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अक्टूबर 2015

छुरे का मुक़ाबला कलम से

रफ़ीदा अहमद बोन्या / अनुवाद: शालिनी जोशी

व्याख्यान



इसी अंक में अगली प्रकाशित रचना पाठकों को ये बताएगी कि भारत में भी बांग्लादेश जैसे हालात पैदा हो रहे हैं। संविधान पर आक्रमण हो रहे हैं। और गांधी से लेकर नरेन्द्र दाभोलकर, गोविन्द पानसारे और अब कलबुर्गी की हत्याओं के बाद हत्यारी सच्चाईयां प्रकट हो रही हैं। यह अलग बात है कि भारत में जनतांत्रिक शक्तियां भी प्रतिरोध के लिए उठ रही है।





बांग्लादेशी मूल की मानवाधिकार एक्टिविस्ट और ब्लॉगर रफ़ीदा अहमद बोन्या ने दो जुलाई 2015 को लंदन में ब्रिटिश ह्यूमैनिस्ट एसोसियेशन की प्रतिष्ठित वॉल्तेयर व्याख्यान-माला के तहत ये भाषण दिया था। विचार और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के पक्षधर बुद्धिजीवियों और मानवाधिकार कार्यकर्ताओं से खचाखच भरे सभागार में रफ़ीदा बोन्या ने बांग्लादेश के जन्म के हालात और उसकी वर्तमान राजनैतिक-आर्थिकी में इस्लामिक कट्टरपंथियों के बढ़ते आतंक और पश्चिम के उपनिवेशवाद पर सवाल उठाए।
बोन्या और उनके पति अविजित पर 2015 की फरवरी में हमला हुआ था। इस हमले में अविजित मारे गये थे और र फ़ीदा बुरी तरह जख्मी हो गई थीं। इसी तरह के हमलों में वशीकुर रहमान और अनंता बिजोय दास मारे जा चुके हैं।
वॉल्तेयर लेक्चर फंड की स्थापना वॉल्तेयर के जीवनीकार थियोडोर बेस्टरमेन ने की थी। इन लेक्चर्स में वैज्ञानिक और दार्शनिक विचार और मानववाद और ऐसी गतिविधि से जुड़े विषयों पर भाषण दिये जाते हैं। ब्रिटिश ह्यूमैनिस्ट एसोसियेशन अब इसकी फंडिंग देखता है। पूर्व में हुए वॉल्तेयर लेक्चर्स में प्रो. डेविडकिंग, प्रो. ऐंथनी ग्रेयलिंग, प्रो.स्टीवन पिंकर और प्रो.ब्रियन कोक्स जैसे चिंतकों का भाषण हो चुका है। द ब्रिटिश ह्यूमैनिस्ट एसोसियेशन एक राष्ट्रीय चैरिटी संस्थान है जो गैर-धार्मिक लोगों के हित में काम करता है। ऐसे लोग जो तार्किकता, धर्मनिरपेक्षता और मानवता के आधार पर नैतिक और भरपूर जीवन जीना चाहते हैं। मूल अंग्रेज़ी से अनूदित प्रस्तुत व्याख्यान अंश साउथ एशिया सिटीज़न वायर से साभार लिया गया है।
रफ़ीदा अहमद बोन्या का वॉल्तेयर व्याख्यान: जुलाई 2015

मेरे दिवंगत पति डॉ अविजित रॉय और मैं, बांग्लादेशी- अमरीकी नागरिक और मानवतावादी थे और हम बांग्लादेश में ताजा इस्लामी आतंकवाद के शिकार हुए हैं। अविजित और मैं अपनी मातृभूमि बांग्लादेश गये थे। हम वहां 16 फरवरी को वार्षिक पुस्तक मेले में शामिल होने गये थे। ये एक राष्ट्रीयस्तर पर प्रसिद्ध मेला है और फरवरी के पूरे महीने चलता है जिसमें हजारों लोग हिस्सा लेते हैं।
26 फरवरी को जब हम रोशनी से नहाए पुस्तक मेले से वापस अपनी कार की तरफ़ आ रहे थे, अविजित और मुझ पर इस्लामी कट्टरपंथियों ने जघन्य हमला किया। सड़क के किनारे हमें लगातार छुरे भोंके गये। ये पूरा इलाका पुलिस अधिकारियों, वीडियो कैमरा और हजारों हजार लोगों से घिरा हुआ था। कोई हमें बचाने नहीं आया, पुलिस देखती रही। मैं उस युवा पत्रकार का शुक्रिया अदा करती हूं जिसने तत्परता दिखाई और हमें अस्पताल ले गया। लेकिन अविजित को मारा जा चुका था और मुझे शरीर में चार जगह पर जख्मी कर दिया गया था, मेरे सिर पर वार किए गए थे और मेरा अंगूठा कट चुका था। मेरे दोनों हाथों, अंगुलियों और शरीर पर गहरे जख्म थे। मेरी नसों को दुरुस्त करने के लिए मुझे कई ऑप्रेशनों से गुजरना पड़ा। चार महीने हो चुके हैं, अब भी मेरा इलाज चल रहा है और मैं दवाएं खा रही हूं।
