मुखपृष्ठ पिछले अंक अश्वत्थामा मारा गया : शायद मनुष्य, शायद घोड़ा
अप्रैल 2018

अश्वत्थामा मारा गया : शायद मनुष्य, शायद घोड़ा

स्कंद शुक्ल

विज्ञान/निरंतर-एक





अश्वत्थामा मारा गया : शायद मनुष्य, शायद घोड़ा
(अश्वत्थामा हतो, अश्वत्थामा हतो, नरो वा तुरंगो वा।)

बालक ने अपनी मां से दूध नहीं मांगा था, सांसें मांगी थीं। उसकी बुझती आंखों में अंधेरे की बढ़ती पैठ थी: मानो पुतलियां फैलकर पूरी दृष्टि को ढांप कर बन्द कर लेना चाहती थीं। चेहरा विषाक्त था और श्वास की भिक्षा मांगता मुख खुला हुआ। वायु उसके संकरे मार्ग में संघर्ष के साथ आवाज़ करती दाखिल होती थी। मुंह में भीतर पीछे एक धूसर पर्दा था, जो साक्षात् काल बनकर उसके जीवन को नष्ट करने पर तुला था।
किंवदन्तियां कथाओं के पात्रों में विलक्षण संस्कार पिरोती हैं, उनका विस्मयकारक अलंकरण करती हैं। कोई शिशु जन्म के समय घोड़े-सा नहीं हिनहिनाता, हमारा हतभाग्य नायक भी नहीं हिनहिनाया था। और जो अपने जन्म के समय ऊंचे हय-स्वर में बोल उठा था, वह एक घोड़े का ही शावक था।
तो मनुष्य-पुत्र और अश्व-पुत्र, दोनों संग शनै: शनै बढऩे लगे। बालक घुटनों चला, फिर खड़ा हुआ। उसने मानव-स्वर सीखे और मानव-स्वाद भी भोगे। फिर वह दोपायी दृढ़ता के साथ चलने ही लगा था कि उसे इस रोग ने आ घेरा। तुलना में अश्व-शावक ने उठना और चलना तो तुरन्त ही शुरु कर दिया था। उसे इस बात की हैरत थी कि मनुष्य गतिमान् होने में इतनी देर क्यों लगाता है। और फिर गति से अधिक महत्व की ऐसी कौन सी विधा है सीखने को? ऐसा कौन सा विकास है जो दौड़ते-कूदते हरे घास के मैदानों में चरने से अधिक आवश्यक है? हिनहिन से मनमोहक भला कौन सा अन्य स्वर है, शस्य श्यामल धरती से अधिक सुस्वादु भला कौन सा पक्वान्न है!
बढ़ता हुआ वह अश्वकुमार मनुष्य को समझ नहीं पाया, यह उसकी त्रुटि नहीं थी। मनुष्य स्वयं अपने आप को कहां समझ पाता है! वह पेट के बल चलता है, फिर घुटनों के सहारे, तिल तलवों पर बोझ संभालता है। कई मनुष्य ऐसे भी होते हैं, जो इस विकासक्रम में धरती से सम्पर्क ही तोड़ लेते हैं। लेकिन यह विकास-क्रम मनुष्य-देह के लिए है। सोचने वाला मन इस उत्थान और उड़ान को सहजता से ग्रहण नहीं कर पाता। वह भूमिशायी ही रहता है मिट्टी से चिपका हुआ : उठने का प्रयास करता है कि वापस धप्प से मिट्टी में गिर पड़ता है।
घोड़े मिट्टी जल्दी छोड़ते हैं, उन पर यौवन जल्दी चढ़ता है। जल्दी युवा होने से प्रकृति आत्मनिर्भरता देखती है। तुम बड़े हो, छोटे को संभालोगे। खुरों से धरती धकेलते तुम सरपट दौड़ सकते हो, पैरों से उस पर डगमग चलते मनुष्य को तुम अपना उदाहरण प्रस्तुत करोगे।
मगर मनुष्य जितना बाहर बढ़ेगा, उसके कहीं अधिक भीतर रफ्तार पकड़ेगा। वह बुद्धि-सम्पन्न होगा और अपने से बड़ों को लाभ-हानि की तुला में तौलेगा। वह अश्व के स्वर और गति में अपनी सेनाओं का उत्साही कूच पाएगा, वह अश्वमेध के सहारे विश्वविजय का अपना सुखद स्वप्न बढ़ाएगा। वह रामायण-महाभारत-इलियड-ऑडिसी के माध्यम से अश्वों को अपनी क्रूरता का साझेदार बना लेगा : उसके इतिहास की सिकन्दरी समर-सिद्धियों में अभागे बुसेफैसलों का अपना कोई व्यक्तिगत कथ्य न होगा।
मनुष्य का सबसे बड़ा गुण सबको, सभी को मानवीय कर लेना है; वह हर यथार्थ और कल्पना को अपने हेतु अपने अनुसार मोड़ लेता है।
