मुखपृष्ठ पिछले अंक बलराज साहनी और पंडित हजारी प्रसाद द्विवेदी
जुलाई २०१३

बलराज साहनी और पंडित हजारी प्रसाद द्विवेदी

प्रस्तुति : उदयशंकर



हिन्दी साहित्य का इतिहास अगर 150 साल पुराना है, तो सिनेमा का इतिहस भी 100 साल पुराना है। हिन्दी साहित्य की प्रस्तावना में इस बात पर ज़ोर रहा कि वह सामाजिक कर्तव्यबोध को अंगीकार करे, और उस समय का कर्तव्यबोध राष्ट्रवादी आंदोलन के स्वर देना था। हिन्दी सिनेमा भी कमोवेश इसी कर्र्तव्यबोध से परिचालित हुआ, और यही कर्तव्यबोध सिनेमा और साहित्य में आवाजाही की तात्कालिक वजह थी। दादा साहेब फाल्के खुद स्वदेशा आंदोलन के प्रभाव में थे। बलराज साहनी के पारिवारिक संस्कार आर्यसमाजी रहें हैं और हिन्दू धर्म-व्यवस्था के भीतर आर्यसमाजी खुद को 'पहला आधुनिक' मानता है।
1 मई 1913 के जन्में बलराज साहनी का जन्मशती वर्ष पिछले महीनों ही समाप्त हुआ है और यह संयोग ही है कि भारतीय सिनेमा का जन्मशती वर्ष 3 मई 2013 को समाप्त हुआ। इस संयोग के बड़े निहितार्थ हैं। कुछ तो बात थी, कि फिल्मों से 'व्यवसायिक जुड़ाव' को प्रेमचंद से लेकर हजारी प्रसाद जी तक 'उज्जवल पेशा' नहीं मानते थे। फिल्मों से बलराज साहनी जैसों का जुडऩा हमारे पूर्वजों का शंका-समाधान करता है, तो कहीं खरोंचे भी लगा देता है। फिल्म एक आधुनिक विधा है, जैसे कहानी और उपन्यास हैं। इसीलिए इन विधाओं की सार्थकता भी इसी में निहित है कि ये एक न्यूनतम बुज्र्वा नैतिकता की मांग करते हैं। इसका मतलब यह नहीं है कि इन तीनों विधाओं में प्रतिक्रियावादी अभिव्यक्ति संभव नहीं है, लेकिन इसके लिए एक स्तर की 'कलात्मक चालबाजी' की जरूरत पड़ती है। हिन्दी साहित्य में व्याप्त एक प्रकार की आलोचनात्मक समृद्धि ने अक्सर इन चालाकियाँ को पकड़ी है। गंभीर सिनेमा-समीक्षा के अकाल के कारण सिनेमा की चालबाजियाँ अक्सर सफल रही हैं, जिसके कारण साहित्य और सिनेमा के बीच आवाजाही में एक फांक उत्पन्न हुई।
बलराज साहनी का सिनेमा से जुड़ाव एक आधुनिक युवा बौद्धिक का जुड़ाव था। उनके जन्मशती के बहाने साहित्य-सिनेमा के बीच आवाजाही की जो परंपरा बलराज साहनी ने कायम की थी, उसको विमर्श का बिन्दु होना चाहिए। बलराज साहनी और हजारी प्रसाद जी के बीच की यह बातचीत इसी आवाजाही की प्रस्तावना थी। जिसकी पहलकदमी बलराज साहनी ने की थी। यह दखल किसी आउटसाइडर की तरह नहीं है, बलराज इसमें हिन्दी की साहित्यिक गतिविधियों के निष्णात नज़र आते हैं। यह बात-चीत पूर्व प्रकाशित है, लेकिन इस प्रस्तावना का जिक्र या उत्साही-स्वागत शायद ही कहीं मिलता है। द्विवेदी जी ने अपनी मुला$कात के 25 वर्ष पूरे होने के अवसर पर बलराज ने पत्राचार द्वारा यह बातचीत की थी। लेकिन 60 के दशक की 'नई कहानियाँ' में छपी इस बातचीत का कोई खास नोटिस नहीं लिया गया।
बलराज और हजारी प्रसाद जी इस बातचीत में लगभग हामी भरते हुये, एक दूसरे की शंकाओं को सहलाते हुए दिखते हैं। बलराज साहनी घोषित कम्यूनिस्ट के हकदार माने जाते रहे हैं और पंडित जी जो कुछ भी हों लेकिन कम्यूनिस्ट नहीं थे। बातचीत का बड़ा हिस्सा मार्क्सवाद को लेकर है और मार्क्सवाद की हिन्दी साहित्य  में प्रचलित प्रविधियों से दोनों नाखुश हैं। हिन्दी की क्लासिक कहानी 'कफन' को दोनों इसी प्रविधि से प्रभावित कहानी मानते हैं। इनका मानना है कि इस कहानी से साम्राज्यवादियों द्वारा भारत की 'प्रचारित-छवि' को हवा मिलती है। वे इसे प्रेमचंद की एक 'गौण कहानी' की संज्ञा देते हैं।