अविजित शायद इस तरह के हमले का शिकार होने वाली सबसे प्रमुख शख्सियत रहे होंगे लेकिन मुझे पता है कि न तो वो पहले थे और न ही इस तरह की जघन्यता के शिकार होने वाले आखिरी व्यक्ति हैं। फरवरी के अंत में हुई उनकी हत्या के बाद, रूढि़वादियों ने सफलता से दो और ऐसे मानवतावादी ब्लॉगरों को इन्हीं हालात में मार डाला है। खुली सड़क में तीन और चार नकाबधारियों ने जघन्य हमले किये। 30 मार्च को ब्लॉगर वशीकुर रहमान बाबू की हत्या हुई। वहां खड़े दो प्रत्यक्षदर्शियों ने दो हमलावरों को गिरफ्तार कर लिया- इसके लिये पुलिस को धन्यवाद की कोई जरूरत नहीं। गिरफ्तार लोगों का कहना है कि उन्होंने वशीकुर रहमान का ब्लॉग कभी नहीं पढ़ा था और उनके मदरसे में किसी के आदेश की वजह से उन्होंने ये काम किया। मैं इस बारे में बाद में विस्तार से बात करूंगी। 12 मई को इसी तरह से अनंता बिजोयदास की भी हत्या कर दी गई। अविजित की तरह ही अनंता भी विज्ञान और दर्शन पर लिखते थे और 'रीजन' नाम के एक जर्नल का संपादन करते थे। वो हमारे घनिष्ठ थे. वो मुझे बहन बुलाते थे और हमारे साथ लंबे समय तक क ाम किया था। मेरे ख़्याल से इन लोगों ने आठ धर्मनिरपेक्ष आंदोलनकारियों, ब्लॉगरों और लेखकों का इस तरह से कत्ल किया। इनमें 2014 में प्रोफेसर श फ़ी उल इस्लाम, 2013 में अहमद रजीब हैदर, 2013 में असीफ़ मुइउद्दीन पर जान लेवा हमला किया गया और 2003 में प्रोफेसर हुमायुं आजाद को इसी तरह से मारा गया।
मैं सोचती हूं कि शुरुआत करने के पहले मैं दो डिस्क्लेमर जरूर रख दूं। पहला तो ये कि अंग्रेज़ी मेरी दूसरी भाषा है हालांकि मैं अब से कुछ देर पहले से अंग्रेजी में ही बोल रही हूं। मेरे अंग्रेज़ी में बांग्लादेशी उच्चारण घुला मिला है। दूसरा डिस्क्लेमर ये है कि मैं बहुत सुनिश्चित नहीं हूं कि शब्द क्या हैं। मैं बहुत बिखरी हुई हूं, मेरा जीवन बिखरा हुआ है, मेरे विचार भी अभी तक बिखरे हुए हैं। अभी अविजित की मौत को सिर्फ चार महीने ही गुजरे हैं। वो मेरा दोस्त था, हर सही-गलत में, दुख में, खुशी में, अंतहीन टकरावों और मोहब्बत में मेरा अभिन्न साझीदार था। इसलिये मुझे पहले इस बारे में बात करने दीजिए।
अविजित, जिसे मैं अवि बुलाती थी, उसने पहला ऑनलाइन विचार प्लेटफॉर्म बनाया था जिसका नाम था 'मुक्तोमोन' (इसका मतलब है मुक्त विचार।) 2001 में वो नेशनल यूनिवर्सिटी ऑफ सिंगापुर में पीएचडी का छात्र था और बायोमेडिकल इंजीनियरिंग की पढ़ाई कर रहा था। मुक्तोमोन सिर्फ एक ब्लॉग नही है, ये एक प्लेटफॉर्म है और एक समुदाय है दूसरे मॉडरेटर, ब्लॉगर और लेखकों के साथ। मुक्तोमोन बांग्लाभाषी लोगों के लिये एक धर्मनिरपेक्ष आंदोलन बन गया। मेरे लिये ये एक से ज्यादा अर्थ में बहुत ही विशेष था। मैं 2002 में पहली बार मुक्तोमोन के जरिए ही अवि से मिली थी। हमने कई सारे प्रोजेक्ट और लेखन में गठबंधन किया। हम मानवतावाद के सिद्धांत पर एक थे। हमारे बीच कई बार अपने-अपने विश्वासों और वैचारिक पक्षों की वजह से तीखी नोक झोंक हो जाती थी। खासतौर पर मानवतावाद के सामाजिक-आर्थिक और राजनीतिक पहलुओं पर अपने लेखन को लेकर हमारे वैचारिक मतभेद इतने तीखे होते थे कि हमारी बेटी को कई बार ऐसा लगता था कि हम हमेशा झगड़ते ही रहते हैं।