मगर यह बालक इस मानवीय अवगुण को जी न सका। जीता तब, जब उसे जीवन मिलता। जीवन तब मिलता, जब मुख-मार्ग में उस धूसर पर्दे की रुकावट आड़े न आती। हर दूधपान से पहले वायुपान हो पाता। उसके बाद ही भोजन की सम्पन्नता-विपन्नता उसका व्यक्तित्व और जीवनक्रम गढ़ती। लेकिन जब सांस ही न आती हो तब तो भोजन की प्रासंगिकता ही समाप्त हो जाती है। वायु अवरुद्ध, तो आयु अवरुद्ध! श्वास से पहले ग्रास की बात कौन करे!
वह बालक नहीं बचा, रोग उसे ले गया। अश्व-शावक ने उसका देहान्त देखा, उसकी बड़ी-बड़ी आंखें छलक आयीं। उसने मनुष्य की मृत्यु इतनी दयनीय नहीं सोची थी। अपने से कृशदेही होने के बाद भी साथ तो लम्बा चलना चाहिए था। दोनों साथ संसार में आये थे, दोनों को कुछ स्मृतियां तो साथ रचनी चाहिए थी। साहचर्य की कथाएं तो बनतीं, चाहे उन सब में अश्वारोहणी शोषण ही सही!
यह प्रलय-क्रम यहीं खत्म नहीं हुआ। हर बार रोग आता, अपने साथ नये-नये प्राण ले जाता। मुख के भीतर एक धूसर पर्दा पनपता, सांसें थम लेतीं। घोड़े की कहानी इस तरह नन्हें बालकों की मृत्यु की साक्षी बनती बीतती जाती। उसकी बड़ी भरी आंखें डबडबातीं, उसके किनारे डूबते और पानी अपनी सीमाएं भूलकर मनुष्य के लिए चू जाता। तो व्यथा-वेदना को अब और न सह सकने पर घोड़े ने एक दिन अपने कुल में अपना कारुणिक प्रश्न उठाया : बन्धुओं! मनुष्य का यह रोग उसके लिए प्राणघातक है। तिस पर भी मार्मिकता यह कि वह बच्चों को अपना ग्रास बनाता है। अबोध नन्हें शिशुओं के सुन्दर कोमल मुखमण्डल सामने निष्प्रभ होकर अस्त हो जाते हैं। क्या हम इनके लिए कुछ कर नहीं सकते? ''सदियों से हम मनुष्य के लिए करते ही तो आ रहे हैं, वत्स! शान्ति-युद्ध, प्रणय-समर, क्रीड़ा-पीड़ा.... न जाने कितनी कथाएं उसने हमारी पीठ पर सवार होकर गढ़ी हैं।'' एक वृद्ध अश्वपति ने प्रतिकार-स्वर में कहा।
तरुण अश्व ने असहमति दर्शाते हुए अपना अयाल झटका। इस आड़े समय में अगर अश्व ने मनुष्य को सहायता दी, तो सम्भवत: वह अपने भीतर अपने ही इतिहास का आत्मावलोकन करे। उसका पुनर्पाठ हो और नर को अपनी भूल पहचान में आए। वह पृथ्वी के सभी प्राणियों को अपने हिस्से का इतिहास गढऩे का अवसर दे और अपना हिस्सा भी बेहतर निर्मित करे। और यह सब तब होगा- तभी होगा, जब आज अश्व अपनी भूमिका से नहीं हटेगा। वह अपना आश्विक कर्तव्य जिएगा, ताकि मानव को मानविक कर्तव्य की पहचान दे सके।
अश्व ने अपनी ऊंची ग्रीवा उठायी, उसे चारों ओर तुरंगी प्रश्नवाचिका सुनायी दी। अनेकानेक पूर्वज, पितामह-मातामह सभी उसकी भावुकता का औचित्य तलाश रहे थे। कैसी अनुभूतियां जी रहे हो, कैसे इतना मनुष्य के लिए सोच रहे हो! कहीं तुम भी तो मनुष्य के साथ रहते-रहते अर्धमानवीय तो नहीं हो गये हमारी तरह! मत होना, यह भूल मत करना! अपनी मौलिक अश्व-धर्म सायास न त्यागो, दुर्भाग्य गले पड़ेगा तो यह काम मनुष्य स्वयं तुम्हारे साथ कर देगा। उच्चै:श्रवा को तुम कैसे भूल गये।
सामने से तभी उसे एक उच्च नाद सुनायी पड़ा : पाताल से उठता उच्चै:श्रवा का सुरूप उसके सामने आकार ले रहा था। श्वेत दीर्घ सुगठित काया! उच्च गम्भीर निनाद! नथुनो से ऊष्म श्वास का उच्छवास! स्थिर होने के बाद भी पूँछ की फटकार में गति का अट्टहास!
