पाँच कविताएं - विवेक चतुर्वेदी
विवेक चतुर्वेदी
कविता
ताले... रास्ता देखते हैं
चाबियों को याद करते हैं ताले दरवाज़ों पर लटके हुए... चाबियाँ घूम आती हैं मोहल्ला, शहर या कभी-कभी पूरा देस बीतता है दिन, हफ्ता, महीना या बरस और ताले रास्ता देखते है।
कभी नहीं भी लौट पाती कोई चाबी वो जेब या बटुए के चोर रास्तों से निकल भागती है रास्ते में गिर, धूल में खो जाती है या बस जाती है अनजान जगहों पर।
तब कोई दूसरी चाबी भेजी जाती है ताले के पास उसी रूप की पर ताले अपनी चाबी की अस्ति को पहचानते हैं
ताले धमकाए जाते हैं, झिंझोड़े जाते हैं, हुमसाए जाते हैं औजारों से, वे मंजूर करते हैं मार खाना दरकना फिर टूट जाना पर दूसरी चाबी से नहीं खुलते।
लटके हुए तालों को कभी बीत जाते हैं बरसों बरस और वे पथरा जाते हैं जब उनकी चाबी आती है लौटकर पहचान जाते हैं वे खुलने के लिए भीतर से कसमसाते हैं पर नहीं खुल पाते, फिर भीगते हैं बहुत देर स्नेह की बूंदों में और सहसा खुलते जाते हैं उनके भीतरी किवाड़ चाबी रेंगती है उनकी देह में और ताले खिलखिला उठते हैं।
ताले ताबियों के साथ रहना चाहते हैं वो हाथों से, दरवाजे की कुंडी पकड़ लटके नहीं रहना चाहते वे अकेलेपन और ऊब की दुनिया के बाहर खुलना चाहते हैं चाबियों को याद करते हैं ताले वे रास्ता देखते हैं।
पिता की याद
भूखे होने पर भी रात के खाने में कितनी बार, कटोरदान में आखिरी बची एक रोटी नहीं खाते थे पिता... उस आखिरी रोटी को कनखियों से देखते और छोड़ देते हममें से किसी के लिए उस रोटी की अधूरी भूख लेकर जिए पिता वो भूख अम्मा... तुझ पर और हम पर कर्ज है।
अम्मा... पिता कभी न लाए कनफूल तेरे लिए न फुलगेंदा न गजरा न कभी तुझे ले गए मेला मदार न पढ़ी कभी कोई गज़ल पर चुपचाप अम्मा तेरे जागने से पहले भर लाते कुएँ से पानी बुहार देते आँगन काम में झुंझलाई अम्मा तू जान भी न पाती कि तूने नहीं दी बुहारी आज।
पिता थोड़ी सी लाल मुरुम रोज लाते बिछाते घर के आस-पास बनाते क्यारी अँकुआते अम्मा... तेरी पसंद के फूल।
पिता निपट प्रेम जीते रहे बरसों बरस पिता को जान ही हमें मालूम हुआ कि प्रेम ही है परम मुक्ति का घोष और यह अनायास उठता है मुंडेर पर पीपल की तरह।
डोरी पर घर
आँगन में बंधी डोरी पर सूख रहे हैं कपड़े पुरुष की कमीज और पतलून फैलाई गई है पूरी चौड़ाई में सलवटों में सिमटकर टंगी है औरत की साड़ी लड़की के कुर्ते को किनारे कर चढ़ गई है लड़के की जींस झुक गई है जिससे पूरी डोरी उस बांस पर जिससे बांधी गई है डोरी लहरा रहे हैं पुरुष अंत:वस्त्र पर दिखाई नहीं देते महिला अंत:वस्त्र वो जरूर छुपाए गए होंगे तौलियों में।
औरत... और औरत
ज्यादातर जो औरतें इस जलसे में हैं जिसमें औरतों की बेहतरी की बात होनी है उनके हैं बहुत उम्दा हालात ये कभी सताई नहीं गई हैं।
ये जो मादाम कर रही हैं तकरीर शायद इनके हिस्से हैं भीरू और अमीर पति, या पुरखों से मिली जायदाद, या अमीरी से उपजी ऊब।
