विजय गुप्त की कविताएं
विजय गुप्त
कविता
मोबाइल संदेशों और शुभकामनाओं के संदर्भ में
बेजान संदेशों और बुझी हुई शुभकामनाओं से डर लगता है वे तगादों की तरह रोज आते हैं। जब आप सजदे में झुके होते हैं; सुनते हैं ख़ून का बजना सन्नाटे में - वे कॉलबेल की तरह बजते हैं कहीं भी, कभी भी आप अकेले नहीं होते न सुबह, न दोपहर, न शाम और न ही रात में यहां तक कि नींद के अंधेरों में भी वे चीर देते है वजूद आपका होना न होना बना देते हैं।
बच्चों के जूते
बच्चों के जूते कभी अच्छे जोड़ीदारों की तरह नहीं रहते, कभी इस मुंह तो कभी उस मुंह पड़े होते हैं, कभी इस कोने तो कभी उस कोने, कभी एक दूसरे पर चढ़े होते हैं- जूते तो नन्हें पांवों में ही दौड़ते, बजते, नाचते, धूल उड़ाते और ठोकरें जमाते हैं बड़ों की तरह ही घुन्ने, डरपोक और मुर्दे होते हैं, जूते तो चपल पांवों में ही सांस लेते और जंचते हैं।
कहां है मेरी जगह?
मुझे कितनी जगह चाहिए थी? सूखते कंठ में बूंद भर मिट्टी जितनी आंसू भर आंख जितनी, शिशु और मां के विश्वास जितनी। भाषा में अल्पविराम जितनी जगह मांगी थी मैंने, शब्दों के बीच हाइफन की तरह टिका रहना चाहता था मैं। कितनी छोटी थी मेरी प्यास? कितनी मामूली थी मेरी इच्छाएं? लेकिन देश के नक्शे में मेरी जगह ही क्या है? मुझ जैसों की सारी जगहों पर क़ाबिज़ बाहुबली हाथ में तिरंगा ले फुटबॉल की तरह मुझे हवा में उड़ाता है, कागज़ की नाव बना दु:ख की नदी में डुबाता है, रूई के फाहे की तरह दिन-रात जलाता है। उसकी शब्दावली में कबाड़ हूं मैं, सिरफिरा हूं मैं, देशद्रोही हूं मैं जो घासफूस जैसी इच्छाओं के अपना मौलिक अधिकार मानता है और बाहुबली से लड़ता चला जाता है।
सुर की हत्या
ये कैसी हत्यारी चुप्पी? क्लेरिनेट की तान तार-सप्तक में जाकर अटक गई, ट्रम्पेट की ऊंची पुकार कंठ में ही घुट गई, नहीं ले पा रहा सांस सेक्सोफोन और बांसुरी की टेर बीच में ही लुट गई, शहनाई होंठ और हाथ के बीच पत्थर; बैगपाइप की स्वर-नलिका ख़ून और आंसू से तर-बतर। चली कुछ ऐसी उलटी हवा कि तबले की गमक आह में, ढोलक की धनक कराह में और ड्रम की लय सम की चाह में खामोश, दर-ब-दर हो गई, भूख और प्यास की भांय-भांय में पेट की आग ने फेफड़ों की हवा को भी फूंक दिया। सुर की चिताओं में अब दूर-दूर तक जल रहे हैं साज़ आवाज़ साज़िन्दे और जीवन की बंदिशें।
कहां हो?
व्हेनसांग ने अमूल स्वर्णाभूषण, हीरे-मोती, माणिक-मुक्ता, जवाहिरात लौटा दिए थे सम्राट हर्ष को और मांग लिया था पुस्तकों का पवित्र उपहार। याद आ गई इतिहास की यह भुला दी गई कथा; अपने ही नगर के ध्वस्त होते पुस्तकालय के बीचोबीच जैसे जाग उठीं अतीत की छायाएं और मैंने देखा कि रौंदी जा रही पुस्तकों के पन्ने से निकल रही हैं लपटें, और नालंदा एक बार फिर से जल रहा है और पाश्र्व में बौद्ध भिक्षुक प्रचण्ड अग्नि में स्वयं होम होते पुस्तकों को जलने और भस्म होने से बचा रहे हैं। बुलडोजरों की गर्जना और जलती हुई किताबें मानो पूछ रही हैं कहां हो बौद्ध भिक्षुओं ज्ञान, विचार और वाणी की हत्या में लीन विचारदरिद्र हत्यारी सदी में?
प्रेम कहानी
टूटी हुई सिलाई वाली किताब का आखिरी पन्ना धागों की कैद से निकल ही गया, समर्पण, भूमिका शुरू और बीच के कुछ पन्ने चुपचाप उड़ गए अंतरिक्ष में कुछ खिड़की-दरवाजों के रास्ते निकल धीरे-धीरे मिट्टी हो गए कुछ रोटी के डिब्बे में बिछ अन्न गंध में बदल गए कुछ शीत में ठिठुर गए कुछ धूप में झुलस गए कुछ भीग कर गल गए बरसों बरस बाद शायद सदियों बाद किसी चट्टान के नीचे या किसी गुफा में या किसी सूखे कुएं में या जमींदोज हो चुके किसी घर के खण्डहर में एक आध पन्ना किसी को मिले और शायद फिर शुरू हो कोई प्रेम कहानी।
कोलकाता
ध्वंस-ध्वनियों से भरी दुखती हवा में जलते शवों के बीच पतली गंध जूही की अभी जिन्दा है घास उसका हरापन ज़िन्दा है कोलकाता उसका कोलकातापन। अभी-अभी छूट गई है कोई ट्रेन सियालदा से, बोझ से दब कर हावड़ा की धरती दर्द से दोहरी हुई है, अभी-अभी बिंधी है कोई हिलसा मछली। स्वप्नहीन निर्जन चतुर्दशी की रात में तैर रही हैं नौकाएं हुगली के काले जल में। उड़ रहा है कोलकाता नींदहीन, बेचैन, नाराज़ अपने कटे-फटे आकाश पर। भाषणों की विष-क्रिया में लांछनों के दाह में ट्राम से चढ़ता-उतरता शंखध्वनि में गूंजता चण्डीमण्डप की आग सा धधकता कोलकाता- स्त्री के पवित्र गर्भ सा कविता की आंख में दहक रहा है
विजय गुप्त विगत 30 वर्षों से प्रगतिशील लेखक संघ से संयुक्त रहे हैं। अम्बिकापुर (सरगुजा) रहवासी हैं। वहाँ एक छोटा सा मुद्रणालय संचालित करते रहे, अब बंद है। हिन्दी की एक अनोखी पत्रिका 'साम्य’ के संपादक रहे। अब इस पत्रिका के अंक हिन्दी की धरोहर हैं। सच्चे अर्थों में 'साम्य’ एक लघु-पत्रिका थी। सरगुजा के अम्बिकापुर अंचल को हम उर्वर प्रदेश मानते हैं। संपर्क: मो. 9826125253
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