आसिफ़ा के नाम एक कविता और पाँच अन्य कविताएँ
असद ज़ैदी
आसिफ़ा के नाम
सलाम अरे आसिफ़ा! तुमको मेरा और तुम्हारी ख़ाला का सलाम पहुँचे! चुन्नो और नवाब भी सलाम कहते हैं... ये हमारे बच्चे नहीं, तुम भी इनको नहीं जानती... पर हैं बड़े ना-अहल। तमाम नालायक़ बच्चों का सलाम पहुँचे तुम्हें और तुम्हारे घोड़ों को वे जलन से मरे जाते हैं घोड़ों को हरी चरागाह को तुम्हारी आज़ादी को देख कर।
अगर ये पहुँच गए तुम्हारे पास तो खूब कोहराम मचाएँगे चरागाह मैं दौड़ लगाएँगे घास को रौंद डालेंगे उन्हें क्या मालूम घास का कडिय़लपन और दानाई।
अगले व$क्तों के बुज़ुर्गों का तुमको प्यार—मीर-ओ-सौदा का नज़ीर-ओ-अनीस, मिर्ज़ा नौशा, अन्तोन और अल्ताफ़ का और बीसवीं सदी के तुम्हारे लोग, उनका—नाज़िम, पाब्लो, फेदेरीको, बर्तोल्त, रवि, फैज़, गजानन का मक़बूल, अमीर, महमूद, थियो यूनानी-ओ-अब्बास-ए-ईरानी का उदास और मनहूस फ़रिश्तों—सेसर, फ्रांत्स, पाउल का शक्की पर रहमदिल—सआदत, रघुवीर, तदेऊश का और हर िकस्म की पुरानी ख़वातीन का—आन्ना, रोज़ा, अनीस, मरीना, ज़ोहरा, विस्वावा, अख्तरी, बाला, कमला, मीना, गीता, नरगिस, स्मिता... फेहरिस्त है कि ख़त्म होने को नहीं आती।
तुमने इनमें किसी का नाम नहीं सुना, ये भी तुम्हें कहाँ जानते थे! तो मामला बराबर। सब कह रहे हैं, भई, अदब के घर में आसिफ़ा के लिए अम्नो-अमान!
जो बात हो प्यार की हो—चंचल, शोख़, संजीदा, ख़ामोश और मुर्दा। प्यार तो प्यार है... खोया प्यार भी हमेशा प्यार ही रहेगा। बहुत बदनसीबी देखी है इन बुज़ुर्गों ने, पर तुम्हें देखकर सब खुश होंगे सआदत हसन कहेंगे लो यह आई हमारी नन्ही शहीद!
खुशनसीब लोगों का िकस्सा कुछ और है—जिन्होंने मैदान मारा वही ना-खुश हैं। साल उन्नीस सौ सैंतालीस... अक्टूबर और नवम्बर के वो दो महीने। एक दिन शुमार मे जो इकसठ थे, दो हफ्तों में चालीस से नीचे आ गए— ऐसा था डोगरा राज का जनसंख्या प्रबंधन। मृतक—दो लाख सैंतीस हज़ार, उजड़े और लापता—छह लाख। तुम्हें मालूम है कौन था हरि सिंह और वो मेहर चन्द, प्रेम नाथ, यादविन्दर सिंह...? कोई बात नहीं—वे सब जा चुके हैं अब, सारे कातिल, और उनके गुर्गे। उनकी औलाद अब खुद को मज़लूमों में गिनती है। ये लोग कहते हैं हम दुखी हैं, हम वंचित हैं। दरअस्ल वो सच कहते हैं। कैसी तकलीफों में गुज़री है कर्णसिंह की ज़िन्दगी! कहो तो सब करते हैं हा हा हा! अब मनहूस महबूबा ही को देखो— वह नहीं समझ पाती कि हर आफ़त हर बला हर जुर्म उसी के माथे पर क्यों मढ़ दिया जाता है उसने किया क्या है, क्यों हर शै और हर शख्स उसे ना-खुश करने को आमादा है!
और हाँ आसिफ़ा, उस अलबेले अरिजीत सेन कलाकार को अपना समझना वह अजीबो-गरीब तुम्हें चरागाह में मटरगश्ती करता दिखाई देगा अपने किसी घोड़े को बता देना उसके पास जाकर शराफ़त से हिनहिनाए जब वह तुम्हारे घर के पास से गुज़रता हो तो उसे रोककर कहना सिगरेट बुझा दे और उसके हाथ में थमा देना साफ़ पानी का एक गिलास। 24.4.2018
वही जीवन फिर से
कितने लोग हैं इस दुनिया में जिन्होंने गाहे बगाहे रोककर कभी मुझसे कहा—ऐ भैया ...