जैसा कि विष्णु खरे ने 1 मई के नवभारत टाइम्स में लिखा है - ''प्राण को दादासाहेब फाल्के सम्मान देना सही हो सकता है लेकिन बलराज को वह इसीलिए नहीं दिया गया कि वे कम्युनिस्ट थे तो वह सरासर अन्याय है।'' कफन को कमतर  आँकने में भी कहीं अनजाने यही तर्क तो काम नहीं कर गया कि प्रेमचंद ने 'प्रगतिशील लेखक संघ' के पहले अधिवेशन का उद्घाटन भाषण दिया था।
इस आत्मीय बातचीत में व्यक्तित्व की जो प्रांजलता दिखती है, वह आज छीजते-छीजते दुर्लभ ही हो गयी है। व्यक्तित्व की इस प्रांजलता के कारण ही लगता है कि ये दोनों महान विभूतियाँ अपने अंतर्विरोधों के साथ इस वार्तालाप में प्रस्तुत हैं और ऐसे अंतर्विरोध भी भावी पीढिय़ों के लिए थाती हैं।

पण्डितजी,

हमारी जान-पहचान को अब 25 बरस से अधिक समय हो चुका है। समय की इस बड़ी-सी गठरी का यह तकाज़ा है कि हम सीधी दिल की बात सच्ची और खरी-खरी एक-दूसरे के साथ कहने से न झिझकें। आपकी स्पष्टवादिता से मुझे और अन्य पाठकों को भी लाभ पहुँचेगा। इसी आशा से मैंने 'नई कहानियाँ' के प्रश्नोत्तरी आमन्त्रण को स्वीकार किया है। अब आपसे पहला सवाल पूछता हूँ। आशा है आप मेरी विनम्र विनती पर ध्यान देंगे।
शान्तिनिकेतन में आपने मुझे पहली बार जुलाई 1937 में देखा था। मैं कलकत्ता से अपने मित्र स.ही. वात्स्यायन का आपके नाम परिचय-पत्र लेकर आया था। आप उन दिनों हिन्दी भवन की इमारत की तकमील का इन्तज़ार कर रहे थे और किसी दूसरे घर में रह रहे थे। वह घर मुझे याद नहीं आ रहा है, धुँधला-सा याद आता है, क्षिति दा के घर के कहीं  निकट था, बताने की कृपा करें। ठीक मकान को याद करके मुझे और भी बहुत-सी बातें याद आएँगी।
जिस समय मुझे नौकरी दी गई थी, उस समय शान्तिनिकेतन की आर्थिक स्थिति बहुत-कुछ गिरी हुई थी। मुझे रख लेने की गुरुदेव की उदारता और आपके हामी भरने पर अन्दर-ही-अन्दर प्रबन्धकों की ओर से विरोध किया गया होगा। क्या सचमुच ऐसा कोई विरोध उठा था? आपने उसका कैसे मुकाबला किया? मेरे अध्यापक बनने के तीसरे या चौथे दिन बोलपुर की हिन्दी सभा के तुलसी जयन्ती समागम के लिए आपने मुझे सभापति बनाकर भेज दिया, जबकि आपको तब तक मालूम हो चुका था कि मेरा हिन्दी-साहित्य या विशेषकर तुलसी-साहित्य के सम्बन्ध में परिचय न के बराबर था। क्या आपको उस समय खयाल नहीं आया कि मैं उन लोगों के सामने अपनी मूर्खता का प्रदर्शन करके शान्तिनिकेतन और हिन्दी विभाग को भी लज्जित करूँगा? आपने मुझे क्यों भेजा, चन्दोलाजी को क्यों नहीं भेज दिया?
उन दिनों आपको यह भी ज्ञात हो चुका था कि अंग्रेजी को छोड़ मैं भारत की किसी भाषा में भी सहज प्रवाह के साथ नहीं बोल सकता था, अपनी मातृभाषा पंजाबी में भी नहीं। यदि आप मुझे छोटी कक्षाएँ दे देते तो मैं काम-चलाऊ भला बुरा अध्यापक बन जाता। पर आपने तो पड़ते ही मुझे बी.ए. फाइनल क्लास को हिन्दी उपन्यास पर व्याख्यान देने पर लगा दिया। क्या आपका विचार था कि अपनी अयोग्यता का उचित एहसास जल्दी हो जाने से मैं शान्तिनिकेतन छोड़कर भाग खड़ा होऊँगा?
या क्या मैं इस अयोग्यता को जल्दी-से-जल्दी दूर करने में जुट जाऊँगा?
