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अप्रैल 2021

बाघ

हरि मृदुल

कहानी

 

 

मुझे अपने बूबू (दादा जी) की खूब याद है। अब तो उन्हें गुजरे हुए भी चालीस साल के ऊपर हो गए हैं। उनका चेहरा अब मेरी स्मृति में थोड़ा धुंधला जरूर पड़ता जा रहा है, लेकिन उनकी कितनी ही बातें अभी तक जेहन में बसी हुई हैं। खास तौर पर बाघ की बातें। बचपन में वह हमें बाघ के कितने ही किस्से सुनाया करते थे। जैसे कि जब वह एक बार शाम ढले जंगल से वापस घर की ओर लौट रहे थे, तो उनका सामना एक बाघ से हो गया  था। उधर से बूबू हटें, तो कैसे हटें। डर था कि पीछे मुड़ते ही बाघ हमला न कर दे। बूबू ने बड़ी हिम्मत से काम लिया और वह अपनी जगह खड़े हो गए। लेकिन उधर बाघ ने भी यही किया, वह भी पूंछ फटकारते हुए अपनी जगह से हिला नहीं। बाघ की आंखें ऐसी चमक रही थीं, जैसे कि अंगारे हों। बूबू को सयानों का कहा हुआ याद आया कि अगर कभी किसी बाघ से सामना हो जाए, तो उससे नजर नहीं मिलानी चाहिए। इससे शांत बाघ भी उत्तेजित हो जाता है। लेकन तब बूबू की समझ में नहीं आया कि वह क्या करें। बाघ को देखते ही वह किंकर्तव्यविमूढ़ हो चुके थे। एकबारगी तो उन्हें लगा कि वह संज्ञा शून्य हो जाएंगे। तभी उन्हें ध्यान आया कि उनके एक हाथ में धारदार कुल्हाड़ी है। बस, इसी एक सोच ने उन्हें ताकत दे दी थी। इतने में बाघ ने दहाडऩे के लिए अपना मुंह खोला ही था कि इधर बूबू ने एक जोरदार हांक लगा दी - हे हे हे हैं हैं हैं अ अ अ...। इस हांक में इतनी ताकत थी कि बाघ ने उनका रास्ता छोड़ते हुए फौरन नीचे की तरफ एक लंबी छलांग लगा दी थी। बूबू का सामना मानों साक्षात मौत से हुआ हो और जिसे उन्होंने तगड़ी मात दे दी थी।

बूबू पता नहीं कितनी बार अपनी बहादुरी का यह किस्सा हमें सुना चुके थे। लेकिन इस किस्से को सुनने में हम बच्चों को इतना आनंद आता कि उसे बारंबार सुनना चाहते। खुद बूबू भी बाघ के इस किस्से को सुनाने के लिए एकदम तैयार हो जाते और बड़ी तन्मयता से सुनाते। सचमुच हर बार ही उनका किस्सा एक अलग रोमांच देता। बूबू का इस किस्से को सुनाने का अंदाज इतना विलक्षण होता कि हमारा मुंह खुला का खुला रह जाता। कई बार तो हम पलक झपकाना तक भूल जाते। हालांकि इस किस्से को सुनाते समय बूबू दाएं-बाएं जरूर देख लेते। बात यह थी कि बूबू जब भी बाघ का यह किस्सा हमें सुनाते, तो आमा (दादी) कुढ़ जातीं। वह कहतीं, ''भौत बहादुरी के किस्से सुना रहे, लेकिन सच तो यह है कि आज भी रातों में कई बार उचक कर बैठ जाते हो तुम बसंती के बौज्यू। बाघ आता है सपने में और फिर शुरू हो जाती है वहीं तुम्हारी हांक - हे हे हे हैं हैं हैं अ अ अ..।’’

