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सितम्बर - 2018

यह शहर अभी अभी था, कहां चला गया

सुधीर विद्यार्थी

शहरनामा

 

 

जीवन का बुत बनाना

काम नहीं है शिल्पकार का

उसका काम है पत्थर को जीवन देना।

मत हिचको ओ शब्दों के जादूगर!

जो जैसा है, वैसा कह दो

ताकि वह दिल को छू ले।

                    - वरवर राव

 

 

 

 

हैदराबाद सीधे जाना नहीं हुआ है। मैं मुंबई होता हुआ चार मीनार के उस शहर में दाखिल हुआ जहां मेरी छोटी बेटी शहर के पश्चिमी हिस्से की घनी आबादी वाले यूसुफगुडा इलाके की श्रीकृष्णानगर कॉलोनी में है। मुझे याद है कि एक समय 'चारमीनारके नाम से एक सिगरेट बहुत मशहूर हुआ करती थी। डिब्बी पर इस ऐतिहासिक इमारत का चित्र कुछ-कुछ वैसा ही छपा होता था जिस तरह वह शशिनारायण 'स्वाधीनकी स्मृतियों में दर्ज है - 'यह पुराना शहर अब मेरे लिए अजनबी हो चुका है। इस वक्त मैं चारमीनार के साये में खड़ा हूं। मैं आज अपने शहर में अपने बचपन को ढूंढ रहा हूं। शफ़ाक होटल के आइने गायब हैं। मीनार होटल जो कभी अदीबों का अड्डा हुआ करती थी, सड़क चौड़ी करने के लिए तोड़ दी गयी। चारमीनार के घंटे और घडिय़ाल बन्द हो चुके हैं। चारमीनार की बगल में एक दुकान थी हलवाई की-मेघराज। पिता जी अक्सर दादा जी के घर हमें छुट्टियों में ले जाते थे गौलीपुरा। रास्ते में रिक्शा रुकवाकर चबीना लिया जाता था और चंगेरी भर मिठाई बंधाई जाती थी। रिक्शों से भरा हुआ क्षेत्र हुआ करता था चारमीनार, जिसे गौरीशंकर ने अपनी पेंटिंग में भी दर्शाया है। चारमीनार के साये में पहले बस अड्डा हुआ करता था, जहां से बड़ा-सा पुलिस थाना अलग से नज़र आता था। मुस्लिम बाहुल्य क्षेत्र में धर्मनिरपेक्ष माहौल में सुगन्ध फैली हुई थी। शेरवानी कुर्ता और पजामें में हर नागरिक नज़र आता था। ईरानी होटलों में चाय पीते हुए फुर्सत से बतियाते थे लोग। चारमीनार के नीचे मन्दिर था छोटा-सा खुली छत वाला। अब उसकी प्राचीरें बन चुकी हैं। पूजा-अर्चना और घंटियों की आवाज आती रहती थी उन दिनों। मक्का मस्जिद में खुदा के साथ-साथ कबूतर भी खुशहाल रहा करते थे। हिन्दू मुस्लिम दोनों दानदाता सुबह शाम कबूतरों को दाना-पानी दिया करते थे। यूनानी दवाखाने के दरीचों और रोशनदानों में काले भूरे सफेट मटमैले चाकलेटी रंग के कबूतर सिर निकाल कर झांकते नज़र आते थे। कतारबद्ध होकर कबूतरों को उड़ते हुए देखना अपने आप में प्रकृति के निकट हो जाने के अहसास को स्वयं में भरने जैसा था। अक्सर कबूतर धमाकों की आवाज से इकट्ठे ही उड़ा करते थे। लेकिन तब धमाके बमों के नहीं होते थे, साइकिल और रिक्शा के ट्यूब फटने से धमाकेदार आवाज़ें उठा करती थीं। चारमीनार के आगे उबड़-खाबड़ रास्तों पर रिक्शा वाला सवारी खींचते हुए धीरे-धीरे चलता था। बग्गी और तांगे भी चलते थे। टैक्सियां चारमीनार के पास नहीं होती थीं। केवल आधी पीली और काले रंग की फीयेट टैक्सी सिकन्दराबाद के आसपास ही चला करती थी। अक्सर चढ़ाव पर रिक्शा के पीछे भागने लगते थे अपने पिता के साथ हम। कुछ देरी की दूरी तय कर रिक्शा वाला फिर से हमें सवार हो जाने का हुक्म देता। उसकी हम तामील करते। मैं मां की गोद में बैठ जाता था। उतार के रास्तों पर हवाई जहाज की तरह हमारा रिक्शा उडऩे लगता था। चारमीनार की गलियों से होकर हम घर पहुंचते थे। बड़े-बूढ़ों की तरह हमारी उंगलियों को थामे हुए साथ चलने वाला वह वक्त आज हमें इस चकाचौंध वाले अजनबी इलाके में छोड़कर कहां खो गया है?