आपको याद होगा जब मैं यह क्लास ले रहा होता था तो आप विद्या भवन की खिड़की में बैठे दूर से मेरी वेदना देख रहे होते थे। उस समय आपके मन में कौन से विचार उठ रहे होते थे?
मेरे सौभाग्य से आपकी और भगवतीप्रसाद चन्दोलाजी के स्नेह-भरे प्रोत्साहन से मेरी नाव डूबने से बच गई थी। फिर भी आपने देखा होगा कि उस अल्हड़ उम्र में मेरे दिमाग पर अंग्रेज़ी साहित्य ही छाया हुआ था। हिन्दी तो दूर, मैं बंगला और स्वयं गुरुदेव के साहित्य को भी किसी गिनती में नहीं लाता था। फिर आपने यह भी देखा होगा कि हिन्दी की तुलना में मैं उर्दू का ज्यादा प्रशंसक था। क्या इस बात पर आपको गुस्सा नहीं आता था। अगर आता था तो आपने कभी जाहिर क्यों न किया?
यह आखिरी सवाल शायद आपके लिए मुश्किल होगा, पर चिन्ता न करें, अगर आपने 25 प्रतिशत नम्बर भी हासिल कर लिये तो मैं आपको पास कर दूँगा (आपकी उन दिनों मेरे प्रति की गई लिहाजदारियों को ध्यान में रखते हुए)।
आपको याद होगा 1937-38 के दिनों में एक प्रगतिशील आन्दोलन चला था। आपकी उसके साथ कोई सहानुभूति नहीं थी। इसका कारण उस समय मेरी समझ में नहीं आता था। पर अब मैं उस समय के आपके दृष्टिकोण की सच्चाई को अधिक गम्भीरता से समझ सकता हूँ। वास्तव में अपने को अपने देश के प्राचीन संस्कृति-पक्ष से काट लेने में ही प्रगतिशील साहित्य-सर्जना के प्रथम लक्षण देखने में आए थे। इन लोगों का चिन्तन अँग्रेजी साहित्य के नवीनतम प्रयोगों की नकल करना चाहता था, पर देश की राजनीतिक दासता इसे खुलेआम अंगीकार करने के रास्ते में बाधक थी। इसी कारण उन्होंने अपने अचेतन मनोरथ को छिपाने के लिए ऊपर से मार्क्सवाद का मुलम्मा चढ़ा लिया था, हालाँकि उस समय उनका क्रियाकलाप मार्क्सवाद के सिद्धान्तों के साथ कहीं भी मेल नहीं खाता था। वर्ग-भेद और वर्ग-संघर्ष का नारा बुलन्द करने के पीछे भारत के मज़दूर-किसान के जीवन को और स्वतन्त्रता-संग्राम में उनकी प्रभावशाली भूमिका को यथार्थ और रचनात्मक ढंग से आँकने की कोई भावना नहीं थी, बल्कि इस बहाने समाज की गन्दगी और निम्न वर्ग के जीवन को कुरूप तथा विकृत रूप में उछाला गया।
प्रेमचन्द की कहानी 'कफन' की, जो कुछ लोग कहते हैं कि प्रेमचन्द ने इन्हीं प्रगतिवादियों के प्रभाव के नीचे लिखी थी, उन दिनों खूब वाह-वाह की गई थी। मुझे याद है कि आपको यह कहानी तनिक भी पसन्द नहीं थी, और आप इसे प्रेमचन्द के साहित्य का सगुण प्रतीक मानने के लिए बिलकुल तैयार नहीं थे।
आज इतने सालों के बाद मैं इस बात को अपना कर्तव्य समझ स्वीकार करना चाहता हूँ कि आप सच कह रहे थे। 'कफन' प्रेमचन्द की एक गौण कहानी है, जिसमें उन्होंने पहली बार अपने देश के मनुष्यों को ऐसे ढंग से पेश किया है जिससे भारत-निन्दक मिस मेयो के नक्शेकदम पर चलने वाले साम्राज्य-समर्थक अंग्रेज, अमरीकी और पश्चिमी लेखकों के बयानों को समर्थन मिलता है।
ऊपर मैं उस वक्त के अपने पिछले और अंग्रेज़ी-परस्त साहित्यिक दृष्टि-कोण का वर्णन कर चुका हूँ। प्रगतिवादी धारा से एकदम और बिना सोचे-समझे प्रभावित हो जाने का अपने बारे में यही कारण मेरी समझ में आता है।
उपरोक्त उच्छृंखलता उस ज़माने के प्रगतिवादियों के व्यक्तिगत जीवन में भी छलकती थी।