किसी ने बस रास्ता पूछा एक औरत ने आधी रोटी माँगी या कहा कि बीमार है छोरी, किसी डागदर से मिलवा दे किसी ने इसलिए पुकारा कि मुड़के देखूँ तो मेरी शक्ल देख सके आँखें मिचमिचाए और कहे भैया तू कहाँ कौ है इनमें से कुछ तो कभी के गुज़र गए कुछ अभी हैं कैसे जानूँ कौन भूत है कौन अभूत दानिश को इससे क्या कि सब रस्ते में हैं
दो पीढ़ी बाद अक्सर कोई बता नहीं पाता मामला क्या था जिस रजिस्टर में टूट फूट दर्ज हुई वह बोसीदा हो चला कागज़ भी तो जैविक चीज़ है स्याही-क़लम-दवात से बहुत कुछ लिखा गया 01010101 में तब्दील नहीं हुआ और जान लीजिए कागज़ पत्तर भले कुछ बचे रहें 01010101 को छूमंतर होते ज़रा देर नहीं लगेगी मरणशीलों में सबसे मरणशील है यह बाइनरी कोड
दुनिया के अंत के बारे में कोई नहीं जानता सब उसके आरंभ के पीछे पड़े रहते है धर्म हो चाहे वाणिज्य और विज्ञान मिल-जुल के हम सब सब कुछ तबाह किये दे रहे हैं इस विनाश की सामाजिकता इसका मर्म इसके भेद अभेद ज़रूर किसी दैवी मनोरंजन का मसाला हैं तुम देख लो सभी तो यहाँ बैठे हैं सारे यज़ीद, िफरऔन, कारून, इबलीस, दज्जाल... तुम पूछती थी या अल्लाह क्या अब हमारा क़ब्रिस्तान भी हमसे छीन लिया जाएगा व$क्त आने पर मैं कहाँ जाऊँगी...
ऐसी ही मरी रहना अब, मेरी आपा सुकून की नींद भी ऐसी ही होती है बना रहेगा तुम्हारा कथानक वैसा जैसा कि तुम छोड़कर गयीं और न आना जीने के लिये वही जीवन फिर से 22.11.2017
नया रिपोर्टर
एक दिन में दो हास्य कवियों का निधन! अब इसपर रोना भी हँसने जैसा ही होगा। रोज़ी रोटी तो उनकी खूब चली कविता से पर ढंग के तीन मृत्युलेख भी न छपे अख़बारों में।
संस्कृति सम्पादक कुछ संवेदनशील टाइप के थे इंदिरा गाँधी का ज़माना था कहा दोनों के घर जाकर कुछ रिपोर्ट बना लाओ।
पहले हास्य कवि की विधवा से मैंने पूछा— कैसे बने मुकुट जी हास्यकवि? बोली, हम बहुत निर्धन थे धर्मयुग के पारिश्रमिक से महीने में तीन दिन का आटा न आता था। हम रेडियो पर हास्य कवियों को सुना करते थे। एक दिन हमनें इनसे कहा— आप भी यह रास्ता पकड़ लो आमदनी का कुछ ज़रिया निकल आएगा, रेडियो-टी वी पे आओगे तो कवि-सम्मेलनों में भी बुलावे आने लगेंगे। इन्हें कुछ सद्-बुद्धि आई भगवान ने हमारी सुन ली। —भगवान ने सुनी कि मुकुट जी ने आपकी सुन ली? मैंने पूछा तो उसने ज़रा सर हिलाया और चुपचाप मुस्कुराई। अच्छा ये बताइये, मैंने पूछा, आपके पति के जीवन का सबसे अच्छा क्षण कौन सा था? उसने कहा—रघुवीर सहाय को इनकी भाषा पसन्द थी एक बार फोन करके कहा—मुकुट बिहारी तुम्हारी तहरीर इतनी अच्छी है, बोल इतने सुघड़, पर विषय बड़े लचर... ये बोले—रघुवीर जी आपको मैं क्या बताऊँ... रघुवीर जी ने कहा—कुछ मत कहो, हाँ यह बताओ शांति कैसी हैं? बस भैया, ऐसी ही मामूली सी बातें हैं जिन्हें ये मूल्यवान समझते थे।
अब क्या करेंगी मैंने पूछा। बोली—कुछ नहीं। बच्चों के बच्चे हैं, उन्हीं से दिल लगाउँगी।
दूसरे कवि—अनोखेलाल 'ख़फ़ा’—की विधवा स्वर्णलता से मैंने पूछा आपके अपने पति के बारे में वास्तविक विचार क्या हैं? उसने मुझे घूरकर देखा पूछा—किस अख़बार से आये हो किस स्कूल के पढ़े हो? तुम्हारी उम्र कितनी है? अपना नाम बताओ—पूरा! मैंने कहा—सॉरी मै’म! मैं नया हूँ अभी सीख रहा हूँ... मै’म फिर से रि-स्टार्ट करते हैं... बोली—तुम्हें कैसे पता मैं टीचर हूँ मैंने कहा—मै’म मुझे बिल्कुल नहीं पता! तब उसने कहा चलो तुम्हें कुछ बताती हूँ।