यह बात सही थी। कई बार हमने भी बबू को बाघ भगाते देखा था! बूबू की एक आदत थी कि खाना खाते ही उन्हें नींद आने लगती और वह फौरन अपने बिस्तर में चले जाते। इधर बिस्तर में जाते। इधर बिस्तर में जाते, उधर खर्राटे शुरू। खर्राटे भी उनके कई तरह के होते। पता नहीं कैसी-कैसी आवाज निकालते। उनके खर्राटे सुनकर हम बच्चों के मजे आ जाते। मानो खर्राटों वाला एक नया खेल ही शुरू हो जाता और अपने इस खेल में हम आमा को भी शामिल कर लेते। आमा भी हम बच्चों के साछ बच्ची हो जातीं। जब बूबू अजीबो-गरीब तरीके से खर्राटे भरने लगते, तो आमा को भी शामिल कर लेते। आमा भी हम बच्चों के साथ बच्ची हो जातीं। जब बूबू अजीबो-गरीब तरीके से खर्राटे भरने लगते,तो आमा कहतीं कि देखना अब तुम्हारे बूबू बाघ भगो वाले हैं...। सचमुच थोड़ी ही देर में बूबू की हांक शुरू हो जाती - हे हे हे है है है अ अ अ...। इसके बाद बूबू उठकर अपने बिस्तर में बैठ जाते। हम पूछते क्या हुआ बूबू? वह हंसते हुए जवाब देते, 'द पोथा, क्या होना हुआ। वही बाघ मिल गया था दुश्मन। लगता है कि इस बाघ से पीछा अब मरने के बाद ही छूटेगा।’ हम सब हंसने लगते, रातों में उन्हें डराया, अब तुम्हें डराते हैं। और मेरी तो पूछो ही मत। आंख लगी नहीं कि इनकी हांक सुनी। जुग बीत गया, कभी चैन की नींद नहीं सोई...।’ बूबू के पास कुछ भी जवाब नहीं होता, बस मुस्कुरा देते वह।

एक बार बूबू ने बाघ के बारे में बड़ी हैरतअंगेज बात बताई। बूबू ने कहा कि बाघ एक पत्ती की ओट में भी छिप सकता है और अपने शिकार कर सकता है। एक पत्ती की ओट में कैसे छिप सकता है इतना मोटा तगड़ा-बाघ? हम बच्चे उनसे कहते, तो वह कहते यह बात तुम लोग अभी नहीं समझोगे। जब थोड़े बड़े हो जाओगे, तब समझाऊंगा। हालांकि हमारे थोड़े बड़े होने पर हम उनसे यह बात पूछना भूल ही गए। आज बूबू की वह बात ध्यान आती है, तो लगता है कि काश! हम यह बात पूछना न भूले होते। आखिर एक बाघ ने एक पत्ती की ओट में छिप पाने की बात कितनी तो दिलचस्प है। मुझे बूबू के उस आखिरी दिन की भी बहुत अच्छी तरह याद है। बूबू दिन में सो रहे थे। सो क्या रहे थे, वह ऐसी नींद थी, जो अब कभी नहीं टूटनी थी। वह तेज खर्राटे भर रहे थे। खर्राटे क्या थे, बाघ का डुकरना था। लगता था कि किसी लेटे हुए बाघ पर अचानक मोटा और भारी कंबल डाल दिया गया हो और वह इससे मुक्त होने के लिए लगातार गुर्रा रहा हो...। हालांकि बूबू बिल्कुल भी हिल-डुल नहीं रहे थे। बस, उनका जोरों से सांस लेना और उतनी ही जोरों से सांस छोडऩा महसूस हो रहा था। कंबल के भीतर हम बूबू का चेहरा नहीं देख पा रहे थे, लेकिन हमें महसूस हो रहा था कि वह बाघ की तरह ही अपना जबड़ा खोल रहे होंगे और  फिर बंद कर रहे होंगे। शायद तब उनकी जीभ भी बाहर निकल रही होगी और उसमें से लार बह रही होगी...।