इन बातों को घटे एक युग बीत चुका है। मैं यह भी जानता हूँ कि अपने को प्रगतिशील कहने वालों में बहुत से अब भी वैसे हैं जिन्होंने अपने पुराने कुसंस्कारों से अपने को मुक्त नहीं किया है। उन्होंने इस संस्था को केवल एक गुर के रूप में इस्तेमाल किया है, और उनकी असफता साहित्य-क्षेत्र में उनकी गौण उपलब्धि से स्पष्ट हो जाती है।
पर कुछ ऐसे भी है जिन्होंने समय के साथ-साथ अपने साहित्य मूल्यों को सच्चाई और निडरता के साथ जाँचा है और परीक्षण किया है, और उत्तम, सजीव साहित्य निर्माण करने की दिशा में अग्रसर हुए हैं। उन्होंने नेहरू की भाँति गहराई से अनुभव किया है कि मार्क्सवाद वास्तव में साहित्यकार को अपने देश की परम्पराओं से काटना नहीं सिखाता, बल्कि उसके साथ जोडऩा और उनके उत्तम अंशों को निखारना और विकसित करना सिखाता है। यह हमारे प्राचीन दर्शनशास्त्र का दुश्मन नहीं है, बल्कि उसी के गर्भ में से जन्म लेनेवाला एक नवीन दर्शन है, जिसके अन्दर आज के ज़माने का युगसत्य कहलाने की सामथ्र्य है। मार्क्सवादी विचारधारा, कट्टरपन्थी गुटबन्दियों की मित्र नहीं बल्कि सख्त दुश्मन है। रूढि़वाद और मार्क्सवाद का आपस में कोई मेल नहीं है।
साहित्य-साधना भी एक पवित्र तीर्थ है। यहाँ व्यक्ति राग-द्वेष से रहित होकर ही सत्यं, शिवं, सुन्दरं के साथ अपनी वृत्तियों का मेल बिठा सकता है। यदि इन विचारों से व्यक्ति मुक्त न हो तो अपना भी उतना ही नुकसान कर बैठता है जितना दूसरे का। और एक पुराने मित्र की हैसियत से मैं यह कहने का साहस किये बिना नही रह सकता कि व्यक्ति-पक्षपात में फँसकर हम सबने अपना बहुत-सा नुकसान किया है और अपने वास्तविक लक्ष्य से दूर चले गये हैं। मैं आपसे पूछना चाहता हूँ: आप प्रगतिवाद को अब किस रूप में देखते हैं? क्या आपके मन में अब भी प्रगतिवाद के प्रति उसी प्रकार की अरुचि है? क्या आप समझते हैं कि हिन्दी-साहित्य के क्षेत्र में वादविवाद और व्यक्तिगत गुटबन्दी समाप्त हो सकती है? मैं समझता हूँ कि ऐसा हो सके तो हिन्दी साहित्य बड़े लम्बे डग भरकर केवल भारत के ही नहीं बल्कि संसार-भर के साहित्य के साथ बड़े थोड़े काल में शाना-ब-शाना खड़ा होने के योग्य हो सकता है, और मैं यह भी कहने का साहस करता हूँ कि इस शुभ काम में आप, अज्ञेय, पन्तजी और यशपालजी जैसे प्रतिभाशाली और अनुभवी व्यक्ति बहुत बड़ी भूमिका अदा कर सकते हैं। नई पौध को इन समस्याओं और विचारों से बचा सकते हैं जिनमें से हमारी पीढ़ी गुज़री है। आप अपने जीवन-अनुभव के आधार पर उनका मार्गदर्शन कर सकते हैं। मैं स्वयं मुद्दत से साहित्यिक क्षेत्र से बहुत-कुछ बाहर रह रहा हूँ, बल्कि यह कहना ज्यादा सही होगा कि मार्क्सवाद और गुरुदेव टैगोर के शिक्षण, दोनों ने मिलकर मुझे अपनी मातृभाषा पंजाबी के चरणों में भेज दिया है, पर हिन्दी साहित्य के साथ मेरा पुराना प्यार है, और उसे विकास पाते देखने की मेरी आन्तरिक अभिलाषा है। इसीलिए आपसे यह कठिन प्रश्न पूछा है। आशा है सवाल की लम्बाई के लिए आप मुझे क्षमा कर अपने गम्भीर और धैर्यपूर्ण स्वभाव के अनुसारउत्तर देने का कष्ट करेंगे।
विनीत
नवम्बर, 1965    बलराज



प्रिय भाई बलराज जी,

