सीता और भरत से बहुत बड़ा है। बहुत महान है।

शास्त्री जी ने एक बात जो बहुत साहस से कही, वह शायद हमारे बहुत से बाद के साहित्यकार कभी नहीं कह सके। वे बोले : ''सामंती युग में मारकाट और घृणा-विद्वेष के जो दृश्य वीर रस के नाम से परिचित हैं, क्या आप उन्हें साहित्य के नाम पर कायम रखते ही चले जाएंगे? कहिए, भूषण से आप अपनी भावी संतानों को क्या दिलाना चाहते हैं?’’ लेकिन हम सब जानते हैं कि स्वतंत्रता के बाद के लंबे काल खंड में दशकों तक प्रगतिशील, गतिशील और मानवतावादी साहित्यकार हमारे विद्यालयों, महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों में हिन्दी साहित्य का पाठ्यक्रम तैयार करते रहे और शृंगार तथा वीर रस के नाम पर अश्लील और सांप्रदायिक साहित्य हमारी किशोर और युवा पीढिय़ों को पढऩे को देते रहे। आज यह प्रश्न बहुत समीचीन है कि क्या संघ और भाजपा ने सांप्रदायिक और युद्धोन्मादियों की यह फ़सल लहलहा दी या फिर इस बीज के लिए भूमि को उर्वरा कथित गतिशील और प्रगतिशील विद्वानों की भूलों और गलतियों ने पथ प्रशस्त किया था कि समय आए तो कदम-कदम बढ़ाए चलो!

दरअसल, राष्ट्रवाद आधुनिक विश्व की एक विलक्षण घटना है। लेकिन सभी प्रमुख वर्तमान दलों की राजनीति और सत्ता का चरित्र इसे इंट्रूसिव नैरेटर के रूप में इस तरह इस्तेमाल कर रहा है, मानो यह इक्कीसवीं सदी की कोई आधुनिकतम घटना हो। इस पॉलिटिकल नैरेशन या राजनीतिक आख्यान ने पूरे सामाजिक ताने-बाने को बिगाड़ दिया है। साहित्यकारों का एक बड़ा वर्ग इस मामले में राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ या भारतीय जनता पार्टी और उनसे जुड़े अभियानों को ही उत्तरदायी ठहराते हैं, लेकिन वे यह नहीं देखते कि अब तक केंद्रीय और राज्यों की सत्ता भोगते रहे सत्ताधीशों ने राष्ट्रीय आम जन के लिए क्या किया? विचारभूमियों के लिए क्या किया? कलाओं के लिए क्या किया? ऐसे में निर्मल वर्मा की यह बात याद आती है, ''हमें कभी अपने समाज की कुरीतियों, अपने सत्ताधारी नेताओं की स्वार्थ लिप्साओं को अपने देशप्रेम से गडमड नहीं करना चाहिए। मेरे लिए, मेरा देश, मेरे राजनीतिक, सैद्धांतिक आग्रहों से कहीं ऊपर है....या होना चाहिए। गाँधी से बड़ा भारत-प्रेमी कौन हो सकता था, लेकिन वह भारतीय समाज के सबसे बड़े आलोचक भी थे - क्योंकि जो व्यक्ति हृदय से अपने देश से प्यार करता है, उसे ही आलोचना का अधिकार भी प्राप्त होता है।’’ लेकिन जिस तरह हम राष्ट्रवाद, देशभक्ति और स्वाधीनता की बहस को आगे बढ़ाएंगे, हम महसूस करेंगे कि हमारे अवचेतन में उपस्थित राष्ट्र हमें मानवीय सभ्यता से संकीर्ण करता है। हमारा राष्ट्रवाद, हमारी देशभक्ति और हमारी स्वाधीनता वस्तुत: लोकतंत्र के आधार स्तंभ पर टिके हैं, लेकिन यह आधार स्तंभ उस दलीय राजनीति से संचालित है, जो अपने स्वार्थों और लिप्साओं के लिए समाज की कुरीतियों, धर्मांधताओं, प्रतिगामिताएं, जातिवाद, अंधविश्वास, विवेकशून्यता और अंधानुकरण को सम्मोहक बनाकर देशभक्ति और राष्ट्रवाद से गडमड करके चैन की बंसी बजाता है।