अवि नास्तिक था, वो एक ब्लॉगर, एक लेखक और इन सबसे ऊपर एक धर्मनिरपेक्ष मानवतावादी था जो जीवन के बड़े प्रश्नों के उत्तर ढूंढऩे की कोशिश करता था। अविजित विज्ञान के बारे में लिखता था जो उसका प्रिय विषय था। अपनी आखिरी किताब में उसने लिखा था कि किस तरह से ब्रह्मांड का जन्म किसी भी चीज से नहीं हुआ है। उसने जीवन की उत्पत्ति, समलैंगिकता के पीछे के विज्ञान, उद्भवी मनोविज्ञान के नज़रिये से प्रेम के बारे में लिखा। उसने एक साहित्यक आलेख भी लिखा था जिसमें बांग्ला कवि रवींद्रनाथ टैगोर और अर्जेंटीना की नारीवादी लेखिका विक्टोरिया ओकांपो के आपसी संबंधों का जिक्र था। लेकिन उसकी दो किताबों-'अविश्वास का दर्शन' और 'विश्वास का वायरस' ने बड़े पैमाने पर पाठकों का ध्यान खींचा। एक ओर वो युवा वयस्कों और प्रगतिशील पाठकों के बीच अत्यधिक लोकप्रिय हुआ लेकिन दूसरी ओर इन किताबों और उसकी अन्य रचनाओं ने उसके खिलाफ धार्मिक कट्टरवादियों के मन में गहरा क्रोध और नफरत भर दी।
हमने बांग्ला में इसलिये लिखा क्योंकि हम चाहते थे कि इस भाषा में विज्ञान और दर्शन और कला को लेकर मौलिक और नई अवधारणाओं का प्रसार हो। अवि ने अनगिनत लेख और ब्लॉग लिखे। लेखन उसका जुनून था, उसकी जिंदगी। ईमानदारी से कहूं तो वो खुद को, बातों से नहीं बल्कि लेखन के जरिये ही बेहतर ढंग से अभिव्यक्त कर पाता था। उसने सिर्फ विज्ञान और नास्तिकता के बारे में ही नहीं लिखा बल्कि सभी प्रकार के पूर्वाग्रहों, अन्याय, अवैज्ञानिकता और अतार्किक विश्वासों के बारे में वो अपनी कलम चलाता रहा। उसने समाज में अन्याय और असहिष्णुता के खिलाफ लिखा, ये उसके लेखों के विषयों को देखकर अंदाजा लगाया जा सकता है. महिला अधिकारों (ग्रीक महिला दार्शनिक, खगोलशास्त्री और गणितज्ञ हाइपैटिया जिनकी जघन्य तरीके से हत्याकर दी गई थी) से लेकर राष्ट्रवाद, बांग्लादेश के मुक्ति संग्राम में इस्लामी कट्टरवादियों के खिलाफ, इराक युद्ध के खिलाफ, अबूगरेब जेल में अत्याचारों के खिलाफ, गुजरात के नरसंहार के खिलाफ, फिलीस्तीन मुद्दे पर, यहां तक बांग्लादेश सरकार के राष्ट्रवादी विचार और दक्षिण-पूर्वी बांग्लादेश में अल्पसंख्यक जातीय समूहों के खिलाफ सरकार की सैनिक कार्रवाई पर भी उसने लेख लिखे। उसने इस साल के शुरू में अमरीका में चैपेल हिल शूटिंग पर फायरिंग के बारे में भी लिखा, जिसमें एक अपार्टमेंट में तीन छात्रों को एक व्यक्ति ने मार डाला था जिसने अपने फेस बुक पर आस्तिकता के बारे में लिखा था।
अवि ने लिखा:-
''नास्तिकता की एक विशेषता है कि उसमें अलौकिक देवी और देवताओं के प्रति विश्वास की अनुपस्थिति रहती है। मेरे लिये ये एक तार्किक अवधारणा है जिससे किसी भी अवैज्ञानिक और अतार्किक विश्वास का विरोध किया जा सकता है। लेकिन सिर्फ एक नास्तिक बनने से ही आपके सभी पूर्वाग्रह या नफ़रतें खत्म नहीं हो जाएंगी, जब तक कि आपका मानवता से निजी लगाव न हो। इससे फर्क नहीं पड़ता कि आप धार्मिक हैं या नहीं, असहिष्णुता सभी जगह है। इतिहास बताता है कि वास्तव में अनेक गैर-धार्मिक, हृदयहीन अधिनायकवादी शासक रहे हैं जिन्होंने बड़े पैमाने पर अपने ही देशवासियों को मारा है। क्रेग स्टीफन हिक्स नाम के एक शख्स को हम जानते हैं जिसके मन में मुसलमानों के प्रति घृणा है। ऐसे अपराधियों के लिये कोई सहानुभूति या क्षमा नहीं होनी चाहिए। एनसी चैपेल हिल कांड अमानवीय है और जिसमें जरा भी सरोकार और सजगता है, उसे इसका विरोध करना ही चाहिए।''