आपकी लम्बी प्रश्नावली भाई भीष्मजी ने मेरे पास भेजी है और अनुरोध किया है कि मैं उसका जवाब लिखकर उन्हें भेज दूँ। इन प्रश्नों का उत्तर देने के पहले थोड़ा भूमिका के रूप में कह लेना इसलिए आवश्यक है कि आपने अपनी प्रश्नावली की भूमिका में कुछ डरा देनेवाली बातें लिख दी हैं। बहुत जल्दी ही हम दोनों के परिचय के तीस वर्ष पूरे हो जाएँगे। इस बीच हम दोनों में थोड़ा-बहुत परिवर्तन भी हुआ ही होगा, लेकिन इन प्रश्नावली को देखकर ऐसा लगता है कि आप कुछ अधिक बुद्धिमान हो गए हैं और मैं जहाँ-का-तहाँ हूँ। आपकी बुद्धिमत्ता का पहला प्रमाण यह है कि बातचीत करने से पहले आपने शर्त लगा दी है कि बातें खरी-खरी होंगी, अर्थात् कोई बाद में अपनी कही बात से मुकर नहीं सकेगा। आजकल अखबारों में विभिन्न दलों और देशों के नेताओं में हुई बातचीत के जो विवरण छपते हैं उनमें इस प्रकार की शर्त प्राय: देखी-सुनी जाती है, अर्थात् यह परिपक्वता का लक्षण है। इससे पहले आपसे हमारी बीसियों बार बातचीत हो चुकी होगी, लेकिन, न कभी आपने और न मैंने खरी-खरी बात करने की प्रतिज्ञा की। ''बहु धनु ही तोर्यों लरिकाई, कबहुँ न अस रिस कीन गुसाई!'' मगर मेरे प्यारे बलराजजी, मैं अब भी यह मानता हूँ कि खरी-खरी कहने की शपथ लेना कोई अच्छी बात नहीं है। जो आदमी बार-बार शपथ खा रहा हो कि मैं साफ-साफ कह रहा हूँ, उसका दिल साफ है कि नहीं, इसके बारे में मुझे बराबर सन्देह रहता है। मेरे अन्दर तो अब यह परिवर्तन हुआ है कि मैं मानने लगा हूँ कि सच्ची सच्चाई जैसी खरी कभी होती ही नहीं जैसी खरी कहने की कसम खानेवाले सोचा करते हैं। बहुत पुराने जमाने में वैदिक ऋषि ने अनुभव किया था कि विधाता ने सत्य का मुख सुनहरे ढक्कन से ढँककर रख दिया है। मनु ने बताया था कि सत्य प्रिय होना चाहिए, यही सनातन धर्म है। सो आपके प्रश्नों का उत्तर देते समय अगर मैं कोशिश करूँ कि यथाशक्ति सनातन धर्म की अवहेलना न करूँ तो क्षमा कीजिएगा। बस, इतनी-सी भूमिका के बाद मैं अब मूल विषय पर आ रहा हूँ।
सन् 1937 में आप जब अज्ञेयजी की चिट्ठी लेकर आये थे तो मैं क्या कर रहा था, यह मुझे याद नहीं। लेकिन इतना मुझे याद है कि आपसे थोड़ी-सी बातचीत करने के बाद ही मुझे बड़ी प्रसन्नता हुई थी और मुझे लगा था कि मेरे सामने एक सहज-स्वच्छ होनहार युवक खड़ा है, और यदि इस अवसर पर मैं इसकी सहायता कर सकूँ तो कदाचित् एक अच्छे साहित्यिक को साहित्य-जगत् को दे सकूँगा। मुझे जहाँ तक स्मरण है, आपकी कुछ कहानियाँ छपी थीं और आपने मुझे पढऩे को दी थीं। एक नाम तो अब भी याद है 'जीजाजी का स्नान'। यह मुझे बहुत अच्छी लगी थी। बाद में यह जानकर और भी प्रसन्नता हुई थी कि इस कहानी के नायक और कोई नहीं, मेरे प्रिय मित्र चन्द्रगुप्त विद्यालंकारजी थे। उन कहानियों को पढ़कर मैंने मन-ही-मन एक बड़े भावी साहित्यकार की कल्पना कर ली थी। जब आप फ़िल्म की दुनिया में चले गए तो मुझे बड़ी निराशा हुई, क्योंकि दूर-दूर से मेरी ऐसी धारणा बनी हुई थी कि फिल्मी दुनिया में साहित्यकार समाप्त हो जाता है। खरी-खरी कहने की आदत उस समय भी नहीं थी, इसलिए मैंने आपको कुछ लिखा नहीं। लेकिन आपको याद होगा कि 'दो बीघा जमीन' में आपका अभिनय देखने के बाद मैंने आपको एक पत्र लिखा था, जिसमें लिखा था कि आपने फ़िल्म-जगत् में जाने से मुझे बड़ी निराशा हुई थी, परन्तु 'दो बीघा ज़मीन' में आपका अभिनय देखने के बाद मैंने अपना विचार बदल दिया है। उस अभिनय के देखने के बाद मुझे लगा था कि अगर मैंने शुरू-शुरू में खरी-खरी कहकर आपको इस क्षेत्र में जाने से रोकने का प्रयत्न किया होता तो बड़ी गलती की होती। मुझे याद आया कि एक बुजुर्ग साहित्यकार ने आपको शुरू-शुरू में निरुत्साहित भी किया था और उपदेश की मार खाकर ही आप कलकत्ता में शान्तिनिकेतन पहुँचे थे।