अश्व के सामने पौराणिक दृश्यों की श्रृंखला चल पड़ी: कैसे समुद्र-मन्थन से एक सितदेही दिव्य अश्व प्रकट हुआ और कैसे वह दानवों के राजा बलि के हिस्से आया। कैसे नदी के तट पर वह विश्राम-स्थिति में था कि उसकी धवल पूंछ को नागों ने आच्छादित कर दिया और दो स्त्रियों के बीच किसी शर्त का कपटपूर्ण निर्णय हो गया। वह निधि था, धन था, उसकी इच्छा को तटस्थ करके उसे बाँटा गया। फिर वह वस्तु था, दृश्य था, उसकी आकृति पर असत्य का आलेप करके स्वार्थसिद्धि की गयी थी। न पहले में उससे इच्छा पूछी गयी, न दूसरे में उससे सत्य जाना गया। अश्व ठिठक गया। उसे लगा कि बंटवारे के समय उसकी भूमिका गजराज ऐरावत के साथ सन्तुलन बिठाने में काम आयी। गज देवताओं का हुआ, इसलिए उसे दानवों का होना ही था। वह किसी तुलना पर चढऩे वाली अतिरेकी वस्तु है, जो समानता व्यक्त करने के लिए प्रयोग की जाती है। वह विशिष्ट नहीं है, विशिष्ट का परिशिष्ट है।
उसने अपनी गर्दन घुमायी और पूंछ के रंग का निरीक्षण किया। वह सामान्य दुरंगी ही थी। उसे लगा कि वह दिन भी सांपों ने कालिख उच्चै:श्रवा की पूंछ पर नहीं, उसके उत्तरार्ध के अन्तिम हिस्से पर मली थी। एक ऐसा प्रयास जो चाहता था कि उसके गतिमान स्वरुप में एकरंगता किसी तरह भंग हो जाए। एकरंगता में ईमानदारी है, तुरंगा होना ही द्विस्वभाव होना है। उस दिन भी उस शर्त में यथार्थ से आदर्श को छल से हराया था।
लेकिन फिर उसके मन में वही आदर्श शुभ्रता कचोटने लगी। कौन है जो सर्वथा श्वेत है? कौन है जिसके पास मात्र एकरंगता है? प्रकृति में यहीं यह अतिसरल आदर्शीकरण तो नहीं? कहीं हर मन्थन, हर शर्त के निर्णय पहले से हुए तो नहीं रहते, बाद में केवल औपचारिकताएं निभायी जाती हैं?