इनका नाम अनोखेलाल 'ख़फ़ा’ नहीं सोहनलाल काबरा था शादी के दो साल के भीतर ही दफ्तर में झगड़ा किया और नौकरी छोड़ दी आवारागर्दी करने लगे और हास्य कविता का चस्का लगा लिया तंग आकर मैं स्कूल की नौकरी करने लगी ये घर छोड़के जाने लगे मैंने कहा जाते क्यों हो क्या मैं तुम्हें काटने दौड़ती हूँ? तुम करो हास्य कविता, मैं रोक रही हूँ क्या? पर यह सोहनलाल काबरा नाम इस लाइन में चलने वाला नहीं।
अपनी बात के असर का पता मुझे यूँ चला कि एक साल के बाद मेरे स्कूल ने मशहूर हास्यकवि अनोखेलाल 'ख़फ़ा’ को मुख्य अतिथि के रूप में बुलाया और मैंने देखा ये तो अपने श्रीमान हैं मुझे हैरान देखकर घबराए, बोले—मुझे क्या पता था तुम यहाँ पर हो! अब क्या बताऊँ पीठ पीछे सब स्कूल में मुझे मिसेज़ काबरा नहीं मिसेज़ ख़फ़ा कहने लगे!
मैंने कहा—मै’म यह िकस्सा तो आपके शादीशुदा जीवन का रूपक हुआ! ''रूपक?’’ अरे वाह, शाबास!—वह बोली—कहाँ से सीख आए तुम यह सब! खैर, 'ख़फ़ा’ साहब की एक ख़राबी बताती हूँ। यूँ तो सफल थे, पैसा भी बहुत बटोर लाते पर ये जो चाहते थे होते होते रह जाता था मैंने एक बार कह दिया तो दुखी हुए पद्मश्री मिलते मिलते रह गया राज्यसभा में पहुँचते पहुँचते रह गए पिता भी बनते बनते रह गए हमारी बेटी भी गोद ली हुई है बेटा भी अब तो हमारी एक नवाँसी है एक नवाँसा एक पोता भी घर अपना है मेरी पेंशन भी होगी पर हाँ ख़फ़ा चले गए और मुझे लगा मै’म की आँखों में आँसू आया चाहते हैं।
4.4.2018
3/24 प्रेम वाटिका
''मुस्कुराते क्यों हो?’’ तुमने कहा, ''यह घर प्रेम ही से चला है अब तक।’’
''अभी तुम मिले देखा कितनी सुंदर बहू है मेरी वफ़ादार बेटा और इतना प्यारा सा इनका बच्चा... और फिर मैं भी यहाँ हूँ जैसा तुमने कहा— निश्चिंत, प्रसन्न और सम्पन्न दिखती विधवा!’’
मैंने घूमकर उसका घर देखा इतने बरस बाद दो दालान, उन में फलते फूलते मोगरे, अनार, हरसिंगार, मौलसरी, कचनार, करौंदा, अमरूद, गुड़हल, हरदम गदराई मधुमालती... ''क्या बिना प्रेम के इतना सब हो सकता है?’’ मैंने पता नहीं किस धुन में कहा— बिल्कुल हो सकता है सीमा, बिल्कुल हो सकता है...
क्या तुमने ज़ालिमों के बागीचे नहीं देखे... उनकी चहल पहल भरी हवेलियाँ जिनमें सदा हँसी गूँजा करती थी... अलबत्ता जहाँ नियति ने अब अपार्टमेंट बना दिए हैं।
''हूँ...’’, उसने कहा, ''और तुम्हें क्या क्या याद है?’’
मैंने कहा, कुछ नहीं इतना याद है तुम स्कूल में सि$र्फ एक दरजा मुझसे आगे थीं पर रौब के साथ 'ए जूनियर’ कहकर मुझको तलब किया करती थी।
''हूँ...’’, कहकर उसने पूछा, ''अपने स्कूल का क्या हाल है?’’
ठीक ही चलता लगता है—मैंने कहा—उसके चारों तरफ़ बस्तियाँ बस गई हैं, पर स्कूल का परिसर बचा हुआ है, और हाँ, पाकड़ का पेड़ अभी भी वहीं खड़ा है, मैदान के किनारे पर। बच्चों से अब वहाँ रोज़ वंदे मातरम् गवाया जाता है...
''हूँ... और तुम्हारे मालवीय नगर के क्या हाल हैं?’’
तुम्हारी ये ''हूँ...’’ की आदत अभी तक गई नहीं, सीमा!