खैर, यह तो अवान्तर बात हुई। शुरू-शुरू में मैंने शान्तिनिकेतन में आपको पहचान अवश्य लिया था, लेकिन अपनी ही सीमाओं के कारण मैं आपके भविष्य की कल्पना ठीक-ठीक नहीं कर पाया था। उन दिनों मैं जब किसी के भविष्य को उज्जवल समझता था, तो यही कल्पना किया करता था कि वह प्रेमचन्द, गोर्की, टॉलस्टाय जैसा कुछ होगा। अभिनय के क्षेत्र में कोई बहुत बड़ा हो सकता है, यह मेरी कल्पना नहीं थी। लेकिन मैं अब भी कभी-कभी मन-ही-मन में सन्तोष अनुभव करता हूँ कि पहचानने में मुझसे चूक नहीं हुई थी। मेरे पास उस समय आपको देने योग्य काम वहीं था। मेरा क्षेत्र सीमित था, शक्ति उससे भी अधिक सीमित। मैंने बच्चों को पढ़ाने का काम देने में बड़ी झिझक और संकोच अनुभव किया था। लेकिन आपने इसे इस प्रकार लिया जैसे चारों पदार्थ मिल गए हो आपको उस स्थान पर रखने में मुझे कोई कठिनाई नहीं हुई थी। गुरुदेव मेरी बातें मान लेते थे और आपको देखकर तो वे भी बहुत प्रसन्न हुए थे। आपको यदि बताऊँ कि आपकी 'क्वालिफिकेशन' मैंने गुरुदेव को क्या बताई थी तो आपको आश्चर्य होगा। मैंने उनसे बड़े घटाटोप के साथ कहा — ''यह लड़का पंजाब यूनिवर्सिटी से अंग्रेजी में एम.ए. है, लेकिन छोटे-से-छोटा काम करने में आनन्द अनुभव करता है। हिन्दी की परम्पराओं से एकदम अपरिचित है और इसीलिए इसके दकियानूस होने की कोई संभावना नहीं है। आश्रम में कुछ दिन रहने के बाद बहुत अच्छा साहित्यिक हो सकेगा।'' गुरुदेव का चेहरा दमक उठा, बोले, ''पका बाँस लेकर मैं क्या करूँगा? कच्चा ही अच्छा है जिसे अपने मन के अनुसार सुखाकर आश्रम के अनुकूल बनाया जा सके।''
मैं शुरू से ही ऐसा विश्वास करता आया हूँ कि हिन्दी में ऐसे नवीन प्रतिभाशाली लोगों के आने की आवश्यकता है जो विभिन्न शास्त्रीय मर्यादाओं के भीतर से गुजरे हुए हैं। केवल हिन्दी की अपनी शास्त्रीय मर्यादा के भीतर से जो लोग आये हैं वे भी साहित्य-सेवा के लिए उपयुक्त ही हैं, लेकिन वे ही एकमात्र अधिकारी हैं, ऐसा मैं नहीं मानता। आपको चुपके से यह बता देना चाहता हूँ (बिलकुल जनान्तिक में) कि मैं अपने साथियों और मित्रों को एक नारा देने लगा हूँ — ''save hindi from medrevalism'' (हिन्दी को मध्ययुगीन मनोवृत्तियों से बचाओ)। आप जिन दिनों की बात कर रहे हैं उन दिनों मेरे मन में यह बात स्पष्ट नहीं थी, लेकिन थी ज़रूर। मुझे ऐसा लगता है कि आपको चुनने में मेरे मन की भावना अवश्य काम कर रही थी। मैं चाहता था (और अब भी चाहता हूँ) कि हिन्दी के विद्यार्थी विभिन्न भाषाओं के साहित्यिक अनुशासन (डिसिप्लिन) में शिक्षित लोगों का दृष्टिकोण समझें और यदि सम्भव हो तो वे लोग भी बिलकुल संस्कार-मुक्त होकर हिन्दी की विभिन्न साहित्यिक विधाओं और व्यक्तियों पर अपना मत प्रकट करें। यही कारण है कि मैं हिन्दी के विद्याथियों के सामने बंगला, उर्दू, संस्कृत और अंग्रेजी के जानकारों को ले जाया करता था। आपसे हमारे विद्यार्थी आधुनिक दृष्टि पा सकें, यह मेरी आशा थी और निस्सन्देह मेरी आशा फलवती हुई थी। आपको हिन्दी की गतिविधि से परिचित कराना मेरा एक और उद्देश्य था और आप जब हिन्दी की लम्बी शब्द-सूची लेकर मेरे पास आते थे तो मुझे बेहद खुशी होती थी। मुझे याद है कि बोलपुर वाली सभा में सभपातित्व करने के  पहले आप तुलसीदास के बारे में जानने के लिए कितना छटपटा रहे थे। आपकी छटपटाहट से मुझे एक प्रकार का दुष्टता-भरा मजा आ रहा था। यह तो मैं कभी नहीं चाहता था कि आप शान्तिनिकेतन छोड़कर चले जाएँ। वस्तुत: आपके शान्तिनिकेतन छोड़ जाने से मुझे जितना कष्ट हुआ उतना और किसी घटना से नहीं हुआ था। लेकिन यह मेरी हार्दिक इच्छा थी कि आपके समान प्रतिभाशाली आधुनिक मनोवृत्ति के युवक को कुछ पुरानी परम्परा के रसास्वादन का भी चस्का लगा दूँ। मेरा विश्वास है कि वह चस्का, थोड़ी मात्रा में ही सही, लगा अवश्य था।