आज मेरे सामने चारमीनार के कई वर्तमान चित्र गडमड हो रहे हैं। सशस्त्र पुलिस से घिरे चारमीनार के गौरवशाली गुंबद। प्रदर्शनकारियों के हुजूम को धकियाते अर्धसैनिक बल के जवान और निरीह जनता पर गालियों-डंडों की बौछार करते अफसरों की कड़क आवाजों के खौफ से गूंजती इस ऐतिहासिक इमारत की चौहद्दी। चारमीनार अब इतिहास ही नहीं, वर्तमान भी है जहां साम्प्रदायिकता की गंध तैरती है।

चारमीनार के आगे मक्का मस्जिद के सामने से गुजरते हुए क्या किसी को यहां रही उन दुकानों की भी याद होगी जहां बनियान और लुंगी में कारीगर बैठे हुए चांदी की बर्की कूटते थे जो मिठाई में लगाई जाती थी। ये कारीगर मुसलमान भाई थे जो छोटी-छोटी हथौडिय़ों से आवाजें निकाला करते थे। आप पूछे तो 'स्वाधीनआपको बता सकते हैं कि यहां का नौबत पहाड़ अब बिरला मंदिर में तब्दील हो गया है और दत्तात्रेय की टेकड़ी का भी अब किसी की यादों में कोई मुकाम नहीं। पुराने नक्शे बदल गए हैं और नए जो बन रहे हैं उनकी निशानदेहियां बेहद खौफनाक हैं। राजनीति अपने हित के लिए इन्हें हर वक्त काला-कलूटा और बदरंग कर देने पर आमादा है। आगे क्या होगा इसे खुदा (?) जाने।

बेटी मुझे सालार जंग म्यूजियम चलने के लिए कह रही है। पर मेरी उसमें कोई दिलचस्पी नहीं। शाही परिवारों के वैभव मुझे आकर्षित नहीं करते। मैंने राजकुमार कृषक से कहा, 'चलिए, वरवर राव से मिलने चलते है।

वरवर से मेरी पहली भेंट भगतसिंह के शहीदी दिवस पर दिल्ली के फिरोजशाह कोटला मैदान पर हुई थी। रामचन्द्रन गुट (नक्सली) की उस विशाल रैली में वे मुख्य अतिथि थे और मैं मुख्य वक्ता। मुझे शम्सुल इस्लाम ने आमंत्रित किया था। यह वर्ष 1990 की बात है। हैदराबाद में ऑटो से सिद्दमसेट्टीज हिमासाई हाईट्स में उनके फ्लैट तक पहुंचने में हमें देर हो चुकी थी। युवा साथी राजीव कुमार (राही) हमारे साथ थे। आधी आस्तीन की कमीज और लुंगी पहने वरवर खूब स्वस्थ लग रहे थे। मैंने उत्तराखंड मुक्त विश्वविद्यालय में दिए अपने व्याख्यान की छपी प्रति उन्हें भेंट की तथा नई पुस्तक 'फतेहगढ़ डायरीभी जिसमें वहां की केन्द्रीय कारागार में मारे गए कई नक्सली बंदियों की संघर्ष गाथा को खासतौर पर दर्ज किया गया था। वरवर से हम देर तक बातें करते रहे। आंध्र के प्रसिद्ध क्रांतिकारी अल्लुरि सीताराम राजू के बारे में पूछताछ करने पर उन्होंने कहा, 'उन पर मंगलामा की एक पुस्तक है तेलुगु में। पर इसके बारे में निर्मलानंद जी बता सकते हैं ठीक से।

मुझे याद आया कि 7 मई 1924 को 27 वर्ष की उम्र में कोय्युरू में शहीद होने वाले इस क्रांतिकारी शहीद पर 1986 में भारत सरकार ने एक डाक टिकट भी जारी किया था। वरवर ने कुछ रुककर कहा, 'अल्लुरि सीताराम राजूनाम तेलुगु में फिल्म है। वे बोले, 'इन दिनों हिंदी और तेलुगु के मध्य सेतु कम हुआ और टूटा है। एनटी रामाराव से पहले हिंदी और तेलुगु के बीच ज्यादा आवाजाही थी। अब तेलुगु और अंग्रेजी में है।

वरवर का घर सही अर्थों में किसी कवि की रिहायश लग रही थी। सब कुछ सुव्यवस्थित और सुरुचिपूर्ण तरीके से रखा-सजा। किताबें उस फ्लैट को विशेष गरिमावान बना रही थीं। मैं कभी उनको तो कभी उस घर को देखता था। राही ने वरवर के साथ हमारे कुछ चित्र उतारे। बाद को वे चौथे फ्लोर से नीचे तक हमें छोडऩे आए। चलते समय उन्होंने मेरी उम्र दरयाफ्त की। सुनकर बोले, 'अभी तो यंग हो।और एक उजली हंसी हंसते हुए वे मेरे कंधे को बहुत आत्मीयता से थपथपाने लगे। मुझे उनकी कविता याद आई-

 