अगर फ्रीडरिश नीत्शे यहां होते तो शायद ये कहते कि अविजित ने विज्ञान को कला की नजर से देखा और कला को जीवन के परिप्रेक्ष्य से। तात्पर्य ये है कि विज्ञान उसके लिये एक जुनून की तरह था और एक ऐसी विधा जिसके जरिये वो कुछ जिज्ञासा प्रकट करता है, जानना चाहता है, कला उसके लिये जीवन से परे कोई भावुक चीज़ न होकर,जीवन को बदल सकने वाली एक सामथ्र्य है। अपने एक आलेख में उसने लिखा था:
''जो लोग ये समझते हैं कि खूनखराबे के बिना ही जीत हासिल हो जाएगी तो ये उनका ख्याली पुलाव है। जिस पल हम धार्मिक उन्माद और कट्टरता के ख़िलाफ़ कलम उठा लेते हैं उसी पल से हमारी जान पर ख़तरा मंडराना शुरू हो जाता है।''
ये बात हमें एक बड़े परिप्रेक्ष्य में और इतिहास की गहराइयों में ले जाती है। हम किसी एक बिंदु पर कैसे पहुंचते हैं, खास तौर पर बांग्लादेश जैसे देश में, जिसे धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र समझा जाता है,जहां मानवतावादी और धर्मनिरपेक्षवादियों को देखते ही सरेआम सड़कों पर मौत के घाट उतार दिया जाता है।
बंगाल भारतीय उपमहाद्वीप का हिस्सा था और 200 वर्षों तक ब्रिटिश साम्राज्य के अधीन रहा था। 1947 में इस उपनिवेश को दो स्वतंत्र देशों में बांट दिया गया: भारत और पाकिस्तान। जल्दबाजी में बनाई गई ये सीमा एक तरह से इस्लाम और हिंदूधर्म के बीच विभाजक रेखा बन गई। और वास्तव में इस विभाजन ने अपने पीछे हजारों मौत और लाखों विस्थापितों का सिलसिला छोड़ा, मानव इतिहास में ये अब तक का सबसे बड़ा विस्थापन था।
लेकिन भारत-पाक विभाजन ही एकमात्र विभाजन नहीं था। पाकिस्तान का पूर्व बंगाल वाला हिस्सा उसके पश्चिमी और मुख्य हिस्से से बहुत दूर और अलग था। इसे अलग करता था भारत का विशाल भूभाग। साथ ही विभिन्न संस्कृतियां और अलग पहचानें भी थीं। बंगाल में इस्लाम के आगमन के साथ ही बंगाली और मुस्लिम अस्मिताओं के मेलजोल से एक नई संस्कृति पनपी थी। हालांकि बंगाली सांस्कृतिक पहचान बहुत ज्यादा गहरे पैठी थी और पाकिस्तानी हुकूमत के राजनीतिक-आर्थिक भेदभाव और दमन से इसका फिर से सतह पर आ जाना लाज़िमी था। इस तरह से 1952 में बंगाली भाषा आंदोलन के साथ ही स्वतंत्रता की मांग भी बढ़ी। जब पाकिस्तानी सरकार ने बंगाली को पाकिस्तान की सरकारी और दफ़्तरों की भाषा से निकाल दिया तो युवा बंगालियों ने इसका विरोध करने के लिये अपनी जान की बाजी लगा दी। 21 फरवरी 1952 को कई छात्र बंगाली को आधिकारिक भाषा का दर्जा दिलाने के अपने अधिकार की मांग के लिये सड़कों पर मारे गये। आज उनकी याद को सम्मान देने के लिये, हम भाषा शहादत दिवस मनाते हैं, उसी ढाका पुस्तक मेले में जहां अविजित को मार डाला गया था। यूं इस दिन को पूरे विश्व में अंतरराष्ट्रीय मातृभाषा दिवस के रूप में भी मनाया जाता है।
अंतत: 1971 में नौ महीनों के कठिन मुक्ति संग्राम के बाद, जिसमें लाखों लोग मारे गये थे, पूर्वी पाकिस्तान का बांग्लादेश के रूप में एक स्वतंत्रराष्ट्र राज्य के तौर पर जन्म हुआ।
बांग्ला देश के नये संविधान में धर्मनिरपेक्षता, राष्ट्रवाद, लोकतंत्र और समाजवाद के बुनियादी सिद्धांत हैं। लेकिन वास्तव में इनमें से किसी का भी संपूर्ण तरीके से पालन नहीं किया गया। इस देश ने 1975 में सैनिक तख्तापलट के रूप में मुस्लिम पहचान के उभार को देखा। धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांतों का स्थान ''सर्वशक्तिमान अल्लाह में पूर्णत:  विश्वास और आस्था'' ने ले लिया था और 'लोकतंत्र' की जगह निरंकुश सैनिक हुकूमत ने ले ली थी। जब हम अस्सी के दशक के मध्य और उत्तरार्ध में किशोरावस्था में थे, ऐसा प्रतीत होता था कि बंगाली मुसलमान आज की तुलना में काफी उदार थे। लेकिन राजनैतिक और सामाजिक लैंडस्केप धीरे-धीरे बदल गया, धार्मिक कट्टरतापन ने बांग्लादेश में सिर उठा लिया।
