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नवम्बर 2016

जेल जीवन पर आधारित कविताएं

तिलक पटेल

कविता



जेल कहते ही, एक ऐसी जगह की अवास्तविक सी कल्पना होती है, जो साधारण जीवन बिताने वाले जेल के बाहर के लोगों के सामने थोड़ी डरावनी, थोड़ी अप्रिय और घुटनभरी जिन्दगी की तस्वीर सामने लाती है। पर जेल के अन्दर के जीवन को करीब से देखते हुए वयस्क कवि तिलक पटेल ने , जो कविताएं लिखी है, उनमें विन्यस्त सर्जनात्मक अनुभव जेल के जीवन तक सीमित नहीं है। बेशक जेल के जीवन पर वे आधारित जरूर हैं, पर शब्दों में मूर्त होते इस जीवन के ये संवेदनात्मक चित्र हर तरह के पाठक के साथ सहज संवाद कर सकने में सक्षम हैं। ये निरे विवरण के अखबारी यथार्थबोध से सिरजे गये चित्र नहीं हैं। इनमें केवल जेल के रहवासियों के विभिन्न रूपों का सतही चित्रण नहीं है। सच तो यह है, कि जेल के मनुष्यों के जीवन को ही नहीं, बल्कि जेल के परिवेश की अन्य जीवन्त उपस्थितियों को, कवि ने मर्म की भाषा में रचने की कोशिश की है। इनमें गलदश्रु भावुकता या बौद्धिक व्यायाम जैसे विन्यास नहीं, बल्कि संयमित, भावसिक्त और विवेकपोषित बखान सी, सहज भाव से  पाठक के मर्म को छूने वाली, संवेदनात्मक कल्पनाशीलता है।
महिला बन्दी अथवा बच्चों के साथ कैद महिला जैसी एकाधिक कविताओं के पाठ से, अगर हम यह महसूस करते हैं कि स्त्री के होने को, दुख को, उसके मातृत्व को और अपने बच्चों के प्रति उसके ऊष्म लगाव को, कवि कितनी संवेदनशीलता के साथ हमारी सामने लाते हैं तो, ''आदतन बन्दी'' ''किशोर बन्दी'' जैसी कविताओं में हम यह भी देख पाते हैं, कि कैसे मानव स्वभाव में ही एक अन्तर्निहित और अटल नियति जैसी स्थिति मौजूद रहती है, जिसे लोग चाहकर भी नहीं टाल पाते। इसी तरह जेल के परिवेश में 'पेड़' 'कबूतर' 'चींटी' और 'पतंग' जैसे विषयों को भी कवि कुछ इस रूप में सामने लाते हैं, वे जेल में अपने होने के वैशिष्ट्य को एक सहज मानवीय अर्थ से भर देते हैं।
वास्तव में कविता का विषय चाहे कुछ भी हो, तिलक पटेल ने, जेल के जीवन को एक मानवीय दृष्टि से देखने की कोशिश की है। बिना कोई शोर किये, वे जेल के इस बन्दी जीवन के दुख से दुखी हुये हैं और बिना किसी जाहिर प्रदर्शनात्मक के, उन्होंने इस जीवन को एक आत्मीय कलात्मकता के विन्यास में लगभग अनलंकृत ढंग से दर्ज किया है।
यह कविता, वास्तव में आलोचना की नहीं, अनुच्चरित करुणा की ही कविता है।
प्रभात त्रिपाठी,
रायगढ़


आकस्मिक बंदी

बहती नदी रुककर एकाएक
नहीं रह जाती नदी जहाँ
वही होता है उनका प्रस्थान-बिंदु
कि जहाँ-जहाँ पड़ते हैं उनके पांव
सूख-सूख जाता है वहाँ का जल

दूध का दूध पानी का पानी करने
जब लाया जाता है जेल में
उन्हें लगता है काटकर फेक ही दें
अपने पाँवों को समूल
लेकिन कर नहीं पाते ऐसा
और विवशता उनकी
बनती चली जाती है
चरित्र का कृष्ण-पक्ष,