साहित्य मनुष्य की आत्मा को मांजता है। आज देश में जिस तरह का राजनीतिक वातावरण है, वह इसलिए बना है, क्योंकि वहां साहित्य अनुपस्थित है। जैसा कि मुंशी प्रेमचंद कहते हैं, ''साहित्य बदगुमानियों को मिटाने वाली चीज़ है। अगर आज हम हिन्दू और मुसलमान एक-दूसरे के साहित्य से ज़्यादा परिचित हों तो मुमकिन है, हम अपने को एक-दूसरे के ज़्यादा निकट पाएं। साहित्य में हम हिन्दू नहीं हैं, मुसलमान नहीं हैं, ईसाई नहीं हैं, बल्कि मनुष्य हैं और वह मनुष्यता हमें और आपको आकर्षित करती है।’’ (आर्य समाज सम्मेलन के वार्षिक उत्सव पर लाहौर में दिया गया मुंशी प्रेमचंद का भाषण : 23-24 अप्रैल, 1936) मुंशी प्रेमचंद ने जब मनुष्यता को धार्मिकता से निकाल बाहर किया तो चतुरसेन शास्त्री, जो कि प्रेमचंद की तुलना में कम प्रगतिशील, अपितु पुनरुत्थानवादी माने जा सकते हैं, अगर मनुष्यता को राष्ट्रीयता, देशभक्ति और स्वाधीनता से बाहर निकालने में सफल हुए तो इसलिए कि उनके चिंतन का आधार साहित्य था। सचमुच, साहित्य, कला और संस्कृति ही वह त्रिवेणी है, जिनमें नहाने वाला भारतीय नहीं है, पाकिस्तानी नहीं है, अमेरीकी, ब्रिटिश, फ्रांसीसी या चीनी नहीं है। साहित्य की सरज़मीन खड़े तो मैथिलीशरण गुप्त भी थे, जिन्होंने कहा : ''हम कौन थे, क्या हो गए हैं, और क्या होंगे अभी। आओ विचारें आज मिलकर, यह समस्याएं सभी।’’ लेकिन प्रेमचंद ने चेताया, ''हमें तारीख़ से यह सबक न लेना चाहिए कि हम क्या थे, यह भी देखना चाहिए कि हम क्या हो सकते थे। अकसर हमें तारीख़ को भूल जाना पड़ता है। भूत हमारे भविष्य का रहबर नहीं हो सकता। जिन कुपथ्य से हम बीमार हुए थे, क्या अच्छे हो जाने पर भी वही कुपथ्य करेंगे?’’ प्रेमचंद ने यह बात आर्यसमाज के उस मंच से कही और ऐसे श्रोताओं-दर्शकों के सामने कही, जो वेदों की ओर लौटो के नारे को जीवन का लक्ष्य मान रहे थे।

पहले कदाचित किसी को यह अनुभूति नहीं थी कि इतिहास की तरह भावनाओं का ज्वार भी अपने आपको दुहराता है। इसीलिए जब मैथिलीशरण गुप्त आज़ादी से पहले कहते हैं कि कहते हैं, ''भू लोक का गौरव, प्रकृति का पुण्य लीला स्थल कहां? फैला मनोहर गिरि हिमालय, और गंगाजल कहां? संपूर्ण देशों से अधिक, किस देश का उत्कर्ष है? उसका कि जो ऋषि भूमि है, वह कौन? भारत वर्ष है।’’  तो वे रोमांचित कर सकते हैं, लेकिन उनका वही गान अगर आज एक बड़े वर्ग के कंठ पर अतिक्रमण कर चुका है तो यह सोचने पर विवश होना होगा कि राष्ट्रवाद का यह रूप वही है, जिसे प्रेमचंद कुपथ्य कहते हैं और चतुरसेन इसके सर्वनाश का आह्वान करते हैं। पुनरुत्थानवादी आंदोलन मुख्यत: अतीत के भारत और भारत के अतीत को पुर्नस्थापित करना चाहते हैं। भारत के विगत गौरव के स्तुतिगान करने वाला यह ऑर्केस्ट्रा आज राजनीति में अपनी दुंदुभियां बजा रहा है। इस वर्ग का दृढ़ निश्चय और पक्की मान्यता है कि इस ब्रह्मांड का पहला मानव सर्वप्रथम भारत भूमि पर अवतरित हुआ था। उनका नाम मनु था और उन्हीं से समस्त सृष्टि या मानव इतिहास की प्रक्रिया पूरी हुई है। समस्त विज्ञान एक तरफ और उनकी यह मान्यता एक तरफ शाश्वत है कि उस प्राचीन स्वर्ण युग में भारत ने हर उस वस्तु और अनुसंधान के सर्वश्रेष्ठ मॉडल की रचना की थी, जो आज तक अतुलनीय है। भले वह आधुनिक सर्जरी हो, चाहे वह आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस हो, चाहे वह विमान या कंप्यूटर हो और चाहे वह अंग प्रत्यारोपण हो।

मानव इतिहास के बार-बार और विश्व की लगभग हर वैज्ञानिक प्रयोगशाला में कसौटियों पर कसे जा चुके वैज्ञानिक सिद्धांतों को अनदेखा करने का ही नतीजा है कि हमारे देश में सुशिक्षित कहे जाने वाले लोग इस पुनरुत्थानवादी सिद्धांत को इक्कीसवीं सदी में भी प्रासंगिक मानने को तैयार हैं, जबकि यह सिद्धांत दुनिया 19वीं सदी में ही खारिज़ कर चुकी है। आज अगर इस सिद्धांत की कोई उपलब्धि है तो बस इतनी सी कि इसने हमारे अंतर सामुदायिक और अंतर वैश्विक संबंधों में ज़हर घोला है।