इन औरतों की तकरीरों में तैर रहीं हैं जो औरतें बार-बार वो जलसे के एकदम पास एक बस्ती में पीटी जा रही हैं, अपने कमाए पैसे छुपाते पकड़े जाने पर मॉल में सुबह नौ से रात नौ तक काम करने वाली लड़की की पगार मामूली वजह से काटी जा रही है इसी वक्त सामने सड़क पर चल रही बस में सफर कर रही औरत की देह भीड़ और घुटन के बहाने मसली जा रही है।
मुझे कहना ही होगा कि अब औरत की बात जलसों में न हों, बात हो औरत की खुरदरी जमीन पर पानी में भीगती... धूप में झुलसती... औरत के बीच जैसे मजदूर की बात हो कारखाने में और किसान की, खेत में
मैं कविता की गुलमेंहदी को फांदकर औरत की बात सड़क के नल में जूझती औरतों के बीच से लाना चाहता हूँ चाहता हूँ कि रात भर की ज्यादती को झेलकर झुंझलाई औरत जब ठेकेदार को कह उठे - मादरचोद तो इसे आप्त शब्द माना जाए विश्वविद्यालय में चलने वाले अखण्ड सेमीनारों में आदृत संदर्भ की तरह किया जाए संदर्भित।
ये याद रखा जाए कि औरतों के बीच भी कुछ औरतें हैं जो औरतें नहीं हैं वे हैं हाकिम, हुक्काम या मादाम... इनका कोई जेंडर नहीं है
तो बात केवल आदमी के बरक्स औरत की नहीं है बात औरत के बरक्स भी औरत की है बात तो वही ताकतवर और मज़लूम की है और बात उस औरत की आजादी की है जो मुल्क की आजादी के बाद भी हालात के ताबूत में कैद है।
स्त्रियाँ घर लौटती हैं
स्त्रियाँ घर लौटती हैं पश्चिम के आकाश में उड़ती हुई आकुल वेग से काली चिडिय़ों की पांत की तरह।
स्त्रियों का घर लौटना पुरुषों का घर लौटना नहीं है, पुरुष लौटते हैं बैठक में, फिर गुसलखाने में फिर नींद के कमरे में स्त्री एक साथ पूरे घर में लौटती है वो एक साथ, आँगन से चौके तक लौट आती है।
स्त्री बच्चे की भूख में रोटी बनकर लौटती है स्त्री लौटती है दाल-भात में, टूटी खाट में, जतन से लगाई मसहरी में, वो आँगन की तुलसी और कनेर में लौट आती है।
स्त्री है... जो प्राय: स्त्री की तरह नहीं लौटती पत्नी, बहन, माँ या बेटी की तरह लौटती है स्त्री है... जो बस रात की नींद में नहीं लौट सकती उसे सुबह की चिंताओं में भी लौटना होता है।
स्त्री, चिडिय़ा सी लौटती है और थोड़ी मिट्टी रोज पंजों में भर आती है और छोड़ देती हैं आँगन में, घर भी, एक बच्चा है स्त्री के लिए जो रोज थोड़ा और बड़ा होता है।
लौटती है स्त्री, तो घास आँगन की हो जाती है थोड़ी और हरी, कबेलू छप्पर के हो जाते हैं ज़रा और लाल दरअसल एक स्त्री का घर लौटना महज स्त्री का घर लौटना नहीं है धरती का अपनी धुरी पर लौटना है।
1969 जबलपुर का जन्म। मुख्य शिक्षा ललित कला में स्नातकोत्तर तक। हिन्दी के श्रेष्ठतर ब्लागों में सृजनात्मक उपस्थिति। कई लघु फिल्मों का निर्माण। कवि मानता है कि कविता और कलाएं एक प्रकार से बेहतर मनुष्य की खोज हैं। विवेक जीवन संघर्ष और सहज भावनाओं के कवि हैं। संपर्क - मो. 9039087291/7987819390, जबलपुर
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