इस खेल में एक बड़ी भूमिका थी अंतर्राष्ट्रीय इस्लामिस्ट पार्टी जमात-ए-इस्लामी की, न सिर्फ उसका राजनीतिक प्रभाव बढ़ रहा था-बल्कि पश्चिम एशिया (मध्यपूर्व) से आने वाले पैसे से उसका वित्तीय और कारोबारी साम्राज्य बढ़ता जा रहा था। उनका राजनीति में भी दखल था, समाज के सबसे धार्मिक रूढि़वादी हिस्सों में भी और उन्होंने ये वित्तीय और जनसांख्यिक ताकत सरकार को प्रभावित करने के लिये हासिल की थी। और हमारी सभी सरकारों ने, चाहे वे धर्मनिरपेक्ष हों या गैर-धर्मनिरपेक्ष उन्होंने उनकी मांगों के सामने, इस रास्ते या उस रास्ते घुटने टेके।
बांग्लादेश में अवामीलीग सत्ताधारी राजनैतिक दल है। उसे देश में सबसे बड़ा धर्म निरपेक्ष राजनैतिक दल माना जाता है। फिर भी राजनैतिक तेजी के नाम पर उसने हमेशा ही धार्मिक कट्टरता के समक्ष घुटने टेके हैं। उनकी वाजिब और गैर वाजिब मांगों को स्वीकार करते रहे हैं जिसके बारे में सिर्फ यही कहा जा सकता है कि वो वोट हासिल करने के लिये एक तरह की रिश्वतखोरी है। पिछली बार उन्हें जनादेश इस बात पर मिला कि सत्ता में आने के बाद वो समकालीन इस्लामिस्ट पार्टियों की उन वरिष्ठ राजनैतिक शख्सियतों की पहचान करेंगे और उन्हें उन अपराधों के लिये जवाबदेह बनाया जाएगा जो उन्होंने बांग्लादेश के मुक्तिसंग्राम मे किए थे।
2010 में युद्ध अपराध के मुकदमे शुरू हो गये। 2012 और 2013 के शुरू में पूरे हुए- इस्लामी चरमपंथियों पर अतिरिक्त दबाव था। इस्लामिस्ट पार्टी का वोटर आधार गिर रहा था और वरिष्ठ इस्लामिस्ट उन युद्ध अपराधों के दोषी पाए गये थे। इस्लामी कट्टरपंथियों ने अपना ध्यान नास्तिक और धर्मनिरपेक्ष लोगों की तरफ मोड़ दिया। अगर इस्लामिक नेताओं को युद्ध अपराधों के लिये मौत की सजा सुनाई जाएगी-जो कि बांग्लादेश में युद्ध अपराध के लिये प्रावधान है ही-तो धर्मनिरपेक्ष और नास्तिक लोग जो न्याय का आह्वान करते हैं उन्हे इसी तरह की नियति का सामना करना पड़ेगा।
कट्टरपंथियों ने पिछले कुछ सालों में एक बड़ी हिटलिस्ट जारी की है, इनमें बुद्धिजीवी हैं, लेखक हैं, ब्लॉगर हैं जिन्हें वो मृत देखना चाहते हैं और उस लिस्ट को ऑनलाइन जारी करना चाहते हैं। 2013 में 84 ब्लॉगरों की सूची के साथ वो सामने आए, इन्हें मुख्यधारा के राजनैतिक दलों का समर्थन प्राप्त था। उन्होंने इस सूची को सरकार को सौंप दिया ये कहकर कि वे इन्हें गिरफ्तार या मृत देखना चाहते हैं क्योंकि उन्होंने धर्म का अपमान किया है। उन्होंने ईश निंदा के एक नये कानून की सिफारिश की जिसका दंड मृत्यु ही होना चाहिये और वो चाहते थे कि ये कानून (न्याय के अंतर्राष्ट्रीय मानकों के खिलाफ) उन सभी ब्लॉगरों के खिलाफ लागू हो जिन्होंने इस्लाम का अपमान किया है। यहां हमें बार-बार याद दिलाया जाता है मध्यकालीन धर्मशास्त्री अल गजाली का जिन्होंने सभी अच्छे मुसलमानों को उन मुस्लिम दार्शनिकों को मार डालने का आदेश दिया जिनके पराभौतिक सिद्धांतों को लेकर कुछ अलग ही विचार थे।  राजनैतिक कट्टरपंथी और उग्रवादी दोनों ही योजनाबद्ध तरीके से उन लोगों का विरोध कर रहे हैं जो उनके विरूद्ध हैं, उन्हें मारने की धमकियां दी जा रही हैं और देश में डर का माहौल बनाया जा रहा है।