बूबू अस्सी के करीब पहुंच चुके थे, जैसा कि एक दिन उन्होंने बातों ही बातों में बताया था। तब मैं अपनी उम्र के आठ साल पूरे करने जा रहा था। मेरा जन्मदिन आया था। बूबू ने बड़े स्नेह से गले लगाया था और बताया था कि कुछ दिन पहले उन्होंने भी अस्सी पूरे करके इक्यासीवें साल में प्रवेश किया है। मुझे याद नहीं कि जाने क्यों मैंने उनसे अस्सी का मतलब पूछा था। शायद मसखरी में। 'तुम्हें अस्सी मतलब नहीं पता पोथा? यह तो हद ही हो गई। बूबू से ऐसा मजाक करते हो।’ खैर, उन्होंने जवाब दिया था, 'आठ और शून्य।’ फिर वह अपने पोपले मुंह खूब हंसे थे। कहा था, 'नाती, यूं तो एक शून्य का कोई मतलब नहीं होता, लेकिन देखो कि एक जीरो लगते ही तुम्हारी उम्र मेरे बराबर हो जाएगी। लेकिन जीवन अंकगणित थोड़े ही होता है बबा। खैर, तुम अभी मेरी इन बातों को नहीं समझ पाओगे। तुम्हें ये बातें अभी समझनी भी नहीं चाहिए। अभी तो तुम्हारे दिन खेलने-कूदने के हैं और तुम्हें वही करना भी चाहिए...।’ तब आमा ने बड़ा आत्मीय हस्तक्षेप किया था, जो कि खुद भी तब पिचहत्तर की हो चुकीं थी, 'द ऐसा भी क्या कहना हुआ। तुम्हारी यह गणित मेरे ही पल्ले नहीं पड़ी कभी, तो इसके क्या पड़ेगी। हां, हो बसंती के बौज्यू, पहले तो तुम बच्चों से बातें करते समय बिल्कुल भी बूढ़े नहीं होते थे, लेकिन अब क्यों होने लगे हो?’ बूबू ने आमा के इस सवाल का कोई जवाब नहीं दिया था। बस, मुस्करा भर दिए थे। चालीस साल हो गए, मुझे बूबू का वह मुस्कराना अभी तक याद है। आज कह सकता हूं कि वह एकदम बच्चों की तरह ही मुस्कराए थे।

मुझे अपना आठवां जन्मदिन इसलिए भी याद है कि उस दिन बूबू ने पता नहीं कितने समय के बाद रात का खाना खाया था और बहुत स्वाद लेकर खाया था। यूं तो सालभर पहले से बूबू ने रात का खाना बंद कर दिया था। उम्र बढऩे के साथ उनकी पाचन क्रिया भी बिगडऩे लगी थी, सो वह एकवक्ती हो गए थे। बस, दोपहर में ही भरपेट भोजन करते और फिर शाम को पीतल का गिलास भरकर चाय पीते। यह चाय भी चीनी वाली नहीं, गुड़ वाली। गुड़ की कटकी की चाय ही उन्हें प्रिय थी। हर किसी से कहते भी थे कि चाय का अमल ठीक नहीं। लेकिन अगर अमल लग भी गया हो, तो चीनी की चाय मत पियो। गुड़ की कटकी वाली चाय पिओ। खैर, उस दिन मां ने घर के बने घी की पुडिय़ा तो तली ही थीं और तैड़ मंगवा लिए थे। जिसने इस जंगली कंद का स्वाद चखा है, वही जानता है कि यह कैसी गजब की सब्जी होती है। खाना शुरू करो, तो फिर खाते ही जाओ। और उस दिन तो पिरम का के लाए तैड़ की ऐसी रसोई बनी कि पूछिए मत। सचमुच इस कंद की रसीली सब्जी का वैसा स्वाद तो फिर मैंने कभी नहीं चखा। मुझे अच्छी तरह से याद है कि इस मौके के लिए विशेष रूप से भांग की चटनी भी बनाई गई थी और आलू के गुटुक भी। बूबू ने भले ही सालभर से रात का खाना खोड़ रखा था, परंतु उस दिन उन्होंने जी भर कर भोजन किया था। मुझे बहुत खुशी हो रही थी कि मेरे जन्मबार की खातिर उन्होंने अपना नियम तोड़ा था। वैसे भी सबसे ज्यादा प्यार भी तो वह मुझे ही करते थे। हां, यह बात मुझे कतई याद नहीं कि खाना खाने के बाद मैंने बूबू के साथ ही सोने की जिद क्यों की थी और फिर क्यों मुझे इसकी इजाजत भी मिल गई थी। लेकिन हुआ यह कि उस रात हम दोनों बूबू और नाती को देर तक नींद नहीं आई थी। कितनी ही बातें करते रहे थे हम। पता नहीं मेरे क्या-क्या सवाल होते उनसे और उनके भी पता नहीं कैसे-कैसे जवाब। इसी बीच मुझे महसूस हुआ कि मेरे पेट में गुड़-गुड़ शुरू हो गई है। आश्चर्य की उधर बूबू को भी ऐसा ही महसूस हो रहा था। इस बार का तैड़ कुछ अलग ही तासीर का रहा शायद। उन्हें लगा कि बिना बाहर जाए चैन पडऩे वाला नहीं। तभी उन्होंने टार्च ढूंढ़ी और पीतल के भारी लोटे में पानी डाला। वह बाहर जाने के लिए दरवाजा खोल ही रहे थे कि मैं भी उठ गया। मैंने भी अपने पेट की गुड़-गुड़ के बारे में उन्हें बता दिया। वह थोड़े चिंतित हो गए और उन्होंने साथ चलने का इशारा कर दिया था।