जीते हुए एक तरह चरित्र एक
शापग्रस्त चरित-नायक का
नहीं होते उनके पाँव
नहीं होते उनके हाथ
मुँह भी नहीं होता
गला भी नहीं
नहीं होता उनका वजूद ही जैसे
ऐसे में करने अपने को शापमुक्त
उनके किये टोटके भी तमाम
हो जाते हैं निष्फल जब
अपने उस दुष्कर्म के
स्मरण की बारम्बारता में
पछताते हैं बहुत और रोते हैं
अन्दर की गहराई में धार-धार
बावजूद इसके बनते-बनते
नहीं बन पाते उदाहरण
बचाने के लिए किसी और को
शापग्रस्त होने से
या बचने के लिए खुद के
अगली और उससे भी अगली बार

 

आदतन बंदी

वे किसी के वारिस थे नहीं थे लावारिस
जैसा कि रखा गया था उन्हें
वे आवारा नहीं थे
नहीं था उनका नाता दूर-दूर तक आवारगी से
लेकिन सीख रहे थे रहते-रहते जेल में
इसका क ख ग,

उनकी जो दुनिया थी फैली हुई विस्तृत
उसमें नहीं था कोई काम-धाम उनके लिए
तो अपने समय के कोने में निरन्तर
सीमा में अपनी समझ की
करते थे कोशिश
समय के साथ चलने की और
असमय की राह के हो गये थे राहगीर,
पसीने की तरह बह जाने के पहले
वे अपनी क्षमता का
कर लेना चाहते थे उपयोग भरपूर
और एक सच्चरित्र की भूमिका की चाह में
हो गये थे शामिल किसी खल-पात्र की
जूठन उठाने वालों की लंबी कतार में
अब पिटे हुए मोहरे थे वे
और हाशिए पर पड़े थे चुपचाप,

वे बछरू थे गऊ के गऊ की तरह सीधे
फिर उनके निकल आये छोटे-छोटे सींग
तो उन्हें डाल दिया गया इस बाड़े में
नीलामी ही जहाँ द्वार है मुक्ति का
जिसकी होगी ऊंची बोली
वे चल देंगे पीछे-पीछे उसके
मुक्त होकर इस बाड़े से प्रफुल्लित
तब उन्हें नहीं होगा पता
कि एक दूसरे बाड़े में
खाली रखी गई है
उनके लिए जगह पहले से
और समय की घड़ी
ऐसे ही बताती गलत समय उनको
कर लेती शामिल अपनी शून्यता में एक दिन
उन्हें सचमुच के लावारिस बनाकर
बनाकर सचमुच के आवारा

किशोर बंदी

सुबह-सबेरे के दूध की तरह
वे पहुँच जाते हैं सबसे पहले
शहर को कोनों-अतरों में
गुमठी वालों की चाय या होटलों के पेड़े
और रबड़ी की चिकनाई में
दर्ज कराने अपनी उपस्थिति
बहुतेरे घरों में तो
होती ही है उनकी घुसपैठ रोजाना

अब बिना ब्रेक के चक्के
होते जाते हैं उनके पाँव
कि जहाँ रुकना चाहिए वहाँ भी
नहीं उठाते इन्तजार की जहमत
बस चलते चल जाते हैं यूं ही फर्राटे से
और छोटी पड़ती जाती है
इतनी बड़ी जमीन,

कुछ मौज कुछ मस्ती से करते अठखेलियाँ
वे बढ़ते हुए
बढ़ जाते हैं इतना आगे
कि लौटना वहीं से लुटना होगा
उनकी सतरंगी दुनिया का
कोई न कोई रंग
तैयार नहीं जिसके लिए वे
धीरे-धीरे बित्ते भर की उम्र में
गजभर की कारस्तानियां उनकी
डरते-डरते सुनता है शहर
और बची रह जाती है प्रतिध्वनियों में
जीवित उनकी निडरता
गलियों और मोहल्लों में जहाँ-तहाँ
किशोर कक्ष में यहाँ जेल के