ये शब्द पंडित जवाहरलाल नेहरू के हैं, लेकिन भारतीय आत्मा को ध्वनित करते हैं, ''ईश्वर को न मानना तो यहां चलता है, लेकिन सत्य को न मानना असंभव है।’’ (दॅ डिस्कवरी ऑव इंडिया : सेंटनरी एडिशन, आक्सफॉर्ड : कलेरेंडन प्रेस, 1989 : पृष्ठ 75) दरअसल हम समय के जिस आख्यान बदलने की बात कर रहे हैं, वह यही है। वर्तमान सत्ताधीशों ने इस कालखंड में भारत की आत्मा के इस स्वरूप को बदलने की कोशिश की है, सत्य को न मानना तो यहां चलता है, लेकिन हिंदुत्व को न मानना असंभव है। अब यह हिंदुत्व एक परिभाषा भर नहीं है। अब इस हिंदुत्व में राष्ट्रवाद भी समाहित किया जा रहा है, देशभक्ति भी इसी में भरी जा रही है और स्वाधीनता का आयाम भी यही है। अब हम जिस हिंदुत्व या भारतीय शब्द को सुन रहे हैं, अब उसमें राजा राममोहन राय, दयानंद, केशवचंद्र सेन, विवेकानंद, अरविंद, गांधी आदि की भावनाएं प्रतिध्वनित नहीं होतीं। हिन्दू धर्म का स्थायी संगठन भले तुलसी ने किया हो, लेकिन हिंदुत्व में तुलसी की वह भावना तिरोहित कर दी गई है, जिसमें उन्होंने कहा था : ''कीरति भनिति भूति भलि सोई, सुरसरि सम सब कहं हित होई।’’ इस मामले में निर्मल वर्मा भी देशभक्ति और राष्ट्रवाद की एक अवधारणा प्रस्तुत करते हैं और कहते हैं, ''सच बात तो यह है कि देश प्रेम की भावना को देश से जुड़ी स्मृतियों और उसके इतिहास की धूल में सनी पीड़ाओं को अलग करते ही इस भावना की गरिमा और पवित्रता नष्ट हो जाती है। वह या तो राष्ट्रवाद के संकीर्ण और कुत्सित पूर्वग्रह में बदल जाती है, अथवा आत्म-घृणा में... दोनों एक ही तस्वीर के दो पहलू हैं।’’ (निबंध : मेरे लिए भारतीय होने का अर्थ में)।

नभ में सूर्योदय बाद में होता है, लेकिन कवि या साहित्यकार तुषारस्निग्ध लालिमा को देखकर ही दिन की घोषणा कर देते हैं। सूर्य बाद में डूबता है, लेकिन साहित्यकार की आत्मा में ऐहिक इच्छाएं गोधूलि से ही दिवस के अवसान का अनुमान लगा लेती हैं। लेकिन बौद्धिक दारिद्रय कहिए या कि समय की विडंबना, अब बिजनेस टाइकून, अर्थशास्त्री और भूराजनीति के खिलाड़ी जिन बदलावों को दशकों पहले भांप लेते हैं, उसे साहित्य के लोग सामने पाकर भी स्वीकार नहीं कर पाते। इसका एक उदाहरण निर्मल वर्मा भी हैं, जो कहते हैं, ''आज के आधुनिक भारतीय धर्मनिरपेक्ष बुद्धिजीवियों को भारत के संदर्भ में ईश्वर और पूर्वजों की स्मृति का उल्लेख करना कितना अजीब जान पड़ता होगा, इसका अनुमान करना कठिन नहीं है। वे लोग तो 'वंदे मातरम्’ जैसे गीत में भी सांप्रदायिकता सूंघ लेते हैं।’’ मुझे हैरानी है कि ये शब्द हिन्दी भाषा के एक उच्च कोटि के लेखक के हैं। 'वंदे मातरम्’ से जुड़ी भावुकता को एकबारगी परे रखकर अगर इस गीत के यथार्थ इतिहास का अवगाहन करें तो हैरानी होती है।

'वंदे मातरम्’ की पृष्ठभूमि देखें तो यह बंकिम चंद्र चट्टोपाध्याय के 'आनंदमठ’ उपन्यास से लिया गया है। लेकिन क्या कभी किसी ने इसके उपसंहार को विवेकशील पढऩे की कोशिश की? मैंने जब पहली बार यह उपन्यास पढ़ा तो मुझे आश्चर्य हुआ कि इसे अंग्रेज़ी शासन के प्रशस्ति वाले साहित्य की श्रेणी में क्यों नहीं रखा गया? उपसंहार के कुछ अंश :

''तुम्हारा कार्य सिद्ध हो गया। मुस्लिम राज्य का ध्वंस हो चुका। अब तुम्हारी यहां कोई ज़रूरत नहीं। अनर्थक प्राण-हत्या की आवश्यकता नहीं!’’