उनके एक हाथ में टॉर्च थी और एक हाथ में पीतल का भारी लोटा। उनसे सट कर चल रहा था पीछे मैं। बाहर घुप्प अंधेरा था। काफी रात हो चुकी थी। आंगन के एक कोने तक पहुंचे ही थे कि तभी सामने अंगारों सी चमकती दो आंखें दिखाई दे गईं। बूबू सब समझ गए, परंतु वह कतई डरे नहीं। लेकिन मैं बहुत डर गया था और उनसे चिपट कर खड़ा हो गहया था। तभी बूबू ने एक साहसिक निर्णय लिया। उन्होंने धीरे से पीतलके लोटे का पानी गिराया और फिर उसे अंगारों सी चमकती दो आखों की ओर पूरी ताकत से उछाल दिया। इसके बाद उन्होंने जोर से हांक लगाई - हे हे हे हैं हैं हैं अ अ अ...। पीतल का वह भारी लोटा बूबी की आवाज की संगत करता देर तक बजता रहा और पत्थरों पर लुढ़कता रहा। तब तक घर के लोग उठ कर बाहर आ गए। अब बाघ का कहीं अता-पता नहीं था। वह पलभर में ही गायब हो गया था। बावजूद इसके बूबू ने एहतियातन एक बार फिर बहुत ऊंची हांक लगाई - हे हे हे है है है अ अ अ...।