विजय के लिए यज्ञ करने से

मानव-मूल्यों के लिए लड़ी जाने वाली लड़ाई

ही कसौटी है मनुष्य के लिए।

 

युद्ध जय-पराजय में समाप्त हो जाता है

जब तक हृदय स्पंदित रहता है

लड़ाइयां तब तक जारी रहती है।

 

अगले दिन निर्मलानन्द वात्सयायन से हमारी भेंट और भी सुखद रही। उनसे सघन पत्र संपर्क पहले से था। उन्होंने मेरे कुछ लेखों और कुछेक कविताओं का तेलुगु में अनुवाद भी किया था। तेलुगु में 'प्रजा साहितीपत्रिका का प्रकाशन उनका उद्यम था जिसमें शहीदों और क्रांतिकारियों पर प्रचुर मात्रा में सामग्री देकर वे हमारे मिशन के सहमार्गी बन गए थे। निर्मलानंद जी को हिंदी से तेलुगु में ख्यातिलब्ध अनुवादक के रुप में जाना जाता है। स्नेह और आत्मीयता से भरा-छलकता उनका व्यवहार हमें पल-पल भिगो-भिगो दे रहा था। वे अपने संग्रह की एक-एक चीज को किसी अजूबे की तरह हमें दिखा रहे थे। हमारे कितने ही पत्रों को उनके खजाने में किसी बहुमूल्य रत्न की तरह संजोकर रखा गया था।

सिकन्दराबाद को हैदराबाद का जुड़वा शहर कहा जाता है। हम मुंबई से आए तब सिकन्दराबाद रेलवे स्टेशन पर ही उतरे थे। इस शहर से मेरा खास रिश्ता शहीदे-आज़म भगतसिंह के साथी काला पानी गए क्रांतिकारी विजय कुमार सिन्हा के रहते वर्षों तक बना रहा। वे नहीं रहे तब उनकी पत्नी श्रीमती श्रीराजयम सिन्हा से उस आत्मीयता और स्नेह की डोर टूटी नहीं। विजय दा के न रहने के बाद श्रीराजयम ने अंग्रेजी में एक पुस्तक 'विजय कुमार सिन्हा : ए रिवोल्यूशनरीज क्विस्ट फॉर सैक्रीफाइसपुस्तक लिखकर उस क्षति को पुरा कर दिया जिसे विजय दा अपने अंतिम दिनों में अस्वस्थता के चलते चाहते हुए भी कलमबद्ध नहीं कर पाए। यद्यपि विजय दा अंडमान से लौटकर दो महत्वपूर्ण पुस्तकें लिखने में सफल हुए थे - 'अंडमान: एन इंडियन वास्तीलतथा 'द न्यू मैन इन सोवियत यूनियन। विजय दा से मेरा सघन पत्र-व्यवहार रहा लेकिन उन दिनों अपने भेजे अधिकांश पत्रों को वे श्रीराजयम जी को अंग्रेजी में बोलकर लिखाया करते थे। विजय दा का पुत्र तो नक्सलवादी आंदोलन में नहीं रहा, लेकिन उनकी पुत्रवधू शांता सिन्हा हैदराबाद में प्रोफेसर हैं। मैं उनसे मिलने की इच्छा लेकर ही हैदराबाद आया था लेकिन फोन करने पर मालूम हुआ कि वे बेंगलूरु में हैं और रविवार को 10 बजे तक लौटेंगी। मेरे लिए यह निराशाजनक स्थिति थी क्योंकि उसी रोज बरेली के लिए मेरी वापसी थी।

अब कृषक जी और मैं यहां रहते हुए डॉ. सुवास कुमार और लाल्टू जी से भेंट कर लेना चाहते थे। इसमें भी युवा साथी राजीव कुमार (राही) हमारे मददगार बने। सुवास जी का आवास 38, शांतिनिकेतन हैदराबाद-32 के क्वालेण्ट्स कॉलोनी में है जो गोचिवोलि के इन्दिरा नगर में है। फोन करने पर लाल्टू जी वहीं आ गए। अपने प्रिय लेखक और कवि से बतियाते हम हैदराबाद सेंट्रल यूनिवर्सिर्टी के उस प्रांगण में पहुंच ही गए जहां आईआईआईटी के बी-53 आवास में उन दिनों नंद किशोर आचार्या ठहरे हुए थे। नंदकिशोर जी से उस दिन जो चर्चा हुई वह अम्बेडकर, गांधी और उनके नाटकों पर ही खास तौर से केन्द्रित रही। वे अपने 'बापूनाटक पर देर तक बोले पर गांधी पर मेरा पक्ष जानने में उनकी अधिक दिलचस्पी नहीं थी जबकि उनकी चेतना में जो गांधी थे और जिन्हें वे अपने नाटकों के जरिए प्रस्तुत करने की कोशिशें करते रहे, वही गांधी प्राय: सभी के भीतर नहीं रहते आए हैं। उस दिन गांधी को लेकर मैं उनका सहज श्रोता ही बना रहा। उन्हें सुनना मेरे लिए सचमुच बहुत दिलचस्प था और ज्ञानबर्धक भी। यद्यपि मेरे और उनके गांधी में अनेक मूलभूत भिन्नताएं थीं जिन पर बात करने के लिए उस समय मैं बहुत उत्सुक नहीं था। हम उनके फ्लैट के बाहरी हिस्से में ही बैठे थे जबकि हमारे लिए यह बहुत सुविधाजनक स्थान था। लाल्टू के चले जाने के बाद मुझे याद आया कि जिस खास मुद्दे पर मैं उनसे चर्चा करना चाहता था उसका मुझे ध्यान ही नहीं रहा। परस्पर विरोधी विचार वाले लाल्टू और सागर पिछले दिनों हुए चुनावों में आंध्र प्रदेश के एक नए दल से प्रभावित हुए थे। यह दल नई राजनैतिक संस्कृति स्थापित करने के प्रमुख घोषित मकसद से बनी 'लोक सत्ता पार्टीथा और जिसके संस्थापक पूर्व नौकरशाह जयप्रकाश नारायण थे। आंध्र विधानसभा की एक सीट यह दल जीता था जिस पर स्वयं जयप्रकाश प्रत्याशी थे।

