2019 के पहले
वीरू सोनकर
लंबी कविता/एक
2019 के बाद भी फिलिस्तीन होगा और जाहिर कबूल तौर पर इजरायल भी होगा
सर तक चढ़ चुका उत्तर कोरिया होगा तो समुद्र में आधे गले तक डूब गया जकार्ता भी होगा खबरों में रोज मरता कश्मीर तब भी अपनी पस्त सांसे भर रहा होगा
खुद की रक्षा के लिए रोज बन रही खबरों से बेफिक्र गायें तब भी अपनी दुपहरों में एक बेमियादी उँघ को चबा रही होंगी।
पिटता हुआ अमेरिका तब भी खेल के नियम बदल रहा होगा। पिट कर भी खेल में बना हुआ एक बेशर्म पड़ोसी मुल्क होगा। और अपने सीने पर बार बार पड़ रही ड्रेगन की परछाईं से सशंकित दिल्ली भी होगी
मर चुका पहलू खान भी यदाकदा खबरों में ज़िंदा हो जाया करेगा।
कुछ लोग भी होंगे जो सशंकित नहीं होंगे पर वह चुप होंगे।
बहुत पहले से अपने यहाँ होने पर बौराता हिन्दू होगा तो बहुत पहले से अपने यहाँ न होने से घबराता मुसलमान भी होगा। देश में भयभीत लोगों की जनसंख्या आबादी के बराबर हो चुकी होगी। और सत्य बस एक ही होगा कि अब कोई विकल्प शेष नहीं है।
हवा में अपने दीमक लगे पैर जमाने की कोशिश में तल्लीन आकाश में लटक रही सरदार पटेल की एक अधबनी और बहुप्रचारित मूर्ति भी होगी
तब भी रेलवे स्टेशनों पर ट्रेनों की प्रतीक्षा में खड़ा एक युवा भारत बुढ़ापे की उब से गंधाया हुआ होगा
तब कुछ लोग होंगे जो तिथियों को लांघ कर चले जायेंगे कई साल पीछे लौट कर वही बता पाएंगे गंगा का पानी पी कर कि इसमें प्रदूषण से ज्यादा घुल चुका है संदेह
हम मुहम्मद रफी से मिलेंगे और कहेंगे कि हम विलाप और आलाप का फर्क करना भूल गए हैं।
गांधी के साथ चले जायेंगे वह भागते हुए नौआखाली तक
ग़ालिब से कहेंगे कि हमारी भाषा में लौट आओ!
वह अपनी तारीख में लौट आएंगे यह पता लगा कर कि लगातार चुप रहने से लोग पेड़ बन जाते हैं जिनके भीतर चीटियाँ बना लेती हैं सुरंग और सत्ता लूट लेती है जिनकी देह का सारा काठ
यूँ तो वह अपने समय के सबसे उदास लोग होंगे पर जब कभी तेज़ धूप को घेरते पानी से भरे बादल उन्हें उकसायेंगे तो वह प्रसाद की पंक्तियों से बारिश का स्वागत करेंगे कहेंगे- अरुण यह मधुमय देश हमारा! बहुत कुछ जरूरी छूट जाने के महान दुख से विचलित इस सदी के सीने पर अफगानिस्तान में घायल पड़ी बुद्ध की कुछ मूर्तियां बदस्तूर पहले की तरह अपने आँसू बहा रही होंगी।
कुछ लोग होंगे जो उन्हें बुद्ध के अंतिम उपदेश की तरह देखेंगे।
'ओबामा के बाद’ या 'ट्रंप से पहले’ यह दुनिया कैसी थी इस विमर्श पर तब तक हजारों पन्ने आत्महत्याएं कर चुके होंगे।
बलात्कार के बाद मार दी गयी तमाम लड़कियाँ अपनी पसंद के कपड़ों में भारत के आकाश पर नाच रही होंगी जो हर बारिश में बिना किसी सीढ़ी की सहायता के उतर आएंगेी हम सबकी छतों पर!
किसी भुखमरे के घर में पुराने बक्से से निकल आएगा तब भी एक रद्द हो चुका भारतीय पनसौवॉ गांधी छाप-नोट और वह हँसे या फिर रोयें चीख कर इसी उधेड़बुन में वह संभावनाओं से भरा अपना एक दिन गवा चुका होगा।
पर यह सच है कि 2019 से पहले भी एक देश होगा। जो तमाम अगर-मगर के बाद भी यह जानता होगा कि कोई भी देश एक स्कूल नहीं होता कि ठीक न लगने पर नाम कटा कर कहीं और चले जाएं।
जो उपरोक्त कही गयी सभी दु:शंकाओं को खारिज करते हुए कुछ संभावनाओं को तलाश रहा होगा '2019’ से पहले
एक देश को लगातार बदलते रहना चाहिए एक देश को लगातार चलते रहना चाहिए एक देश को अपनी आत्मस्वीकृतियों से संवाद करते रहना चाहिए एक देश को लगातार दहाड़ी रुदन और मुस्कुराहटों के बीच नींद को तलाशना चाहिए। उसके होने के मायने क्या हैं यह कुल पैदा हो चुके लोगों की गिनती से नहीं प्राप्त हो चुकी स्वर्णाक्षरी उपलब्धियों से नहीं हो चुकी यात्राओं से नहीं!