महिला बंदी

अपयश का ऊँचा पहाड़ चढ़ती हुई
वे पहुँची है उनकी चोटी पर
खोजती हुई झरना या जल कुंड कोई
नहीं मिला
तो मान लेती हैं अपने को ही
और पीती रहती हैं वहीं कलुषित जल,

वे सुहागन हैं या देखा भर है सपना उसका
परित्यक्ता हैं या उजड़ चुका है सुहाग ही
जो भी हैं वे एक माँ है एक बेटी
एक बहन एक भावज या ननद
दादी किसी की या परदादी
हैं एक औरत उससे भी पहले
और उन्हीं पर आरोप है
कि छल किया है उन्होंने अपने औरतपन से
जबकि थामे हुए उसी की डोर
आई हैं वे जेल में

सिवाय उस अपकीर्ति के अपने पीछे वे
नहीं आई है कुछ भी छोड़कर
यहाँ तक कि जिस रास्ते आई हैं चलकर
उनमें नहीं हैं उनके कदमों के निशान भी

जेल में गिनी जा सकती हैं वे उंगलियों में
अपनी विरलता में ढूँढ़ती हुई सघनता
पिघलती हुई बर्फ की तरह
वे पानी ही हैं अन्तत:
चुल्लू में गिलास में घड़े में
तालाब नदी सागर में
पानी पानी पानी

महिला बंदियों के साथ परिरूद्ध बच्चे

उन्हें नहीं पता कि वे अपने घर में नहीं
घर से भी बड़े घर जेल में हैं इन दिनों
जहाँ घर से भी ज्यादा माताएं हैं
ज्यादा चाचियाँ और दीदियाँ
वे यहाँ खुश हैं ज्यादा
खुश अपने दूध के दाँत नहीं टूटे होने से,

माताएं उनकी देख लेती हैं,
उनके दूध के दाँतों को टूटते हुए धीरे-धीरे
और टूट जाती हैं
जुडऩे से डरती हुई उनसे
जिनकी अपराधहीन दुनिया में
नहीं है कोई जगह
किसी अपराध के लिए

घर से बड़े इस घर में
बच्चे नहीं जानते कि क्यों नहीं हैं उनके पास
पिता और भैया या कि चाचा और ताऊ
नहीं जानते वे अपनी माँ से यह पूछना भी
इतने हैं अबोध ओर कच्चे
कि कचायंध भी डरती है जाने से दूर उनसे
जैसे डरती है उनकी माँ
छूती हुई उन्हें हर बार।


तिलक पटेल आजीवन बस्तर का हिस्सा हैं। उन्होंने मूलत: कवि होते हुए भी लंबा जीवन जेलों में नौकरी करते हुए बिताया। नौकरी के आरंभिक वर्षों में जेल जीवन पर लिखते हुए उन्होंने लिखा था - ''यह जेल है/एक पूरा गाँव/एक पूरा शहर/एक पूरा देश।'' यहाँ प्रकाशित कविताओं को लिखते समय वे सुप्रसिद्ध दंतेवाड़ा जेल के अधीक्षक थे। उन्होंने आदिवासी कविता के झरने को सूखने से बचाया है। वे बेहद मौन चुपचाप रहने वाले व्यक्ति हैं। पर द्वंद्वात्मक धारा भीतर बहती रहती है। तीन दशक पहले हमने तिलक पटेल की कविताएं छापी थीं, तब वे युवकोचित थे। हमें खुशी है कि अब हम उन्हें पुन: छाप रहे हैं और वे काफी परिपक्व हुए हैं। हमने उनसे सेवानिवृत्त होकर जेल डायरी तैयार करने का आग्रह भी किया है।


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