प्रिय बलराजजी, पाँचवें प्रश्न में आपने कुछ ऐसी बात पूछी है जिसका उत्तर देना वस्तुत: अपने-आपको ही समझने का प्रयास है। केवल आपके बारे में ही नहीं, और कई प्रसंगों में मैंने ऐसा पाया है कि जो लोग हिन्दी की या मेरी विचार-पद्धति की उपेक्षा करते हैं वे मुझसे बहुत अधिक प्यार पा चुके हैं। मैं भरसक प्रयत्न यह करता हूँ कि घृणा किसी से न करूँ, लेकिन मेरे जीवन में ऐसे भी बहुत-से मित्र आए हैं जो हिन्दी की उपेक्षा और मेरी विचार-पद्धति का विरोध करने के कारण मुझसे दूर हो गए हैं, अर्थात् मैं उन्हें अपना प्रेम नहीं दे सकता हूँ। बहुत-से मेरे ऐसे मित्र हैं जो मेरी बातों का विरोध करते हैं और फिर भी मेरे घनिष्ठ मित्र हैं और बहुत-से ऐसे भी हैं जो बहुत दूर तक मेरे समान विचार रखनेवाले हैं, फिर भी मैं उन्हें अपना निकट का मित्र नहीं मान पाता। इसका कारण किसी बाहरी आदर्श या सिद्धान्त में न होकर मेरी प्रकृति में ही होना चाहिए। कई बार मैं स्वयं अपने इस ढंग से परेशान हुआ हूँ, लेकिन अब मैंने समझा है कि यह बात न तो मेरा गुण है न दोष। यह स्वरूप है। स्वभाव, अर्थात् अपना भाव — something  particularly my own. आपके इस पत्र के पढऩे से पहले, मैंने इस विषय पर गम्भीरता से नहीं सोचा। आज सोचने को बाध्य हुआ। ऐसा लगता है कि मुझे जो चीज आकृष्ट करती है, ईमानदारी है। जो चीज़ मुझमें नहीं है, वह जब दूसरों में देखता हूँ तो प्रभावित होता हूँ, आकृष्ट होता हूँ। इतना और भी कह दूँ कि जिस ईमानदारी की बात कह रहा हूँ, वह मेरे अपने दृष्टिकोण से देखी हुई सच्चाई है, जिसके लिए किसी वादविवाद या बहस की गुंजाइश नहीं है। मैं समझता हूँ कि इतना कह लेने के बाद आपके प्रश्न का उत्तर देना अब आवश्यक नहीं रह गया।
आपने अन्तिम प्रश्न को स्वयं बहुत कठिन बताया है और मुझे आश्वासन दिया है कि पच्चीस प्रतिशत अंक मिलने पर भी आप पास कर देंगे। वस्तुत: यह प्रश्न उतना कठिन नहीं है। मुझे कुछ ऐसी आदत-सी पड़ गई है कि जिस बात को नहीं समझता उसके बारे में बोलता ही नहीं। परन्तु मेरे मौन रहने का मतलब विरोध प्रकट करना नहीं होता। उन दिनों प्रगतिवाद का नया आन्दोलन चला था और बात पूरी तरह से मेरी समझ में नहीं आ रही थी। मैं समझने की कोशिश कर रहा था।
जो बात मेरी समझ में नहीं आ रही थी वह यह थी कि विदेशी भाषा के माध्यम से विदेश के इतिहास से ग्रहण की हुई भावधारा को प्रकट करने वाले लोग कैसे प्रगतिवादी हुए? प्रगतिवाद को मैं इतिहास की माँग समझता हूँ। वह रटी-रटाई शब्दावली से नहीं बल्कि हमारे रक्त मांस से निकलकर ही सहज ग्राह्य हो सकता है। हमारा देश कोई नौसिखुआ देश नहीं है। हमारी सहस्त्रों वर्ष की वैचारिक परम्पराएँ हैं जिनकी जड़ें बड़ी गहराई तक गई हुई हैं। हम प्रगतिवाद के नाम पर उन दिनों जो कुछ लिख रहे थे वह हमारे लिए सहज और स्वाभाविक नहीं था। बनावटी और अलग-थलग वस्तु थी। शुरू मैं ही कह चुका हूँ कि मैं