इस मोड़ पर शायद शेख हसीना इस्लामवादियों पर प्रहार कर सकती थीं। वो नहीं कह सकती थीं। लोगों को प्रदर्शन करने, लिखने, सवाल पूछने, आलोचना करने का अधिकार है। लेकिन इसकी बजाय उन्होंने कहा कि, हमें एक नये ईशनिंदा कानून की जरूरत है, क्योंकि हमारे पास पहले से ही धार्मिक भावनाओं को चोट पंहुचाने के खिलाफ एक कानून है। इसके तहत हम ब्लॉगरों के खिलाफ मुकदमा चला सकते हैं। इसलिये अधिकारियों ने उन ब्लॉगरों की सूची प्राप्त की। अधिकारियों ने जांच करने का वादा किया, और उन्होंने सूची में से चार ब्लॉगरों को गिरफ्तार किया। अविजित ने इन ब्लॉगरों को आजाद करने के लिये अनथक प्रयास किए।
इसलिये क्या होता है जब आप धमकाने वालों को वो चीज़ मुहैया करा देते हैं जो वे चाहते हैं? क्या होता है जब आप उनकी अजीबोगरीब मांगें स्वीकार कर लेते हैं? जल्द ही ढाका की गलियों में सैकड़ों हजारों कट्टपरंथी उग्ररूप से नारे लगा रहे थे कि नास्तिक ब्लॉगरों को मौत के घाट उतार दिया जाए और उन नए शिक्षा सुधारों को रद्द किया जाए जो लड़कियों की शिक्षा में मदद करे। इसके बावजूद सरकार ने दोबारा उन्हें रियायतें दीं। 2013 से इस्लामवादियों की मांगें दर मांगे पूरी की जा रही हैं। जबकि अहमद और आसिफ पर हमला करने वालों की आज तक शिनाख्त नहीं हो पाई। नास्तिक विरोधी हिंसा से जुड़ा एक और उदाहरण देती हूं, 2013 में सूचना और संचार तकनीकी अधिनियम में संशोधन किया गया।
पुरानी सरकार ने जो अधिनियम बनाया था वो पहले से दमनकारी था जिसमें किसी भी प्रकाशन, प्रसारण या वेबसाइट्स को गैरकानूनी करार देने का प्रवाधान था जो झूठे और अश्लील थे। अश्लील एक सापेक्ष अवधारणा है और किसी भी ऐसी अभिव्यक्ति को गैरकानूनी ठहराना जो भ्रष्ट करे- ये भी फिर से एक अस्पष्ट अवधारणा है। और वहां सुकरात की युवाओं को भ्रष्ट कर देने की प्रतिध्विनियां आती हैं। इसके आगे संचार कानून उन सभी ऐसे संवादों को गैरकानूनी ठहराता है जो धार्मिक विश्वासों को ठेस पहुंचाता है या पहुंचा सकता है। जो इसके दोषी पाए जाएंगे उन्हें दस साल की सजा सुनाई जाएगी या फिर भारी भरकम जुर्माना देना पड़ेगा।
दंड का ये प्रावधान बेहद भारी है। लेकिन याद रहे कि हम अभी भी 2006 के मूलकानून की बात कर रहे हैं। इसके मौलिक रूप में, सभी दंडात्मक प्रावधान गैर-संज्ञेय हैं। ये एक ऐसी अवधारणा है जो भारत, श्रीलंका, बांग्लादेश और पाकिस्तान की दंड संहिता का एक बेहद ख़ास प्रावधान है। एक नॉन कॉग्निज़बल ऑफेंस वो है जिसकी पुलिस अधिकारी बिना मजिस्ट्रेट की अनुमति के जांच नहीं कर सकते हैं, उसके तहत गिरफ्तारी नहीं कर सकते हैं।  हालांकि 2013 के संशोधन ने कानून की चार धाराओं को संज्ञेय बनाया। (जिससे कि भविष्य में ऐसे छद्म ईशनिंदा कानूनों के प्रावधानों को लागू करने के लिये, न्यायिक पुनरीक्षण जरूरी नहीं होगा) साथ ही उन्हें गैरजमानती भी बनाया गया।