''यदि हिन्दू राज्य स्थापित न होगा तो कौन राज्य होगा? क्या फिर मुसलिम राज्य होगा? ...नहीं अब अंग्रेज़ राज्य होगा।’’

''सत्यानंद की दोनों आंखों से जलधारा बहने लगी। उन्होंने सामने जननी-जन्मभूमि की प्रतिमा की तरफ देख हाथ जोड़कर कहा-हाय माता! तुम्हारा उद्धार न कर सका। तू फिर म्लेच्छों के हाथ में पड़ेगी। संतानों के अपराध को क्षमा कर दो मां! रणक्षेत्र में मेरी मृत्यु क्यों न हो!

  महात्मा ने कहा-सत्यानंद कातर न हो। तुमने बुद्धि विभ्रम से दस्युवृत्ति द्वारा धन संचय कर रण में विजय ली है। पाप का कभी पवित्र फल नहीं होता। अतएव तुम लोग देश-उद्धार नहीं कर सकोगे। और अब जो कुछ होगा, अच्छा होगा। अंग्रेजों के बिना राजा हुए सनातन धर्म का उद्धार नहीं हो सकेगा। महापुरुषों ने जिस प्रकार समझाया है, मैं उसी प्रकार समझाता हूं- ध्यान देकर सुनो! तैंतिस कोटि देवताओं का पूजन सनातन-धर्म नहीं है।’’

''वास्तविक सनातन-धर्म का भी लोप हो गया है। सनातन-धर्म के उद्धार के लिए पहले बहिर्विषयक ज्ञान-प्रचार की आवश्यकता है। इस देश में इस समय वह बहिर्विषयक ज्ञान नहीं है- सिखानेवाला भी कोई नहीं, अतएव बाहरी देशों से बहिर्विषयक ज्ञान भारत में फिर लाना पड़ेगा। अंग्रेज उस ज्ञान के प्रकाण्ड पंडित हैं- लोक-शिक्षा में बड़े पटु हैं। अत: अंग्रेजों के ही राजा होने से, अंग्रेजी की शिक्षा से स्वत: वह ज्ञान उत्पन्न होगा! जब तक उस ज्ञान से हिंदू ज्ञानवान, गुणवान और बलवान न होंगे, अंग्रेज राज्य रहेगा। उस राज्य में प्रजा सुखी होगी, निष्कंटक धर्माचरण होंगे। अंगरेजों से बिना युद्ध किए ही, निरस्त्र होकर मेरे साथ चलो!’’

  ''महापुरुष-शत्रु कौन है? शत्रु अब कोई नहीं। अंग्रेज हमारे मित्र हैं। फिर अंग्रेजों से युद्ध कर अंत में विजयी हो- ऐसी अभी किसी की शक्ति नहीं।’’

''अंग्रेज राज्य तुम्हीं लोगों द्वारा स्थापित समझो! युद्ध-विग्रह का त्याग करो- कृषि में नियुक्त हो, जिसे पृथ्वी शस्य शालिनी हो, लोगों की श्रीवृद्धि हो!’’

जिस उपन्यास से 'वंदे मातरम्’ की अनुगूंज प्रारंभ होती है और उसकी पृष्ठभूमि मुस्लिम शासन समाप्त कर अंग्रेज़ों के शासन को सुदृढ़ करना, स्थायी रखना और अक्षुण्ण बनाकर सनातन धर्म की श्रीवृद्धि करने की कामना ही अंतिम हो और यही राष्ट्ररक्षा हो तो फिर धर्मनिरपेक्ष बुद्धिजीवियों या साहित्यकारों को कोसने का औचित्य निर्मल वर्मा कहां से लाएंगे?

हम जब समीक्षा के ऑपरेशन थिएटर में होते हैं तो पाते हैं कि निर्मल वर्मा को जो 'वंदे मातरम्’ भारतीय राष्ट्रवाद का प्रतीक प्रतीत होता है, दरअसल उससे जुड़ा कटुसत्य यह है कि 'आनंदमठ’ के लेखक ब्रिटिश सरकार के एक अधिकारी थे। कल्पना की जा सकती है कि वे किस तरह अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ सोच सकते थे। बल्कि उन्होंने अंग्रेज़ी शासन को स्थापित करने में भूमिका निभाई। लेकिन यह सत्य इतना कड़वा है कि यह कंठ से नीचे उतरते हुए हमारे पूर्वग्रहों के स्वाद में तूंबा घोल देता है।

निर्मल वर्मा ने दुनिया का कोना-कोना देखा था और अंग्रेज़ी के माध्यम से बहुत से विदेशी साहित्यकारों को पढ़ा था। वे बहुत गहरे साहित्यकार थे। सार्थक और सुवासित गद्य रचते थे। लेकिन उन्हें उदार सांप्रदायिकता का सम्मोहन बार-बार खींचता रहता था। चतुरसेन शायद ही कभी विदेश गए हों। हालांकि उन्होंने पुष्किन, रूसो, तॉल्सतोय जैसे कितने ही विदेशी साहित्यकारों और बांग्ला साहित्यकारों को पढ़ा था। लेकिन वे समस्त कालखंड का सर्वश्रेष्ठ साहित्यकार तुलसीदास को मानते थे। और देखिए कि राष्ट्रवाद, देशभक्ति और स्वाधीनता को अप्रासंगिक बता रहे थे।