घोड़े होते रहे हैं, जीवन जीते रहे हैं। मनुष्य ने उनका वस्तुनिष्ठ उपभोग-उपभोग किया और उन्हीं में से किसी को कृतकृत्य करने के लिए उच्चै:श्रवा के रुप-रंग और ख्याति से भूषित कर दिया। एकात्म वस्तुनिष्ठता, एकरूप देह-सौन्दर्य। चुनाव मनुष्य का, गढऩ उसी की।
अश्वपुत्र ने फिर भी निर्णय लिया कि वह अपने वर्तमान को अपने सत्य-कल्पित अतीत पर नहीं गढ़ेगा। वह उसे सुनता रहा है, उसकी पृष्ठभूमि में वह आज सरपट दौडऩे के लायक हुआ है। लेकिन अतीत से सम्बद्ध होकर भी वह उसका बोझ लेकर दौड़ नहीं सकता। अपने अतीत का भार संसार के सबसे भारी मनुष्य से भी अधिक है। पूरी मानव-जाति को जीवन-भर ढो सकने के बाद भी उसमें उतना मन्थर कुण्ठा-गर्व-बोध नहीं आएगा, जितना विगत को ढोने में आएगा। सो वह राह चुनेगा, लेकिन केवल अपने पुरखों के कहने-भर से नहीं। उसका चुनाव उसका अपना प्रभाव होगा। अश्वकुमार यह जानता है कि उसका नाम ही शापित है, उसमें कोई निहित भविष्य नहीं है। वह श्वहीन होता आया है, वह इसी तरह वर्तमान जी कर मर जाएगा। वह चरेगा-दौड़ेगा-खटेगा-खींचेगा, लेकिन कुछ भी उसके जाने के बाद उसकी ख्याति बनकर यहाँ रह न जाएगा। राजाओं-नवाबों को ढोने, उनके लिए प्राण होम करने के लिए उसे स्मरण किया जाएगा, लेकिन वह स्मृति भी परोक्ष रूप से सवार की ही होगी। युद्ध में मरने वाले मानवों के पीछे उसके साथियों के नाम सूची पूरी करने का काम करेंगे; कुछ कोमल सुकवि अवश्य तनिक सहृदयता के साथ लिख जाएंगे- बह रहा चतुष्पद और द्विपद का रुधिर मिश्र को एक संग!
अश्व को पता है कि मानव-जीवन में मशीन का प्रवेश हो चुका है और बहुत तेज़ी से वह मवेशियों की शक्ति को विस्थापित करती जा रही है। मशीन के लिए हॉर्स-पावर महज़ एक तिरस्कारी जुमला है, यह जताने का प्रयास कि इतने घोड़े मिलकर मुझ-सा श्रम-फल दे पाते। यह लोहे का घनघनाहटी दम्भ है, जो हय की हिनहिनाहट को मुंह चिढ़ा रहा है। बड़े समय तक सभ्यता तुम पर चढ़ कर धरती के एक कोने से दूसरे को जाती रही, अब बहुत हुआ। तुम्हारे दिन अब लद गये, तुम पर अब मनुष्य कम ही लदेगा।
अश्वकुमार जानता है कि उसके कई परिवारजन इस मशीनी आगमन से प्रसन्न हैं। उनका यह हर्ष अकारण नहीं है, इसमें मनुष्य का बोझ उतार फेंकने का सुकून है। उसमें अश्वत्व की मुक्ति है, जो मनुष्यत्व के शोषण से अब निजात पा सकता है। किन्तु अश्वकुमार इस मुक्ति में भी अश्वकुल का उत्थान नहीं पाता। उसे नहीं लगता इस तरह मानव से कटकर उसके लोग अपने अस्तित्व को समीचीन सिद्ध कर पाएंगे। आदमी अगर अति महत्वपूर्ण नहीं है, तो अतिमहत्वहीन भी तो नहीं है। तो ऐसे में उससे एकदम विरति किस लिए! अलग-अलग साथ चलने का अर्थ आंखें फेरकर चलना तो नहीं होता! अश्वकुमार के कानों में अभी-अभी बीते क्रीमियाई युद्ध और अमेरिकी गृहयुद्ध की यादें ताज़ा हैं। वह आहें-चीत्कारें कुछ देर सुनता है और फिर कुछ देर बात असह्य होकर सिर झटक कर ध्वनिचक्र तोड़ देता है। अब वहां एक शान्त सन्देश है किसी प्रयोगशाला से - बालकों के इस प्राणान्तक रोग का कारण ढूँढ लिया गया है। एक जीवाणु है वह, जो पनपता है मुख के भीतर और उस चर्मवत का पट का निर्माण करता है। वह विषाक्तता लाता है, वायुरोध करता है। इन्हीं कारणों से न जाने कितने ही नौनिहालों ने अपने प्राण त्याग दिये हैं।