मानहानि के अपराध के साथ ही, दंडसंहिता में धार्मिक विश्वासों को ठेस पहुंचाने के लिये भी कुछ ऐसे प्रावधान हैं जो सिर्फ प्रिंट मीडिया पर लागू हैं, और उसके लिये दो साल की जेल का प्रावधान है। दंडसंहिता के जरिए ही अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को सीमित करना काफी नहीं था, नये संशोधित सूचना और संचार अधिनियम में इंटरनेट पर धर्म की किसी भी तरह की आलोचना के लिये 14 वर्षों की जेल का प्रावधान कर दिया गया। इससे भी ज़्यादा हास्यास्पद ये लगता है कि अगर आप इंटरनेट पर धर्म की आलोचना करेंगे तो आपको 14 साल की जेल होगी लेकिन अगर आप प्रिंट में यही काम करेंगे तो दो साल की जेल काफी समझी जाएगी। इसका मतलब है कि किसी राष्ट्रीय अखबार के मुख्यपृष्ठ पर धर्म के बारे में सोद्देश्य कोई आपत्तिजनक बात लिखने की तुलना में अगर आप फेसबुक पर कोई कमेंट पोस्ट करेंगे तो आपको सात गुना ज्यादा सजा काटनी होगी। आलोचकों, लेखकों, ब्लॉगरों और पत्रकारों के खिलाफ आईसीटी अधिनियम का बड़ी आसानी से इस्तेमाल किया जा सकता है और हम इसके बहुतेरे उदाहरण देख चुके हैं।
निष्कर्ष
कई लोग मुझसे पूछते हैं कि मुझे कौन सी चीज प्रेरणा देती रहती है। ये मुक्तोमोन समुदाय के लोगों और हजारों हजार उन जाने-अनजाने लोगों का सक्रिय समर्थन और भरपूर सहानुभूति है जो मुझमें अलख जलाए रखता है। हालांकि मैं स्पष्ट कर देती हूं कि मैं लोगों की सहानुभूति जुटाने में विश्वास नहीं रखती हूं। मुक्तोमोन के मॉडरेटर और सलाहकारों ने अविजित के काम को आगे बढ़ाए रखा है। अविजित ने न सिर्फ  लिखा है बल्कि आजीवन स्वतंत्र विचार और अभिव्यक्ति के लिये एक सशक्त मंच तैयार किया है। ढाका यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर काबेरी गायान, जिन्हें भी मार देने की धमकियां मिली हैं, उन्होंने अवि की मौत के बाद एक निजी संदेश में मुझे लिखा:
''मैं जानती हूं कि ये हमारी वैधानिक संस्कृति बन गई है कि हम लेखन का विरोध करने के लिये छुरे का इस्तेमाल करते हैं. फिर भी अविजित की हत्या के बाद, एक नास्तिक और स्वतंत्र विचार वाले व्यक्ति का साथ देने से जुड़ा टैबू अब खत्म हो गया है। हर जगह लोग अब आवाज बुलंद कर रहे हैं। लगभग हर दिन लोग लिख रहे हैं, धरना प्रदर्शन कर रहे हैं और रैलियां निकाल रहे हैं।''
इतिहास के छात्र के तौर पर हम सभी जानते हैं कि दुनिया एक रेखीयमार्ग पर नहीं चलती है, ये मुड़ती है, घूमती है, आगे और पीछे आना जाना करती है। बदलाव रातों रात नहीं आते हैं।
जब भी मैं अपनी निजी नुकसान के बारे में गहराई से सोचती हूं तो मैं महसूस करती हूं कि हर उद्देश्य और मंशा से मैं आज आपके समक्ष एक प्रिविलिज्ड और बेहतर स्थिति में हूं। मुझे बोलने के लिये मंच मिले हैं। मेरा जीवन सुविधाजनक है, अच्छे  दोस्तों और अच्छे परिवार का एक नेटवर्क है जो मुझे इस शोक पूर्णस्थिति से उबरने में मदद करेंगे। लेकिन उनका क्या होगा जिनकी कोई आवाज ही नहीं है, कोई एजेंसी नहीं है, कोई मंच नहीं है। जब हजारों आदमियों और औरतों की समंदर के रास्ते तस्करी की जाती है, जब सार्वजनिक वाहनों में लड़कियों के साथ बलात्कार कर दिया जाता है, आईएसआईएस वाले सिर कलमकर देते हैं और लड़कियों को यौनगुलामी के लिये रख लेते हैं, जब बोको हराम हजारों युवा लड़कियों का अपहरण कर लेता है और उन्हें मध्यकालीन शैली में बेच देता है, गरीब देशों में हजारों-हजार बच्चे मर जाते हैं। मैं देखती हूं कि उनकी तो कोई आवाज ही नहीं है। मैं इस बात में पुर जोर विश्वास रखती हूं कि हमें सामूहिक जिम्मेदारी और सामूहिक सरोकार के साथ जीना चाहिए। ये कोई अलग अलग हो रही घटनाएं नहीं हैं। हमें भूमंडलीय फिनोमिना को समझना होगा। इसके राजनैतिक, आर्थिक और सामाजिक अंर्तंसंबंधों को समझने की जरूरत है।