हमारे पास एक ही दिन का समय था और ऐसे में हमें मुजफ्फरनगर के डॉ. कृष्णचन्द्र गुप्त से मिलना जरूरी लगा। वे यहां अपनी बेटी के पास थे और उनकी अस्वस्थता का समाचार भी प्राय: हमें मिलता ही रहता था। हुसैन सागर झील से गुजरते हुए श्रीलिंगपल्ली के उस आवास में पहुंचकर मुजफ्फरनगर के उनके घर की न जाने कितनी यादें ताजा हो गईं जब मैं कर्मवीर पंडित सुन्दरलाल पर स्मृति-ग्रंथ निकालने की तैयारी की सिलसिले में बार-बार उनके पास पहुंच जा रहा था और कह सकता हूं इस कार्य में उनके साथ ही सुंदरलाल जी के उस जिले के डॉ. कमल सिंह और डॉ. शुकदेव श्रोत्रिय का भी मुझे भरपूर सहयोग मिला।

अगले रोज कृषक जी के साथ हम दक्षिण भारत हिन्दी प्रचार सभा खैरताबाद के उस विशाल परिसर में जा पहुंचे जहां डॉ. ऋषभ देव शर्मा, विजेन्द्र प्रसाद सिंह, गुर्रम कोंडा नीरजा, शाहिरा बानू बी बोरगल, बलविंद्र कौर आदि 'संकल्पसे जुड़े कई लोगों से भेंट हुई। उन्होंने 28, 2930 मार्च को होने वाली त्रिदिवसीय संगोष्ठी 'अंधेरे मेंका निमंत्रण पत्र देने के साथ ही 'संकल्पतथा 'स्त्रवंतिके कुछ अंक भेंट किए। ऋषभ देव तथा जी. नीरजा ने अपनी पुस्तकें भी दीं। जी. नीरजा ने अपनी पत्रिका के अंक-7, अक्टूबर 2010 में मेरा एक लेख 'क्या आप क्रांतिकारी अज्ञेय को जानते हैंकथादेश से साभार प्रकाशित किया था। वाचस्पति ने चलते समय मुझे तेलुगु की हिंदी अनुवादिका आर. शांता सुन्दरी का फोन नम्बर दे दिया था। वे सेन्ट्रल यूनिवर्सिटी के पास ही कहीं रहती हैं लेकिन बात करने पर मालूम हुआ उनके पति अत्यंत अस्वस्थ हैं। ऐसे में उनसे हमारा मिलना संभव नहीं हो पाया। 'आधारशिलाके एक अंक में तेलुगु से उनके हिंदी अनुवादों को खासी जगह दी गई थी।

एक समय हिन्दी प्रचार सभा हैदराबाद के प्रधानमंत्री राजकिशोर पाण्डेय हुआ करते थे। तब नामपल्ली के एल.एन. गुप्त मार्ग पर 'हिन्दी भवनथा। यह 1985 की बात है जब क्रांतिकारी मन्मथनाथ गुप्त की पुस्तक 'चन्द्रशेखर आज़ाद और उनका युगका प्रकाशन इसी सभा ने किया था। उसे यहीं की 'हिन्दी प्रेसमें छापा गया था। इस पुस्तक में मन्मथ दा की गांधी पर एक खरी टिप्पणी का मुझे अभी भी स्मरण है - 'गांधी अपनी सुविधा के अनुसार सत्याग्रह की परिभाषा बदलते थे। उन्होंने यतीन्द्रनाथ दास के अनशन को हिंसा करार दिया, जबकि धरसाना में उन्होंने जो कुछ किया, वह ताजीरात हिंद के अनुसार नमक की लूट थी और किसी भी प्रकार साधारण लूट से अलग नहीं थी। यहां मैं यह भी बता दूं कि स्वराज्य के ऐन बाद गांधी जी ने पाकिस्तानी हमले के विरुद्ध भारतीय सेना के अभियान को सही बताकर अपना आशीर्वाद दिया था। इस आशीर्वाद के समय अहिंसा किस बिल में घुस गई?’