आज भी सिहर उठता हूं, जब इस घटना को याद करता हूं। कितने ही किस्से मेरे स्मरण में हैं बाघ के। एक बार और बूबू ने बड़ा ही दिलचस्प किस्सा सुनाया था बाघ का। जाड़ों के दिन थे। कई दिनों से धूप नहीं निकली थी। शाम का समय था। अचानक ही आमा की बड़ी बहन और उनकी बेटी उनसे मिलने के लिए आ गईं। तब घर में घी-दूध और छाछ की तो कमी नहीं थी, क्योंकि उनकी बहुत प्रिय गाय धौली हाल ही में ब्याई थी। मेहमानों की आवभगत तो बिना किसी दिक्कत के हो ही जाती, लेकिन रहने की तो बड़ी समस्या सामने आ खड़ी हो गई थी। छोटा सा घर था। ओढऩे-बिछाने को भी ज्यादा कुछ नहीं। ऐसे में क्या करें? लेकिन बूबू ने रास्ता निकाल ही लिया। उन्होंने मेहमानों को ऊपर के कमरे में सुलाया और खुद अपनी धौली गायब के गोठ सोने चले गए। गाय और बछिया के अलावा इस गोठ में कोई अन्य जानवर नहीं था। सो, गोठ के एक खाली कोने बूबू ने पराल का बिस्तर लगा दिया और ओढऩे के लिए एक पुराना कंबल था ही रात में वह कुल्हाड़ी और टॉर्च हर हाल में अपने साथ रखते थे। पता नहीं कब क्या मुसीबत आ जाए। नींद की एक झपकी उन्हें आई ही थी कि अचानक उन्होंने देखा कि गाय ने मारे डर के डूडाट करना शुरू कर दिया है। आखिर माजरा क्या है? कुछ समझ में नहीं आया। तभी उन्हें महसूस हुआ कि कोई तो उनके गोठ के किवाड़ ढकेल रहा है। किवाड़ के भीतर से लगी सांकल बार-बार हिल रही है और ज्यादा जोर लगने पर वह कभी भी खुल सकती है। उन्होंने फौरन टॉर्च जलाई और उसकी रोशनी में जो देखा, तो उनके रोंगटे खड़े हो गए। बाघ ने अपना पंजा दोनों किवाड़ों के बीच से भीतर डाला हुआ है। एक पल को तो उन्हें समझ में नहीं आया कि क्या करें, लेकिन दूसरे पल उन्होंने मजबूती से अपनी कुल्हाड़ी पकड़ी और बिना समय गंवाए उस पंजे पर चोट करने की सोच ली थी। परंतु तभी उनके मन में यह बात आ गई कि अगर बाघ के पंजे पर कुल्हाड़ी से वार कर दिया, तो बुरी तरह घायल हो जाएगा और इस तरह बाद में उसका आदमखोर बनना सुनिश्चित है।

लेकिन बूबू थोडा मजा तो बाघ को चखाना ही चाहते थे। सो, वह बड़ी फुर्ती के साथ किवाड़ के पास पहुंचे और उन्होंने बड़े ही साहसिक तरीके से बाघ के पंजे को जोर लगाकर दोनों किवाड़ के बीच दबा दिया। बाघ पर्याप्त चौकन्ना था, लेकिन उसका पंजा फंस चुका था। वह उसे पूरी ताकत लगाने के बावजूद बाहर नहीं खींच पा रहा था। बूबू ने भी मिनट भर तक बाघ के पंजे को किवाड़ से दाबे रखा। बाघ मारे दर्द के बिलबिला उठा।ऐसे में उसकी गुर्राहट की कल्पना की जा सकती है। इधर बाघ की हिला देनेवाली आवाज थी, तो इधर गाय मारे डर के खूंटा तोडऩे को आतुर थी। मिनट भर बाद जब उन्होंने किवाड़ पर अपना जोर कम किया, तो बाघ को मुक्ति मिली और वह कुछ ऐसेे जंगल की ओर भागा कि जिसकी बस कल्पना ही की जा सकती है। बाघ की उस जोरदार गुर्राहट का जिक्र बूबू ने मुझसे न जाने कितनी बार किया था और उस हांक का भी, जो गोठ से ही लगाई थी- हे हे हे है है है अ अ अ...।

पता नहीं क्यों कल मुझे सपने में बूबू दिखाई दिए थे। वह पलंग पर सोए हुए थे और मैं उनके बगल में लेटा हुआ था। वह अस्सी के ही दिख रहे थे, लेकन मैं अब आठ साल का नहीं साठ साल का था। आश्चर्य की बात कि वह न खर्राटे भर रहे थे और न ही हिल-डुल रहे थे। इसी बीच मुझे वह चिर-परिचित जोरदार हांक सुनाई पड़ी! मैं विस्मित था और लगातार अपने आपसे बातें कर रहा था। मेरा बड़बड़ाना सुनकर अब बूबू भी उठ बैठे थे। उन्होंने बड़े स्नेह से मेरे सिर पर हाथ फेरा था। अपने पास खींचकर सुलाते हुए कहा था - सो जा पोथा, सो जा। लगता है, मेरे बाद अब यह बैरी तुम्हारे सपनों में आने लगा। इससे पीछा छूटना आसान नहीं। लेकिन डरने की कोई जरूरत नहीं है। हांक लगाना मत भूलना, बस। याद है ना तुम्हें  हांक - हे हे हे रै है है अ अ अ...!

