कविताएं - शोभा सिंह
शोभा सिंह
कविता
इति
खूब गहरी लकीर सा खींचा वापसी का सवाल हां अब नहीं - बस इति एक जंगली फूल के मानिंद खिलना और मुरझाना अच्छा है उदास शामों में जब दिन डूब जाता है उसके साथ ही काली रात का खौफ डैने पसारता थपकी देती है सिरहाने की हवा कल सुबह की लाली जब फैलेगी तुम्हारा अपना कोना भी तो लाल दहक से जागेगा लाल उजास जीवन है अन्तर का अंधेरा जाल समेट लेगा नदी जल में सुबह सी हंसी धीमे धीमे उतरेगी और काली स्लेट पर लिखे अप्रिय शब्द जल में धुल जाएगें।
कीमोथेरेपी के बाद
इस कमरे की सारी हवा सांसों में भर ली है अब शेष कार्बन है दीवारों पर, किताबों पर शीशे पर काले निशान अपने को मुक्त करने की गुहार करते हुए बीमार शाम बेचैनी से चहलकदमी करती यहां से वहां कदम गिनते फिर खिड़की पर ठिठक ऊब के धब्बे छुड़ाती अटक जाती कहीं कोई रील यादों के करंट से बेहाल होती देह झनझनाते पैरों की कमजोर कम्पन्न के पास ठहर जाती थकान स्मृति की कौंध जाड़े की पीली धूप मुलायम भंगिमा स्निग्ध चेहरा कमजोर पड़ता मन
रात के आगोश में जाने से पहले हवा की हल्की खुनक भर देती उसमें जान फिर करवट लेती सितारों की चमक पतले-से चांद को देख मुक्ति की फीकी मुस्कान
भीतर धंसी उस शाम को खींच कर बाहर निकालती अन्तराल शायद लम्बा हो जाता तब तक हाथों में आ जाता बालों का लम्बा गुच्छा दुख अकेले का अबोला समय के बारीक तारों से कटते देखना कठिन है
पहले की यात्राएं उसके अंदर आकर टूटती हैं जर्जर शरीर में बच्चों-जैसा मन कैसे और क्यों बूझे कोई यह जिजीविषा यातना और ऐसा मन बसंत किस काम का अतल गहराई में डूबता है खंडित जहाज का भग्न अंश धीरे-धीरे
शोभा सिंह कवि और संस्कृतिकर्मी हैं। 1952 का जन्म इलाहाबाद में। लखनऊ में रहती हैं और एक कविता संग्रह 'अद्र्ध विधवा'गुलमोहर किताब से 2014 में प्रकाशित। पहल में पहली बार। मो. 9717779268
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