हम हैदराबाद शहर को आते-जाते ही देखते-निहारते रहे। दर्शनीय स्थलों पर जाने और घूमने-फिरने के नजरिए से हमने कभी किसी जगह की यात्राएं नहीं कीं। हम अक्सर जनजीवन को देखने-जानने और उस भूखण्ड के सामुदायिक चरित्र को पकडऩे के लिए उस घुमक्कड़ी को ही अधिक अर्थवान मानते रहे जो प्राय: हमारे हिस्से में आ भी जाती रही। पर इस बार हमारे पास अधिक समय नहीं था। इस तथ्य की जानकारी के लिए हमें कोई सूत्र नहीं मिल पा रहा था कि दक्षिण में मद्रास क्रांति से जुड़े क्रांतिकारी इन्द्रसिंह गढ़वाली उर्फ प्रेमप्रकाश मुनि और बन्तासिंह जब बिल्लारी सेन्ट्रल जेल से भागे तब वे हैदराबाद के निकट ही पुलिस के हाथ आ गए थे। उन्होंने कितने कष्ट उठाए और प्रेमप्रकाश मुनि का तो फिर कहीं अता-पता भी न मिला। देश की आजादी के लिए कैसी-कैसी गुमनाम कुर्बानियां आज जिनके नामो-निशां भी दूर तक कहीं दिखाई नहीं देते।

हैदराबाद में शशि नारायण 'स्वाधीनसे मिलना मेरे लिए सबसे बड़ा आकर्षण था। अपने आने की सूचना मैं उन्हें पहले ही दे चुका था। यहां पहुंचकर उनके घर का रास्ता दरयाफ्त कर ही रहा था कि वे यूसुफगुडा में मेरी बेटी के मकान पर खुद ही आ धमके। अब मेरे सामने सचमुच का एक लेखक था जो विचित्र-सी आवारा लेकिन सचेत जिंदगी का रहनुमा है और जिसके पास विचार और संघर्ष का ऐसा मिला-जुला रोजनामचा है जो किसी भी सामने वाले को हैरत में डाल देता है। 'स्वाधीन' का रचनाकार अभिव्यक्ति के सारे खतरे उठाना जानता है और वह कलम का ऐसा धनी भी है जो कुछ लिखता है उसमें सहज ही कविता के तत्व को भी चीन्हा जा सकता है। यों उनके पास बेहतरीन कविताएं भी हैं जो  उन्हें संवेदनशील कवि मानने को विवश करती हैं। उनके यहां संघर्ष की आंच और रचनात्मकता के विस्फोट से आग और पानी की संगत का अद्भुत कोलाज सृजित दिखाई पड़ता है।

'स्वाधीनके पास अपने पिता का एक किस्सा है। लाल डांगे से मिलने उनके पिता गए थे। लौटकर उन्होंने सुनाया कि एक कामरेड हैदराबाद जा रहा था। उससे लाल डांगे ने कहा था कि हैदराबाद में दो चीजें देखने लायक हैं - चारमीनार और मख्दूम। मकबूल फिदा हुसैन जब हैदराबाद में थे, उन्होंने मख्दूम के शेरों पर आधारित चित्र बनाए थे। पेंटिंग्स की प्रदर्शनी भी की थी। पूरा नाम था उनका मख़्दूम मुहिउद्दीन। बड़े शायर थे। मुझे उनके दो शेर अक्सर याद आते हैं -

 

कोई दीवाना गलियों में फिरता रहा, कोई आवाज आती रही रात भर।

 

बजा रहा था कहीं दूर कोई शहनाई, उठा हूं आंखों में इक ख्वाब-ए-ना-तमाम लिए।

 