तब क्यों आज राष्ट्रवाद को लेकर चतुरसेन जैसी कोई आवाज़ नहीं उठ रही। या राष्ट्रवाद को लेकर कोई नई सोच ही जन्म नहीं ले रही? कभी राहुल सांकृत्यायन ने 'बाइसवीं सदी’ जैसा उपन्यास लिखा था। उन्होंने 'तुम्हारी क्षय’ जैसी पुस्तक रचकर धर्म, भगवान, इतिहास, जातिवाद, धर्मांधता, सांप्रदायिकता जैसी कितनी ही अविवेकी और अवैज्ञानिक रूढिय़ों पर निशाना साधा था।

समकालीन युग में भी राष्ट्रवाद शब्द सुनाई देता है तो बहुतेरे लोगों को महसूस होता होगा कि इस शब्द को उच्चारते हुए उनके हृदय में कोई गर्व भरा हुआ है। क्योंकि राष्ट्रवाद की उनकी अपनी एक मनोगत अवधारणा है। वे यह नहीं जानते कि राष्ट्रवाद वास्तव में है क्या और इसकी प्रासंगिकता क्या है? क्या बहते हुए कालखंड में कोई चीज़ राष्ट्रवाद को रीप्लेस भी करती है या नहीं? या राष्ट्रवाद ने किसे रीप्लेस किया और किस तरह अतीत के उस टुकड़े को नहीं लाया जा सकता? क्या नदी की कल-कल बहती धारा जो समुद्र में मिलने को आतुर है, उन्हीं जलकणों को मूलस्रोत पर ले जाया जा सकता है?

राष्ट्रवाद आधुनिक विश्व की कुछ सदी पहले घटी एक विलक्षण घटना है। यह धरा जिस समय किंगडम की कोख से पैदा हुए सामंती अत्याचारों से छटपटा रही थी, राष्ट्रवाद ने अपने जन्म के साथ इन कराहों से मुक्ति का एक स्वप्न रचा था। राष्ट्रवाद आया तो स्वाधीनता आई और स्वाधीनता के साथ आया लोकतंत्र। लोकतंत्र की अनिवार्य शर्त थी न्याय, स्वतंत्रता, समता और बंधुता। न्याय भी सिर्फ इन्साफ़ वाला न्याय नहीं, सामाजिक न्याय भी, आर्थिक न्याय भी और राजनीतिक न्याय भी। स्वतंत्रता सिर्फ देश की आज़ादी भर नहीं, बल्कि विचार की स्वतंत्रता, विश्वास की स्वतंत्रता, धर्म का पालन करने की स्वतंत्रता, उपासना करने की स्वतंत्रता और ऐसा वातावरण जो किसी भी नागरिक की आत्मा पर बंधन न लगाता हो। समता का तात्पर्य केवल छुआछुत मिटाना या नाम मात्र की बराबरी भर नहीं था। समता का तात्पर्य था हर नागरिक की प्रतिष्ठा समान होना, भले वह कोई राष्ट्रपति हो या सड़क पर झाड़ू लगाता कोई अदना सा घोषित कर दिया गया कोई शक्तिहीन व्यक्ति। और यही नहीं, इन दोनों के बच्चों के लिए भी और स्वयं के लिए भी अवसर की समता। और इन तीन लक्ष्यों को प्राप्त करने की अनिवार्य शर्त तय की बंधुता। बंधुता सिर्फ इस नारे वाली नहीं कि हिन्दू, मुस्लिम, सिख, ईसाई, हम सब भाई-भाई बोल दिया और काम चल गया। बंधुता ऐसी कि हर नागरिक की गरिमा अक्षुण्ण रहे। कहीं भी विषाक्त या धूम्र तिक्त वातावरण न रहे। लेकिन इस कसौटी पर राष्ट्र की देशभक्ति और स्वतंत्रता को कसेंगे तो लगेगा कि हमने भूलें बोईं और गलतियों की फ़सलें काटीं। शमशेर बहादुर सिंह ने स्वतंत्रता से पहले 'बात बोलेगी’ एक कविता में लिखा था, जिसका मूल स्वर आज भी उसी पीड़ा को ध्वनित कर रहा है : ''दैन्य दानव। क्रूर स्थिति। कंगाल बुद्धि : मजूर घर भर। एक जनता का अमर वर : एकता का स्वर। -अन्यथा स्वातंत्र्य इति।’’