एक देश के होने के मायने इस बात में तलाशे जाने चाहिए कि वह अपनी सामूहिकता में कितना अधिक जीवित है।
वह जान रहा हो कि चुप्पियां उसकी देह को कहाँ तक कर चुकी हैं खोखला
आवाज़ों पर लगे पहरे पर वह कितना चीख बैठता है देर से खत्म हो रही रातों में
एक देश नहीं जाना जा सकता है तानाशाह की खतरनाक चुप्पी से उपजती आशंकाओं के द्वारा किसी भी कीमत पर भय उस देश का चेहरा नहीं बन सकता है।
चुप्पे कुँए जैसे नागरिक जितने भीतर झांकने पर गला पकड़ कर खींचने लगता है कई वर्षों से जमा एक बासी सन्नाटा!
एक देश को यूँ जाना जाए कि उसके भीतर पागलों की संख्या कुल आबादी के सापेक्ष कितनी अधिक बढ़ी है।
तानाशाह के चेहरे पर निश्चितता के बजाए उमड़ी पड़ी हैं कितनी चिंतित लकीरें अहंकार से उठी भृकुटियों से ठीक आधा इंच नीचे विस्मय से भरी एक जोड़ी आँखों में उतरा आये हों भय के नन्हें पौधे। एक देश को एक साथ उमडऩा चाहिए। एक साथ ही उसे कुछ बदनाम तिथियों से भिड़ जाना चाहिए। उसे एक बार इतिहास की ओर तो चार बार भविष्य की ओर झांकना चाहिए। वर्तमान के कठोर जबड़ों के बीच याद रखना चाहिए कि वह देश 'जीवितों’ का एक सांस भरता झुंड है।
एक अधमरी और चुप्पी पीढ़ी से नहीं लेती कोई भी अगली पीढ़ी अपने लिए रक्त, अपने लिए प्रतिक्षा अपने लिए प्रतिज्ञा और प्रतिकार, वह कतई नहीं ढोती उनके हिस्से की लज्जाएँ!
वह अपनी ऐतिहासिक बत्तमीजियों के लिए प्रेरणाएं तलाशती है किसी अन्य देश की तिथियों में, और अनगिनत स्वर्णाक्षरी तिथियों में गले तक धसे एक देश के लिए यह डूब मरने की बात होगी।
जो देश एक साथ जागते है एक साथ ही उठते हैं जिस देश के सारे पागल एक साथ उतार लाते हों अपनी आंखों में प्रतीक्षा की अटूट चट्टानें।
जो हवाओं में उदासी घोलने की बजाए भर रहें हो एक रोमांचकारी दु:साहस। जो तानाशाह की आंख में अपनी आंख का बारूद भरते हुए कह रहे हों कि अनिवार्य रूप से 2019 से पहले आता है 2018
कि 2019 का प्रतीक्षा वर्ष है 2018 दरअसल उस देश को ही हक है कि वह एक विरासती पीढ़ी को दे दे अपनी जमा सारी चिंगारियां!
भाषा में थोड़ा अराजक होते हुए जब कविताएँ कहने लगे कि वाक्य के हर शब्द में जबरन अनुस्वार भरने वाले
हे अधिनायक! कि एक सौ पैंतीस करोड़ लोग एक भूभाग विशेष पर जी सकने के लिए हवा, पानी, मिट्टी और नींद तलाशते लोगों का एक बेदम आंकड़ा नहीं है।
यह क्रांतिक ताप में लगातार झुलस रहे लोगों की एक भीड़ है।
हम भारत के लोग, हम एक साथ सांस भरते और छोड़ते हुए लोग हम एक साथ थकते और पैदा होते लोग हम एक म्यान मे बारूद और आग रखते लोग
हमारी निद्रालीन आंखों पर आज भी बैठ जाती हैं कुछ चमकदार खेतिहर तितलियां.. वह आज भी हमारी नींद के भीतर अपने चमकीले पंख बिना किसी भय के झाड़ देती हैं बदस्तूर हमे हर रोज खड़ी मिलती है आँख खुलते ही एक नई सुबह
हे अधिनायक, हे सत्य में असत्य की मिलावट करते व्यापारी हे इतिहास की गैरजरूरी मरम्मत में लगे एक अकुशल मिस्त्री
अधीरा की आंखों में देखो।
इस बार हम रहस्य से भरे लोग एक हैं इस बार हम पानी की तलवार लेकर निकले हैं इस बार भयावह चुप्पी से भरी सर्द बर्फ के विरुद्ध यही हमारी क्रांति है। * * *
1977 का जन्म। कविता कहानी में समान रूप ले लेखन। कई प्रसिद्ध कविताओं के रचयिता। कविता पाठ में लोकप्रिय। रज़ा फाउन्डेशन, कोलकाता लिट्रेरिया, भारत भवन के आयोजनों में पाठ। संपर्क - मो. 7275302077, कानपुर
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