हैदराबाद आया तो कवि श्रीश्री, ज्वालामुखी, चेराबंडा राजू, कदर और वेणुगोपाल की यादें बेखास्ता मेरा पीछा करती रहीं। श्रीश्री और ज्वालामुखी की कविता से सबसे पहले मुझे सर्वेश्वर दयाल सक्सेना ने परिचित कराया था। और वेणुगोपाल पर तो 2008 में उनके निधन के बाद 'संदर्शके एक अंक की मैंने योजना बनाई थी जो पूरी नहीं हो सकी। हिंदी कविता में एक वेणुगोपाल और आलोक धन्वा की खूब चर्चा थी। उनकी कविताओं में नक्सलवादी आंदोलन का तेवर था। 'हवायें चुप नहीं रहतींऔर 'चट्टानों का जलगीतरचने वाला वेणु का कवि हिन्दी में सचमुच अप्रितम था। आज कौन जाने मख़्दूम के बेटे नुसरत के बेटे नुसरत मुहिउद्दीन से वेणु ने एक बार कहा था, 'आपके पिता मख़्दूम से प्रभावित होकर ही हम लेखन के क्षेत्र में आए थे। उन दिनों ओरियंट होटल में हम मख़्दूम साहब से मिला करते थे। 1952 के चुनाव में मख़्दूम को बहुत वोट मिले फिर भी वह जीते नहीं थे। लेकिन जितने वोट मख़्दूम को मिले थे खतरे की घंटी बजा रहे थे।’... और गदर जिसके बारे में एक समय कहा जाता था कि उनका दिमाग शस्त्रागार है और उसके गीतों को सुनकर लोग बन्दूकें उठा लेते हैं। लेकिन वाइस ऑफ अमेरिका में तुली ने कहा था -  'गदर बेआवाजों की आवाज का नाम है।आज मुझे वेणु की कविता, उनकी बाद की बिखरती जिंदगी, वीरा और किशनगंज का मठे बेसाख्ता याद आ रहा है....

मित्र राजकुमार कृष्क मेरी पुस्तक 'फतेहगढ़ डायरीके आखिरी सफेे पढ़ रहे हैं और मैं 'हैदराबाद की पांचवी मीनारकहे जाने वाले बद्रीविशाल पित्ती की याद कर रहा हूं जिनकी आज जन्मतिथि है - 29मार्च। यह संयोग ही है कि आज मैं पित्ती के इस ऐतिहासिक शहर में हूं जिसे कभी उन्होंने अपने कृतित्व से समाजवादी चिंतन और कर्म के सचेत साहित्यिक-सांस्कृतिक केन्द्र में तब्दील कर दिया था। वे जीवित होते तो 87 वर्ष पूरे कर लेते। आज हिंदी के समाचार पत्रों में उनका नामोल्लेख भी नहीं जबकि उन्हें गुजरे अभी एक दशक से कुछ ऊपर का ही समय व्यतीत हुआ है। पित्ती को लेकर साहित्य और संस्कृति की दुनिया में पसरा यह विकट सन्नाटा मुझे हैरत में डाल दे रहा है। जैसे इस शहर की उस 'पांचवी मीनारको हर किसी ने अपनी यादों के कैनवास पर ज़मींदोज कर दिया है। ये वही पित्ती थे जिनके बारे में सुवास कुमार ने एक समय कहा था कि कार्ल माक्र्स और माक्र्सवाद के संदर्भ में जो महत्व फ्रेडरिक एंगेल्स का है, डॉ. राममनोहर लोहिया और समाजवाद के लिए वही बद्री विशाल पित्ती का है। वे मारवाड़ी उद्योगपति परिवार के थे और उनके दादा मोतीलाल पित्ती को यहां के निज़ाम ने 'राजा बहादुरकी उपाधि दी थी। किसे पता था कि उनका पोता एक दिन समाजवाद का ऐसा अगुआ बनेगा जिसे लोग 'हैदराबाद की एक और मीनारया 'हैदराबाद की पांचवी मीनारके रूप में जानने लगेंगे। पित्ती एक तरह से समाज, साहित्य, संस्कृति, विचार और पत्रकारिता की दुनिया के ऐसे स्तम्भ थे जिसके कृतित्व को चंद शब्दों में समेटा जाना संभव नहीं है। कहते हैं कि चित्रकार मकबूल फिदा हुसैन के संघर्ष के दिनों में पित्ती ने उनके लिए अपने हैदराबाद के घर को ही स्टूडियो बना दिया था। हुसैन की शुरुआती प्रदर्शिनियों का आयोजन पित्ती ने ही किया था। उन्हें हुसैन की कलाकृतियों का 'फस्र्ट इंडियन कलेक्टरभी कहा जाता है। 1949 में ही जब पित्ती इक्कीस वर्ष के थे, उन्होंने 'कल्पनापत्रिका की हैदराबाद से शुरुआत की जिससे भवानीप्रसाद मिश्र, कृष्ण बल्देव वैद, रघुवीर सहाय, मणि मधुकर, शिवप्रसाद सिंह और प्रयाग शुक्ल जैसे लोग जुड़े। प्रयाग जी आज भी 'कल्पनाके दिनों को बहुत गर्व के साथ याद करते हैं। डॉ. लोहिया के कहने पर हुसैन ने जो रामायण श्रंखला के अप्रतिम चित्र बनाए थे, वे भी पहले-पहल 'कल्पनामें ही प्रकाशित हुए थे। कहा जाता है कि उत्तराखंड की किसी वादी में जब लोहिया ने हुसैन को लैण्डस्केप बनाते देखा तब उन्होंने कहा था कि इस मुल्क के मानस में राम-कृष्ण-शिव की कहानियां अंकित हैं, उन्हें अपना विषय बनाओ। हुसैन की महाभारत और रामायण की श्रंखला की नुमाइश पहले-पहले हैदराबाद की सड़कों और गलियों में साइकिल रिक्शो में सजाकर दिखाई गई थी।

