कविताएं- भारती वत्स
भारती वत्स
कविता
डुबोया जाता हरसूद
बरगद के इस फैलाव में हमने बरसों उड़ेली थी आत्मा पानी की तरह...। खटिया खिसकाते-खिसकाते देखी थी। खिसकती धूप...। घर के आंगन में लगे इस नीम के पेड़ की जड़ें सिर्फ जमीन में नहीं... हमारे बहुत अंदर धंसी हैं...। घर की इन दीवारों पर हमने पलस्तर की जगह जड़ी थीं आँखें तब हमारी आंखों में थे बेहिसाब सपने जिन्हें हमने रोप दिया था एक-एक छिद्र में...। कल ही मेरी बेटी ने पूछा था हमारे हिस्से में फिर अंधेरा है हमारे हिस्से में फिर सूखा है हम लोग देश भक्त हैं हमारे बलिदान पर 'वे’ सुख का राग छेड़ेंगे। उनने हमारी सांसों की शर्तों पर जीना सीखा है...। बिटिया रूआंसी हो गयी, बोली, ऐसा क्यों होता है अम्मा हमारे हिस्से में धूप ही धूप उनके हिस्से में छांव ही छांव कभी हम उनकी छांव क्यों नहीं छीनते? उन्होंने हमारे जीवन के विस्तार छीने हैं इन्हे बताना ही होगा दुनिया के हर उस आदमी को जिसे बिजली चुरानी पड़ती है। जिसे पानी चुराना पड़ता है जिसे धूप चुरानी होगी जिसे हवा भी शायद चुरानी पड़े ये दुनिया ऐसी ही है बेटा यहां छीनने से सब मिलता है मांगने से कुछ नहीं....।
मणिपुर की औरतें
इनकी नग्न देह कैलेंडर पर चस्पा तुम्हारा पनियल सपना नहीं है वह एक घोषणा है वह एक विद्रोह है वह एक पहल है वह एक बिगुल है पृथ्वी को आमूल-चूल बदलने का तुम्हारे खौफनाक इरादों के विरूद्ध...। इसे सुनो, और समेटो अपनी इन क्रूरताओं को फटाफट और निकल लो उस अंधेरे में क्योंकि इनकी नग्न देह सिर्फ दिखती नहीं वो चीखती है वो चीत्कारती है वह मांस का लोथड़ा नहीं पृथ्वी का सबसे बड़ा सच है इसे समझो, इसे बूझो, उससे डरो...।
सन् 71 का युद्ध और आल्या
आल्या, कई रातों से तुम मेरे स्वप्न में खुल रही हो किताब की तरह...। बेचैनी भरी तुम्हारी दूधिया ऊष्ण सांसे, मुझे स्पर्श कर रही हैं, आज भी...। जब तुमने अपने लड़कपन को बदलते देखा था औरत में? मर्दानगी की उस यंत्रणादायी, सुरंग को पार करते-करते तुम्हारे दिन महीने में और महीने साल में बदल गये.... आमार बांग्ला का चिर प्रतिक्षित उद्घोष अपरिचित सा हो गया मर्दानगी के उस बेपर्दा, बेशर्म, क्रूर निर्ममताओं से भरे समय में, अंतहीन रातें ही रातें थीं उस घुटन भरी कसमसाहट में सुबह नि:शब्द हो गई ती उन दिनों... पर मरी नहीं थी, बार-बार बार-बार अनवरत जारी मर्दानगियों की निर्लज्जतायें फिर-फिर ख्रींच लाती होंगी तुम्हें वहीं आल्या पर अभी बाकी हैं कुछ स्निग्घ स्पंदन और बौराया गुलमोहर और सघन आलिंगन...।
बेतरतीब दिनों में...
जब तुम मुझे चाहो, तो ढू्ंढना, उन बेतरतीब दिनों में उन खोई हुई तारीखों में पेड़ों की उन उदास कतारों में रीते बादलों की उमड़-घुमड़ में मैं मिलूंगी तुम्हें, तलाशती हुई हरापन पेड़ों का गुम हो गई तारीखों के खाँचों को भरे हर-हरा के बरसते बदलों की टटोलते हुये... और बुनते हुए एक सपना... धरती की स्निग्धता का...।
मेरे बाद
मेरे बाद ढूंढना मुझे तुम उन अकथ निरूपायताओं में जो तुम्हारी ओढ़ी हुई चुप से उपजी थीं और पसर गई थीं घर के कोने-कोने में कहा था मुझसे हर कोने ने आओ ्र, मैं तुम्हें तुम्हारे अंदर बहते सोतों से मिलवा दूँ लंबी सरपट सड़क पर तुम्हारी अंतहीन दौड़ पर ले चलूं निकालो न उन इन्द्र धनुषी पंखों को जो, छुपाये फिरती हो, वो कटे नहीं हैं बस छुपे है छुओ न उन्हें... इस तरह हर कोने ने मुझसे कनबतियाँ की हैं वहाँ जाना वहाँ मिलेंगे तुम्हें मेरे सपने उन्हें चुन लेना वहाँ मिलेगा तुम्हें मेरा बरसों का दबा गुस्सा उसे पी लेना प्यार का एक लबलबाता सोता भी होगा थोड़ा भींग लेना घर में तैरती मिलेंगी कुछ अलिखित चिट्ठियां जिनके हर शब्द हर पंक्ति वे बीच गसी हुई है कुछ ऊष्ण सांसे कुछ थकान से भरी बोझिल नि:श्वासें उन्हें पढऩा और डाल लेना अपनी दायीं जेब में जहाँ बड़ी बेसब्र प्रतीक्षा है तुम्हारी उंगलियों की छुअन की इस तरह छू लेना तुम मुझे मेरे बाद और होंगी बहुत सी बेसिर-पैर की बातें उन्हें सुन लेना कभी-कभी बेवजह भी बन जाती हैं वजहैं जीने की...
भारती वत्स जीविका के लिए प्राध्यापक हैं उनकी कवितायेँ पहली बार प्रकाशित हो रही हैं जबलपुर नगर की सक्रिय सांस्कृतिक कार्यकर्त्ता हैं संपर्क : मो - 9407851719 |