हम जब भारतीय स्वतंत्रता से पहले और बाद के विश्व इतिहास पर विहंगम दृष्टि डालते हैं तो देखते हैं कि एक सामाजिक अवधारणा के रूप में राष्ट्रवाद राष्ट्रीय आधार पर समाज को संगठित करने के लिए राष्ट्र की विचारधारा को इंगित करती है। राष्ट्रवाद की अमित आकांक्षा यही है कि मानव समाज स्वयं अपनी व्यवस्थाएं देखे। कोई अन्य बाहरी सत्ता दाह न फैलाए। ऐसा व्यवहार में होता भी है। यह किसी जनसमूह विशेष की और अपने कार्य व्यापार को संचालित करने की संप्रभुता को मान्यता देता है, लेकिन सामाजिक मामलों में किसी अलौकिक शक्ति की सत्ता को स्वीकार नहीं करता। राष्ट्रवाद भले कम डिग्री में ही सही, लेकिन अलौकिक सत्ता को खारिज कर तर्कबुद्धिवाद या विवेकवाद के वैभव की राहें उलीकता है।

हम देखते हैं कि कई बार नैसर्गिक वातावरण में जो ओस की बूंद अमृत तुल्य हो सकती है, वही ओसकण प्रदूषित वातावरण में ज़हरआलूदा भी हो सकते हैं। राष्ट्रवाद की विचारधारा राष्ट्र के हर नागरिक से राष्ट्र के प्रति अपने राष्ट्र-राज्य के प्रति सबसे पहले वफादारी की शर्त लगाती है। और युयुत्सु काल में अगर कोई नागरिक, भले वह किसी अंतरराष्ट्रीय न्यायालय का न्यायाधीश ही क्यों न हो, उससे अपेक्षा करती है कि वह जिस राष्ट्र को अपनी मातृभूमि मानता है, उसकी हिमालय जैसी भूल को भी राई के समान न माने और पड़ोस की या शत्रु राष्ट्र की राई जैसी गलती को भी हिमालय जैसी घोषणा एक निनादित स्वर में करे। राष्ट्रवाद अपनी राष्ट्रीय सर्वोच्चता को आवश्यकता से अधिक बल देता है। अपनी राष्ट्रीय विशेषताओं को महिमामंडित करता है। भूलों को भव्य बनाकर प्रस्तुत करता है। और हर नागरिक से अपेक्षा करता है कि वह अपने देश की सत्ता, उससे जुड़े अंगों और वहां रहने वाले बहुसंख्यक समुदाय के घृणित अपराधों को हृदय में आत्मसात करके कहे कि इस भूलोक का यही टुकड़ा पावन है। इस देश के नाम का गुंजरा अपने कानों में सुनना एक नि:शब्द प्रार्थना है। इस धरती का यह टुकड़ा समस्त भूलोक में त्याग और बलिदानों का निर्झर है। यहां जन्म लेना एक आशीर्वाद की तरह है। अगर आप ऐसा नहीं मानते हैं तो या तो आप देशद्रोही हैं या फिर इस देश के प्रति आपकी निष्ठा संदिग्ध है। यह सोच भारत और पाकिस्तान ही नहीं, पूरे भूलोक में है।

कला, साहित्य और संगीत में नि:संदेह 'जननी-जन्मभूमिश्च स्वर्गादपियगरीयसी’ है, लेकिन अगर यही भावना राजनीति में प्रवेश कर जाए तो यह दो देशों के बीच युद्धों और अंतरराष्ट्रीय विवादों को भी अपनी कोख से जन्म देती है। और अगर कला, साहित्य और संगीत के लोग की लेखनी में स्याही की जगह यही चिंतन भर जाए तो धरती को सुर्ख़ होने से भला कौन रोक सकता है।

राष्ट्रवाद की सामाजिक विचारधारा को अगर बीते युग की कबीलाई, जनजातीय अथवा धार्मिक जैसी पूर्व ग्रामीण सामाजिक अवधारणाओं के साथ तुलना करके देखें तो बहुत कुछ देखा और महसूस किया जा सकता है। ये सभी धारणाएं आदमी को कबीले, जनजाति या धार्मिक अलौकिकता में बांधती थी, लेकिन इनसे आगे बढ़कर राष्ट्रवाद ने उसे तर्कबुद्धिवाद की विचारधारा दी, लेकिन वह राष्ट्रीय सीमाओं में ही वास करती थी। इस वाद से जुड़ा आदमी काल के कपाल पर भी लिखने की कोशिश करता तो उसकी बुद्धि उसकी कलम से वह शक्ति सहसा छीन लेती, जो कह सकती थी : काल, तुझसे होड़ है मेरी। अपराजित तू, तुझमें अपराजित मैं वास करूं। इसीलिए चतुरसेन शास्त्री हों या प्रेमचंद या फिर शमशेर बहादुर सिंह, वे ध्रूव नक्षत्र से कालोपरि हो जाते हैं और भावोपरि, आनंदोपरि, राष्ट्रोपरि भी और कुछ बार तो सत्यासत्योपरि भी; क्योंकि साहित्य का सौंदर्य यही है और विचार का वैभव भी यही है।