लेकिन 'एम.एफ. हुसैन की कहानी : अपनी जुबानीके अनुसार - 'हैदराबाद के रईस पन्नालाल पित्ती के राजभवन के पड़ोस में आलीशान मोती भवन जिसमें उनके बेटे बद्रीविशाल ऊपरी हिस्से में गावतकियों के मध्य विराजमान। दोपहर के भोजन का समय। कुछ और लोग भी चारों तरफ बैठे हुए। डॉ. लोहिया के आने का वक्त। एक लड़का इस मंजर को कलमबद्ध कर रहा है। डॉ. लोहिया का स्केच उनके झुंझलाए बालों से शुरू होकर, मिंची-मिंची शरारती आंखें ढूंढता हुआ नथुनों से बहुत नीचे होठों पर आ रुका। लोहिया जी की बांछें खिल गईं, ज्यों ही लड़के और उनके स्केच को देखा। जोर से बगल में भींच लिया और वह भींच बरसों ढीली नहीं पड़ी।

'एक शाम वह लड़का लोहिया जी को जामा मस्जिद के करीम होटल ले गया, क्योंकि उन्हें मुगलई खाना, शीरमाल - वगैरह बहुत पसंद थी। लोहिया जी बोले, 'यह जो तुम बिड़ला और टाटा के ड्राइंग रुम में लटकने वाली तस्वीरों में घिरे हो, उससे बाहर निकलो। रामायण को पेंट करो, यह देश की सदियों पुरानी कहानी है। गांव-गांव गूंजता गीत है, संगीत है। इन तस्वीरों को गांव-गांव ले जाओ। शहर के बंद कमरे, जिन्हें आर्ट गैलरी कहा जाता है, लोग वहां सिर्फ पतलून की जेब मे ंहाथ डाले खड़े रहते हैं। गांव वालों की तरह तस्वीरों के रंग में घुल-मिलकर नाचने-गाने नहीं लगते। लोहिया जी की यह बात लड़के को तीर की तरह चुभी। आखिर लोहिया जी की मौत के फौरन बाद उनकी याद में रंग भरे और कलम लेकर बदरी विशाल के मोती भवन को तकरीबन डेढ़ सौ रामायण चित्रों से भर दिया। दस साल लगे, कोई दाम नहीं मांगा। सिर्फ लोहिया जी के शब्दों का मान रखा।

सरस्वती की पेंटिंग बनाकर विवादों में आए हुसैन (9 जून 2011, लंदन में मृत्यु) की रामायण आधारित करीब 250 पेंटिंग्स हैदराबाद स्थित लोहिया समता न्यास में धूल फांक रही हैं जिन्हें उन्होंने लोहिया और पित्ती के आग्रह पर बनाया था। योजना थी कि जनता दल के सत्ता में आने के बाद एक संग्रहालय बनाकर इन्हें प्रदर्शन के लिए रखा जाएगा लेकिन पार्टी ने बाद में इस कार्य को पूरी तरह विस्मृत कर दिया। कौन जाने लोहिया समता न्यास की इन दिनों क्या स्थिति है। लोहियावादी 'एक दिल के हजार टुकड़ोंकी तरह सत्ता के गलियारों में न जाने कहां जाकर बिखर-भटक गए। बिहार के राजनेता शिवानंद तिवारी ने हुसैन की इन पेंटिंग्स के बारे में एक बार संस्कृति मंत्रालय को भी लिखा था पर हुआ कुछ नहीं। शिवानंद की पार्टी खुद ही बाद को सत्ता के लिए उनकी गोद में जा बैठी जो हुसैन की जान के प्यासे बन बैठे और जिनकी बेशर्म हरकतों के चलते उन्हें विदेशी धरती पर अपने प्राण त्यागने पड़े।

मुझे बार-बार स्वाधीनता संघर्ष में पित्ती की अविस्मरणीय भूमिका का भी ध्यान आता है जबकि उन्होंने भूमिगत रहकर 'हैदराबाद रेडियोका संचालन किया था। मेरे लिए यह जानना सचमुच बहुत रोमांचक है कि उनके पिता पन्नालाल ने भी आजादी के बाद भारतीय संघ में हैदराबाद के विलय में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। आजादी के बाद पित्ती ने ससोपा (चुनाव चिन्ह बरगद) के टिकट पर हैदराबाद के महाराजगंज से विधानसभा का चुनाव भी लड़ा और जीता था। वाग्देवी प्रकाशन, बीकानेर से प्रयाग शुक्ल की एक पुस्तक 'बदरी विशालछपी है। पित्ती के जिंदगीनामे को जानना मेरे लिए बहुत रोमांचक है और प्रेरक भी। मैंने कहीं पढ़ा था कि रामधारी सिंह 'दिनकरजब राज्यसभा में थे तो पित्ती जी एक रोज उनसे मिलने गए। सूचना भिजवाकर वे बाहर बुलावे की प्रतीक्षा करने लगे। एकाएक दिनकर जी बाहर निकलकर आए और उन्हीं से पूछ बैठे कि पित्ती जी कहां हैं? पित्ती ने कहा कि मैं ही तो हूं तो दिनकर का उत्तर था कि आप तो युवा है। आपके नाम और काम के मद्देनजर मैं समझता था कि आप बुजुर्ग होंगे।