अश्वपुत्र को न जाने क्या सूझती है और वह उस प्रयोगशाला की ओर दौड़ चलता है, जहाँ कुछ वैज्ञानिक उस शिशुमार रोग से जूझ रहे हैं। वे उस जीवाणु के विष के खिलाफ प्रतिविष तैयार करने में जुटे हैं। प्रतिविष जो अगर किसी बच्चे में प्रवेश करा दिया जाए, तो उस विष से मिलकर उसे नष्ट कर दे। इस क्रम में गायें और गधे मनुष्य द्वारा आज़माये जा चुके, लेकिन अब भी अपेक्षित लाभ नहीं मिल पाया है। धेनु और धेनुक जहाँ चूक गये, वहाँ जीवन-कामना उसके माध्यम से पूरी होगी? क्या घोड़े एक बार फिर इंसान के लिए यह युद्ध लड़ेंगे? रणभूमि इस बार मानव की देह स्वयं है।
अश्व अपने आप को मानव के लिए प्रस्तुत करता है। उसकी बड़ी-बड़ी काली आंखों में मृत हो चुके बालक-मित्र का चेहरा तैरने लगता है। रोग का विष उसके शरीर में प्रवेश कराया जाता है। अश्व पर वह कोई विशेष प्रभाव नहीं डाल पाता। कुछ समय बाद उसके शरीर से रक्त का नमुना एकत्रित किया जाता है। उसमें आवश्यकता के अनुरुप प्रतिविष का निर्माण हो चुका है। आने वाले समय में अश्व की नियति मनुष्य के लिए जीवित प्रयोगशाला हो रहना है। आने वाले समय में बाहरी युद्ध आवश्यक मशीनें करेंगी, लेकिन भीतरी युद्धों के लिए वह मनुष्य के साथ अब भी रत रहेगा। उसकी देह में उपजा यह प्रतिविषि न जाने कितने ही शिशुओं की जानें बचाएगा। कितने ही प्राणवायु के अभाव में नहीं मरेंगे, कितने ही अब अन्य भावों-अभावों को भोग कर बेहतर कारणों से, बाद में अपने प्राण छोड़ेंगे।
अश्व रक्तस्राव करता रहेगा, प्रतिविष प्रदाय करता रहेगा। इसी तरह करते-करते एक दिन उसकी वे बड़ी निश्छल काली-पनीली आंखें मुंद जाएंगी। फिर कोई बालक इस रोग को जीतकर बड़ा होगा। दूध के लिए भूख से विकल होगा।
अश्व कहीं मुस्कुरा रहा होगा, जब वह सुनेगा कि उसका यह बालक-मित्र जन्म के समय अश्व की तरह हिनहिनाया था। उसे सुखातिरेक की प्राप्ति होगी जब वह जानेगा कि उनका बाल-सखा अब अमर हो गया है।
वह मानवों में अश्वत्थामा नाम की स्वीकृति को अपना भविष्य मानेगा। वह रोग के नाश में छिपी अमरता की लक्षणा को अपनी अक्षुण्ण ख्याति समझेगा।
वह इसी सुख में मारा जाएगा....
(बीसवीं सदी से पहले डिफ्थीरिया के कारण ढेरों नन्हें बच्चे अपनी जान से हाथ धो बैठते थे। जीवाणु-विज्ञान और प्रतिरक्षा-विज्ञान की समझ के अभाव में यह रोग एक महामारी था, जिसका कोई कारगर उपचार मनुष्यों के पास नहीं था। लेकिन उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध तक स्थिति बदलने लगी। पहले डिफ्थीरिया का कारण पता चला, जो एक जीवाणु था। फिर उससे निकलने वाले विष का ज्ञान हुआ। इसके बाद तमाम जानवरों में डिफ्थीरियाई विष (टॉक्सिन) को प्रविष्ट कराकर उसका प्रतिविष (एंटीटॉक्सिन) तैयार करने की कोशिश की गयी और अन्तत: अपेक्षित सफलता घोड़ों में मिली।
घोड़ों में तैयार इस एंटीटॉक्सिन नामक अस्त्र से डिफ्थीरिया को मनुष्य ने पराजित किया। इस कार्य में महत्वपूर्ण शोध जर्मन वैज्ञानिक एमिल वॉन बेहरिंग ने किया, जिसके लिए उन्हें चिकित्सा-विज्ञान के पहले नोबेल पुरस्कार से सन् 1901 में सम्मानित किया गया।)

(जारी)

















संपर्क- मो. 09648696457, लखनऊ


Login