राष्ट्रवाद का व्यवहार ऐसा है, मानो प्रशांत महासागर को किसी छोटी-सी नाव में बदल दिया गया हो। कहने को तो हम इसे लोकतंत्र में जीते हैं, लेकिन जिस प्रजातंत्र के बारे में बहुत गर्व से कहा जाता है कि यह लोगों द्वारा लोगों का और लोगों के लिए एक महान व्यवस्था है, यकायक हम पाते हैं कि राष्ट्रीय शासन जनता के नाम पर कुछ राजनीतिक दल चलाते हैं और राजनीतिक दलों को दो-तीन लोग मिलकर या कोई परिवार चलाता है। विभ्रम यह बना हुआ है कि लोग अपनी समस्याओं को सुलझाने के लिए लोकतंत्र का प्रयोग करते हैं और भारत भूमि पर तो इस विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र काम करता है, लेकिन हक़ीक़त यह है कि लगभग हर राजनीतिक दल को दो या तीन लोग या फिर एक परिवार चलाता है और इस तरह दो या तीन लोग या एक परिवार पूरे प्रजातंत्र को चलाता है। हालांकि यह सही है कि सार्वभौमिक मताधिकार का सिद्धांत हमारे लोकतंत्र की धमनियों में रक्तप्रवाह करता है। लेकिन सार्वभौमिक मताधिकार का यह सिद्धांत श्वेत ब$र्फ का एक ऐसा टापू है, जो लोगों में यह विश्वास जगाता है कि इसमें बैठ जाने से उनके सपनों के ठिठुरते गणतंत्र को पांच साल ऊष्मा मिलती रहेगी।

समय के चक्र को हम जिस तरह सीधे दौडऩे के बजाय उलटा घूमते महसूस करते हैं, तब कहीं से यह आवाज़ भी आती है कि कोई नई क्रांति आज के संकीर्ण कंटीले विषैले अंधेरे के किले के पुरातनवादी प्रवेशद्वार पर ठिठकी खड़ी है। लेकिन निराशा तब प्रतीत होती है, जब हमें काल से होड़ लेने वाले नहीं, बल्कि काल को पछाड़ देने वाले किसी दरवेश की आवाज़ सुनाई नहीं देती।

जम्मू और कश्मीर के पुलवामा कांड के बाद घटनाक्रम को देखें तो पूरे देश में युद्धोन्माद का दमामा बज रहा है और युद्ध को एक अनिवार्य तत्व बताया जा रहा है। ठीक ऐसा ही प्रश्न पद्मसिंह शर्मा कमलेश के दिमा$ग में भी कौंध रहा था। चतुरसेन शास्त्री ने युद्ध को मानव विरोधी तत्व बताया तो तो कमलेश बोले : ''किंतु युद्ध तो एक अनिवार्य तत्व है?’’ इस पर चतुरसेन शास्त्री ने जो जवाब दिया, वह आज के हठी मनुष्य की आंखें खोल देने वाला है। वे बोले : ''है नहीं, था। ज्यह युद्ध मानव संपत्ति नहीं, पशु की प्रकृति है। यद्यपि मानवता के बाल्यकाल से आज तक मानव जीवन के विकास का महत्तर आधार युद्ध ही है। युद्ध में महाजातियों की चरम शक्तियां निहित रही हैं। युद्ध ही ने जातियों का निर्माण किया है। युद्ध ही मानवीय सभ्यता का इतिहास है। मानव ने अपने शैशव काल से ही से युद्ध को ऐसा प्यार किया है कि उसे अपने प्राण और प्राणाधिक पदार्थ भेंट किए हैं। परंतु युद्ध मनुष्य की संपत्ति नहीं, पशु की प्रवृत्ति है।’’ चतुरसेन की मान्यता थी कि मनुष्य अभी तक भी संपूर्ण मनुष्य नहीं है। परंतु वह पशुत्व से थोड़ा विकसित एक प्रगतिशील पशु है। इसी से उसने अपनी सारी प्रतिभाएं युद्ध विकास में खर्च की, जिसका चरम विकास अणु महास्त्र के रूप में व्यक्त हुआ। वे सही कह रहे हैं। हिरोशिमा और नागासाकी के बाद एक समय लगा था कि अब युद्धों की विदाई हो गई है। लेकिन मनुष्य प्रलय का भी रचयिता है। वह हिंसा का भी पुतला है और अहिंसा का अवतार भी। आज हम अपने राष्ट्र के जीवन में जिस गतिरोध को महसूस कर रहे हैं, उसने शिल्पों का ह्रास कर दिया है। शस्य श्यामल खेतों में विकास के नाम पर विनाश की फ़सलें लहलहा दी हैं। रामायण की कथाएं छिटक गई हैं, राम के मूल्य तिरोहित हो गए हैं और राम की प्रतिमा को एक नया मंदिर बनाकर स्थापित करने की भविष्यवाणियां भयत्रस्त लोगों में प्रलय की चेतावनियां दे रही हैं तो राष्ट्रवादी ज्वार पर तैरते लोगों को युद्धोन्माद में एक नई सृष्टि के अवतरण की पदचाप सुनाई दे रही है।