मैं आज आचार्य चतुरसेन की 'यादेंमें 'हैदराबाद की बेगमका दिलचस्प किस्सा पढ़ रहा हूं और यह भी कि इसी शहर की खातून आस्मां रहमान ने फिल्मी अभिनेता दिलीप कुमार पर अपना हक जताया और निकाह किया, उससे दिलीप को ढाई-तीन साल बाद  ही मुक्ति मिल गई। अपनी आत्मकथा में उन्होंने इस हैदराबादी खातून के प्रसंग पर पर्दा डालना ही बेहतर समझा।

हैदराबाद में निजाम की नौकरी करने कभी जोश मलीहाबादी भी आए थे। पर यहां उनकी निभ नहीं पाई। उन्होंने 'गलत-बख्शीके नाम से निजाम के खिलाफ एक नज्म कही थी जो उनके वहां से निकाले जाने का सबब बन गई। लेकिन बात सिर्फ इतनी ही नहीं थी। वे खुद लिखते हैं - जब मैं निजाम के रुबरु सरापाईकसार (संदेह विनम्रता) बन कर जाता, उन्हें 'सरकारकहता और उनकी जबान से अपने मुताल्लिक 'तुमसुनता था तो मेरे दिल पर ऐसी चोट लगती थी कि बिलबिला उठता था। जबान से तो कुछ नहीं कहता था लेकिन मेरे चेहरे का बदला हुआ रंग और मेर चोट खाए दिमाग की बरकी लहरें निजाम के दिल पर इस तरह असर किया करती थीं जिस तरह मैदान में सोने वाले पर शबनम गिरती है और उसे कुछ भी खबर नहीं होती कि मेरे सर में यह धमक क्यों हो रही है।

जोश के बारे में कहा जाता है कि वह मुलाजमत कर रहा है मगर उसे दिमाग से बूएअमारत अभी तक नहीं। निजाम की सालगिरह बगैरह पर तमाम शायर कसीदे पेश करते थे, लेकिन जोश ने कसीदा नहीं कहा। लेकिन जोश इस नौकरी से इतना तंग आ गए कि उन्होंने इस्तीफा दे दिया जो मंजूर नहीं हो रहा था। तब एक रोज उन्होंने हकीम आजाद अंसारी से कहा कि मुझे नाफरमानी के जुर्म में गिरफ्तार कराकर जेल भिजवा दें। आजाद ने उनसे कहा - गिरफ्तारी की बात न कहें। अगर आपको गिरफ्तार कर लिया तो लिटरेचर की हिस्ट्री हैदराबाद को कभी माफ नहीं करेगी।

और इस तरह जोश मलीहाबादी अपने घर लौट गए लेकिन बुद्धू बन कर नहीं। वे यहां से चले तो अपनी खम और दम के साथ।

...बेटी के घर से चल पड़ा हूं। वह उदास है कि अधिक दिन नहीं रुका। इस शहर को जिस तरह देखने-जानने की आकांक्षा थी उसे पूरा नहीं कर पाया। जो कुछ भीतर उतारना था, वह भी अधूरा-सा रह गया सब। फिर आने का वादा करके चल पड़ा हूं। मेरे भीतर क्रांतिकारी विजय दा की यादों का अट्टू सिलसिला और भी पीड़ा दे रहा है कि उनके जीवित रहते गई बार के बुलावे के बाद भी हैदराबाद और सिकन्दराबाद की यात्रा नहीं कर सका जबकि वे अपने अंतिम दिनों क्रांतिकारी संग्राम और देश की वर्तमान राजनीति पर मुझसे कुछ जरूरी विमर्श करना चाहते थे। उससे पूर्व भी एक बार मेरी हैदराबाद यात्रा टल जाती रही जब डॉ. शिवप्रसाद सिंह ने मेरी रीढ़ के तकलीफ को जान-समझकर मुझे पत्र में लिखा था कि डॉ. रामविलास शर्मा ने सेवा की पोलियोग्रस्त अस्थि के टूटने पर उसे हैदराबाद के डॉ. विक्रम मारवाह को दिखाया और वे उनकी निष्ठा और कुशलता की प्रशंसा करते हैं। डॉ. मरवाह शिवप्रसाद सिंह के भी पुराने परिचित थे। यह 1991 की बात है।

 

सुधीर विद्यार्थी जाने माने लेखक हैं। आपने क्रांतिकारियों और उनके इतिहास पर प्रामाणिक लेखन किया है।

संपर्क - बरेली

 


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