''ऐसा नहीं है लड़के, बस तुम्हें देखकर लौट आई है।’’
और हम हँसने लगे चालीस साल लाँघ कर, हँसते हँसते लगभग निर्वाण की दहलीज़ तक जा पहुँचे।
रही मालवीय नगर की बात सो क्या कहूं ... जैसा भारत मालवीय जी चाहते थे वहाँ बसा हुआ है। 29.1.2018
अंत में एक तस्वीर
अंत में एक तस्वीर ही कोई भयानक काम करने से रोक देती है
हो सकता है कि तस्वीर किसी मानुष की हो जो फिर कभी दिखा नहीं उस प्यारे बकरी के बच्चे की हो जिसे पचास साल से तुम गोद में लिए खड़े हो अपनी ही कोई छवि जो जीना मुश्किल किए रहती है उस बरसों से $गायब मित्र की जिसने कहा था एक दिन तुम...
और वह तस्वीर तो हो पर किसी चीज़ की न हो — किसी जगह किसी लम्हे किसी शै की किसी ने जिसे लिया ही नहीं, जो कभी रही न हो लेकिन जो हर और तस्वीर को मिटाती रहती है या किसी छुपी हुई बारीक तफ़सील को ऐसे अचानक उजागर कर देती है कि —
एक लड़की कुछ सोचते सोचते रुक जाती है एक आदमी जहाँ है वहीं बैठ जाता है एक लड़का एक अजनबी से व$क्त पूछता है और अपने ही सर पर घूँसा मार देता है एक औरत फौरन ब्रेक पर पैर दबाती है पीछे से कोई बजाता है गुस्से से हॉर्न एक बच्चा बेख़बर सोया रहता है एक खम्बा गिर जाता है एक समाज नक्शे से गायब हो जाता है
एक तस्वीर है जिसका अपना जीवन है जिसे कोई बदल नहीं सकता चाहे कोई कुछ करिश्मा कर दिखाए और पूरा हिन्दुस्तान साँपों की बाँबी में बदल जाए 25.12.2017
सच्चा सोना
र. र. नहीं जानते उनकी कौन सी कविताएँ अच्छी हैं कौन सी लगभग अपठनीय मेरे मित्र न. ज. का मामला भी चौपट ही है, कहते हैं ये सब तुम्हीं बेहतर जानते हो, और श. श., ल. ट., अ. ब., न. ग., त. भ., प. च. का तो जि़क्र ही क्या इमारत और मलबे का जिन्हें फ़र्क नहीं मालूम
कहते हैं : — अरे हम कवि कैसे! यों ही कुछ लिख देते हैं... — बस यही हमसे बन पड़ता हैं... — लिखके खुद ही खुश हो लेते हैं, और क्या... — हम नालायक़ सिपाही हैं... हम किसी को मार नहीं सकते... हमारा बारूद गीला रहता है... अच्छा ही है कि हमारी गोली निशाने पर नहीं लगती
उनसे कीजिए कोई संजीदा सवाल तो पहले सन्नाटा छाता है फिर वे पूछते हैं — क्या खाओगे?
एक असाधारण रूपक भूले नहीं भूलता, लेकिन जब पूछा, यह आपको कैसे सूझा? बकौल मीर 'कुछ ख्वाब तुमने देखा?’ तो र. र. हँसे, कहा — तुम्हारे पुराने मित्र ने तुम्हारे विरुद्ध अख़बार में जो लेख लिखा हमें अच्छा न लगा... कितना शर्मनाक है! मतलब कि — 'छोड़ो, ये क्या रूपक-शूपक लेकर बैठ गए हो!’
न. ग. ने कुबूल किया कि वह अधिकतम समय किचन में रहती है और शाम को लोकल पार्क में मुहल्लेवालियों के साथ गप करने में उसे बहुत मज़ा आता है
इन सबसे काव्य-चर्चा पत्थर पर सर फोडऩा है अटक अटक कर कुछ बोलेंगे, मुँह खोलते ही दुविधा में पड़ जाएँगे, चुप हो जाएँगे
कुछ भी कहें ये कवि हैं — कि इन्होंने तकलीफ़ को जाना है ये कवियों के कवि हैं — तकलीफें भी इन्हें जानती हैं, मुश्किलें इन्हें ढूँढ़ती हुई आती हैं बहुत कुछ इन्हीं के आसरे है — ये भले ही कहें चाय पी लो, ठंडी हो रही है
कविता इनके लिए यातनागृह है कविता का सच्चा सोना भी इन्हीं के पास है आज हिन्दी ज़बान में 18.7.2017
असद ज़ैदी हमारे प्रमुख कवि। कम लिखते हैं और हमें उनकी कविताएं लंबे इंतजार के बाद मिलती है। संपर्क मो. 09868126587, गुडग़ांव
|