मैंने हामी बरते हुए सिर हिलाया और दम लगाकर दोहराया - हे हे हे है है है अ अ अ...।

'कौन बनेगा करोड़पति’ देख रही मेरी बीवी दौड़ी चली आई थी। बेटे-बेटी और बहू भी आ गए थे। ऐसा भी क्या सपना देख लिया, जो इतनी जोर से चीखे? सब हैरत में थे। मेरी नींद अब पूरी तरह खुल चुकी थी। मैं अजीब खीझ से भर उठा था। अभी रात के साढ़े दस ही बजे थे। घंटा भर पहले ही तो खाना खाया था। खाना खाने के बाद घर के लोग 'कौन बनेगा करोड़पति’ देखने लग गए थे और मैं चुपचाप बिस्तर में पड़ गया था और तत्काल खर्राटे भरने लग गया था। फिर मैंने एक सपना देखा और एक ऊंची-सी हांक लगा थी - हे हे हे है है है अ अ अ...!

मुझे बड़ी शर्मिंदगी महसूस हो रही थी, लेकिन मैं जबर्दस्ती मुस्करा रहा था। 'नहीं, कुछ नहीं। बाघ दिख गया था सपने में’। सबके बार-बार पूछने पर मुझे बताना पड़ा। सब विस्मित भी थे और हंस भी रहे थे। बेटे ने तो हंसते-हंसते कह भी दिया, 'बाघ, वह भी मुंबई में! चौदहवें फ्लोर के टेरेस फ्लैट में। कमाल है यह तो। सपने में भी बाघ कैसे आ सकता है इस शहर में भला! मुंबई में तो नोट आते हैं सपने में। बड़ी-बड़ी गाडिय़ां आती हैं। बंगले आते हैं। बाघ के लिए तो सपने में आने के लिए कोई गुंजाइश ही नहीं बचती।’ मैं देख रहा था कि सबने बेटे के सुर में सुर मिला दिए थे। सभी लोग सपने में बाघ के आने की मेरी बात का मजाक उड़ा रहे थे। मैं थोड़ी देर उनकी हंसी थमने का इंतजार करता रहा। लेकिन जब ऐसा नहीं हुआ, तो आखिरकार मुझे ऊंची आवाज में कहना ही पड़ा, 'तुम सब लोग बहुत नासमझ हो और ओवर कॉन्फिडेंट भी। तुम लोगो को कुछ पता ही नहीं है कि अब ज्यादातर बाघ किन्हीं जंगलों में नहीं बल्कि महानगरों में रहते हैं। ऊंची बिल्ंिडगों में रहते हैं। शानदार बंगलों में रहते हैं। बड़ी-बड़ी कंपनियों में रहते हैं। चमचमाते शो रूम्स में रहते हैं। मॉल में रहते हैं। और भी पता नहीं कितनी जगहों में रहते हैं। ये वे बाघ हैं, जो कितने ही भेष धर लेते हैं। ये एकदम आदमियों जैसे दिखते हैं, लेकिन सच में वे आदमी नहीं होते। नजरें साफ कर देखोगे, तो पाओगे कि सब जगह हैं बाघ - मुंबई, दिल्ली, लखनऊ, भोपाल, पटना, जयपुर, देहरादून, शिमला, चंडीगढ़, बैंगलुरु, हैदराबाद, कोलकाता...।

 

 

 

सुपरिचित कवि-कथाकार और पत्रकार हैं हरि मृदुल। मुंबई नवभारत टाइम्स में सहायक संपादक हैं। पहल में कविताएं प्रकाशित हो चुकी हैं, लेकिन कहानी पहली बार प्रकाशित कर रहे हैं। बाघ कहानी लोक जीवन से शुरू होती है, बड़े मानीखेज तरीके से मुंबई जैसे महानगर तक पहुंचती है। यह बहुअर्थी कहानी है।

संपर्क - मो. 9867011482

 


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