मेरा पक्का यकीन है कि पश्चिम में मानवतावाद की राह प्राचीन यूनान के नायकीय युग से ही फूटी है। पश्चिम तक के सफ़र में उस पर मध्यकालीन फारसियों और मूरों का प्रभाव पड़ा है, पुनर्जागरण के दौर में शास्त्रीय अध्ययनों की बहाली, उद्धार, ज्ञानोदय, फ्रांसीसी क्रांति, औद्योगिक क्रांति से होते हुए उसने अपना रास्ता बनाया है। लेकिन बांग्लादेश समेत दुनिया के कई हिस्से इस तरह के बहुत से राजनैतिक, आर्थिक और सामाजिक बदलावों से नहीं गुजरे हैं। जरा सोचें कि जब पश्चिम में पिछली कुछ सदियों में ये बदलाव घटित हो रहे थे तब बाकी दुनिया किस किस्म के अनुभव से गुज़र रही थी। भारतीय उपमहाद्वीप एक ब्रिटिशकॉलोनी था। अफ्रीका पर कई यूरोपीय ताकतों का दमन चल रहा था। अमरीका में भी मूलनिवासी योजनाबद्ध तरीके से मारे जा रहे थे। ये औपनिवेशिक ताकतें गुलामी, नस्लवाद और उपनिवेशवाद को बढ़ावा दे रही थीं। इसलिये पूरी दुनिया में एक जैसे संदर्भ क भी नहीं थे।
इसलिये हमें इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि किसी खास देश या संस्कृति के संदर्भ में मानवतावाद पर कैसे बात करें। हमें किसी भी व्यक्ति या लोगों पर इसे उत्तर-औपनिवेशी कमालवाद की तरह नहीं थोपना चाहिए। हमें एक राष्ट्रविशेष और संस्कृति विशेष के विशिष्ट राजनैतिक और आर्थिक उद्भव के बिखरे हुए बिंदुओं को भूमंडलीय आर्थिक और राजनैतिक प्रभावों और कार्रवाईयों से जोडऩे की ज़रूरत है।
फिर भी, कभी कभी, $खासकर पिछले कुछ  महीनों के दरम्यान, मैंने अपनी भावनाओं के बारे में सोचा-मेरा अपना नुकसान और मेरा गुस्सा,जो मेरे लिये इतना अहम और वास्तविक है। मतलब यही मेरा यथार्थ भी है-और किस तरह से ये भावनाएं उस बेपरवाह, तटस्थ और मूल्यविहीन ब्रह्मांड से टकराती हैं जिसमें हम रहते हैं.... अपने पास सिर्फ हम ही बचे हैं। हम खुद, मेरे विचार और अनुभव, मेरी हार और मेरी जीत, मेरे जीवन का अर्थ, ये सभी महत्वपूर्ण हैं, क्योंकि आखिर में इसी सबका मूल्य है। और इसका कोई अर्थ नहीं है जब तक कि हम इस अहसास को अधिक से अधिक मानव परिवार में विस्तार न दे सकें। ये सिर्फ हमारे होने की बात नहीं हैं, बल्कि बात ये है कि हम सब एक-दूसरे के साथ हैं, हम सब परस्पर हैं। हर गुलाम जिसकी तस्करी की गई हो, हर लेखक जिसकी हत्या की गई हो। हर गुम और एकाकी मन, वो महत्त्वपूर्ण है और उसका मूल्य है।
हम सिद्धांत में ये बात जानते हैं। लेकिन आज इस दुनिया में हमें अंतरराष्ट्रीय सीमाओं को पार करते हुए, हमदर्दी और देखरेख के हमारे निजी सर्किल का विस्तार हर मनुष्य तक करना चाहिये। पूरे विश्वास और संपूर्णता के साथ अपनी सार्थकता स्थापित करते हुए। यही एक तरीका है जिससे कि हम अविजित और अनंता जैसे उन तमाम लोगों के जीवन का उत्सव मना सकते हैं जो शिकार हुए हैं और जो खतरे में हैं। बांग्लादेश में वे कलम से कट्टरता का सामना कर रहे हैं। हर जगह हमें हर तरह की कट्टरता और दमन का सदाशयता, तार्किकता और सार्वभौमिकता से मुकाबला करना चाहिए और संघर्षों और टकरावों को गहराई से समझना चाहिए। मानवतावाद के समक्ष 21 वीं सदी की चुनौती यही है।






शालिनी जोशी: पूर्व बीबीसी पत्रकार। विभिन्न टीवी चैनलों में लंबे समय तक पत्रकारिता के बाद इन दिनों मीडिया अध्यापन। जयपुर स्थित हरिदेव जोशी पत्रकारिता और जनसंचार यूनिवर्सिटी में कार्यरत। फोन 9412992884.


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