निश्चय ही यह सही है कि मानव मस्तिष्क में चिर अधिष्ठित युद्ध तत्व पर बहुत पहले पूर्ण विराम लग चुका है; क्योंकि घर के आंगन में बोनसाई उगाने के शौकीन मनुष्य ने युद्ध के बोनसाई आतंकवाद के गमले अपने राष्ट्रवादी आंगन में सजा कर रख लिए हैं। यह बोनसाई आए दिन हमारे रक्त को निचोड़ता है और इसने एक विकसित संपूर्ण युद्ध कला को निरर्थक कर दिया है। इस धरती पर जहां-जहां स्वाधीनता की भावना दबी हुई है और जहां-जहां देशभक्ति की लहरें ठाठें भर रही हैं, वहां-वहां आतंकवाद के बोनसाई हमारे नागरिकों का सैनिकों या सत्ता को थर्रा देने के लिए आम नागरिकों के नरसंहार के रूप में और देशभक्ति भरे मरजीवड़े विद्रोही को देशद्रोही करार देकर इसी मातृभूमि के सपूतों के नरमेध रचने के लिए तरह-तरह की आसुरी शक्तियों का आवाहन करती रहती है। पश्चिम बंगाल में जिस समय ऐसे कांड हुए तो साहित्य की संप्रभु भूमि से महाश्वेता देवी ने 'हजार चौरासीवें की मां’ जैसी कृति रचकर पूरे देश के हृदय को कांस्य पात्र की तरह झंकार दिया, लेकिन कश्मीर की महाश्वेता कौन बने? और कौन दोनों तरफ की पशुता को निकाल फेंके, ताकि नागरिक देश की सीमा से परे होकर पूर्णमनुष्य के रूप में विश्व संपदाओं का आनंद उठाए और उनका संरक्षण भी करे। एक नई विश्व संस्कृति का आविर्भाव हो। मानव कार्यकलाप के सभी क्षेत्रों में मनुष्य के दृष्टिकोण को बदले। उसके सोचने के तरीकों को परिवर्तित करे। आदतों को नए सांचे में ढाले। इस रक्तरंजित और भयावनी प्रतीत होती धरती पर सच्ची मनुष्यता को किंवदंतियों में नहीं, रोज़मर्रा के व्यवहार में देखें। हम इस धरती पर अपने शत्रु में भी मनुष्यता के सौंदर्य को ऐसे देखें, जैसे चतुरसेन देखते हैं। जैसे शमशेर देखते हैं, जैसे 'आज मैंने गोर्की को होरी के आंगन में देखा और ताज के साए में राजर्षि कुंग को पाया। लिंकन के हाथ में हाथ दिए हुए ओर ताल्स्ताय मेरे देहाती यूपियन होंठों से बोल उठा और अरागों की आंखों में नया इतिहास मेरे दिल की कहानी की सुर्खी बन गया। मैं जोश की वह मस्ती हूं, जो नेरूदा की भवों से जाम की तरह टकराती है। वह मेरा नेरुदा जो दुनिया के शांति पोस्ट ऑफ़िस का प्यारा और सच्चा $कासिद वह मेरा जोश कि दुनिया का मस्त आशिक़..मैं निराला के राम का एक आंसूं, जो तीसरे महायुद्ध के कठिन लौह पर्दों को एटमी सूई-सा पार कर गया पाताल तक और वहीं उसको रोक दिया। मैं सिर्फ एक महान विजय का इंदीवर जनता की आंख में, जो शांति की पवित्र आत्मा है...और उदयशंकर ने दक्षिण अफ्रीका में एक नई अजंता को स्टेज पर उतारा है। यह सुख का भविष्य शांति की आंखों में ही वर्तमान है।’

 हम समझ सकते हैं : सत्तावादी राजनीति की दिशा है : हम देशभक्ति और राष्ट्रवाद से ही सवा सौ करोड़ लोगों को गठित रख सकते हैं। साहित्य की आत्मध्वनि है : हम मनुष्यता और नैसर्गिक प्रकृति के प्राणतत्त्वों को अक्षुण्ण रखकर इस भूलोक को पुनर्गठित नहीं करेंगे तो न मनुष्य बचेगा, न शस्यश्यमला धरती बचेगी और न बचेगी देशभक्तियां, राष्ट्रीयताएं और स्वाधीनताएं। मनुष्य आज जिस तरह की लीला इस धरती पर रच रहा है, उसकी अंतिम परिणति यही है कि मनुष्यता के अवशेष ने आदमी को विनाश का बिजूका बनाकर नभ में टांग दिया है।  

 

 

त्रिभुवन : दैनिक भास्कर के उदयपुर संस्करण में संपादक हैं और इससे पहले वे जयपुर में राजनीतिक संपादक थे। 'शूद्र’ उनकी चर्चित कविता पुस्तक है। संपर्क : 9672863000

 


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