खरी-खरीवालों के दल में नहीं हूँ। इसलिऐ जो चीज अच्छी न लगे, उसके खिलाफ तुरन्त कुछ लिखकर दिल के गुब्बार निकालने में मेरा एकदम विश्वस नहीं है। सो मैं इस विचारधारा को यथाशक्ति समझने का प्रयास करता रहा हूँ और जहां तक याद है सन् 1944-45 से पूर्व उसके बारे में कुछ नहीं लिखा। जिन दिनों सभी लोग कहते थे कि 'कफन' प्रेमचन्दजी की सबसे अच्छी कहानी है, दिनों यह बात मेरे गले के नीचे नहीं उतर पा रही थी। लेकिन आप-जैसे एक-आध अंतरंग मित्र को छोड़कर अपने मनोभावों को बाहर प्रकट नहीं होने दिया। आज मैं प्रेमचन्द को उन दिनों की तुलना में कदाचित् अधिक अच्छी तरह समझ पाता हूँ और अपने विचारों को भी अधिक स्पष्ट रूप से समझ पा रहा हूँ।
जैसा कि मैंने ऊपर लिखा है, प्रगतिशील चिन्तनधारा को मैं युग की माँग मानता हूँ। आधुनिक युग के तीन चरण बीत चुके हैं। मध्यकालीन मनोवृत्ति से मनुष्य की मुक्ति के तीन पद-चिन्ह स्पष्ट हो गये हैं, पहला यह कि मनुष्य किसी परलोक में या परजन्म में मुक्ति पाने की बात अब नहीं सोचता। इसी लोक में, इसी मत्र्यकाया में वह सब प्रकार के आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक बन्धनों से मुक्त होने को अधिक महत्वपूर्ण मानने लगा है। दूसरा यह कि मनुष्य ने ऐतिहासिक चेतना को सर्वथा अपना लिया है। सब-कुछ विकास-परम्परा के भीतर से गुज़रता आया है, गुज़रता रहेगा — धर्म भी, ईश्वर भी। इस ऐतिहासिक बोध ने हमें पुराने साहित्य और कलाकृतियों को समझने की नई स्वस्थ दृष्टि दी है। हम इतिहास के एक विशेष बिन्दु पर अपने को रखकर तात्कालिक परिप्रेक्ष्य में तुलसीदास को समझ सकते हैं, रसास्वादन कर सकते हैं, परन्तु साथ ही यह निश्चित रूप से मानते हैं कि हमारी सारी प्रशंसा और रसग्राहिता के बावजूद ऐसा ही लिखना आज के युग के लिए उपादेय नहीं भी हो सकता है। ऐतिहासिक चेतना ने हमें मध्यकालीन मनुष्य से बिल्कुल भिन्न बना दिया है। यह अधिक रूढि़मुक्त और स्वतन्त्र विचार के हो गए हैं। तीसरा चिन्ह है व्यष्टि मुक्ति के स्थान पर समष्टि मुक्ति की धारणा। हम यह अनुभव करने लगे हैं कि किसी एक व्यक्ति को भय, शोक, मोह आदि से मुक्त करना पर्याप्त नहीं है। पूरे-के-पूरे समाज-मानव को ही शेषण के भय और मोह से मुक्त करना हमारा उद्देश्य होना चाहिए। प्रच्छन्न रूप से और हमारे अनजान में यह विचारधारा सारे संसार में व्याप्त हो रही है। इसी का परिणाम है कि दुनिया का हर देश, चाहे वह डिक्टेटरशाही के अधीन ही क्यों न हो, अपने को कल्याणकारी राज्य या welfare state समझने में गौरव अनुभव करता है। सवाल यह नहीं है कि वह welfare state है या नहीं। यहाँ मेरा उद्देश्य उस वैचारिक क्रान्ति की ओर ध्यान आकृष्ट करना है जो जाने-अनजाने संसार-भर में क्रियाशील है। जो साहित्य प्रगतिशील होता है उसमें ये तीनों चिन्ह अवश्य विद्यमान रहते हैं। जो लोग व्यक्तिगत कुण्ठा को प्रगति समझते हैं या अपनी चरित्रगत कमजोरियों को ही प्रगति मान लेते हैं, वे नितान्त व्यक्तिवादी हैं। उनकी रचनाओं में मध्यकालीन मनोवृत्ति से मुक्ति का कोई लक्षण नहीं मिलता। उन लोगों को मैं प्रगतिशील नहीं मानता बल्कि सच पूछिये तो उन्हें साहित्यकार भी नहीं मानता। मेरे अब तक के कथन का अर्थ यह न समझिएगा कि मेरे विचार में दीर्घकाल से संचित और अर्जित मानवीय मूल्य बेकार हो गए हैं। बिलकुल नहीं। केवल उनका परिप्रेक्ष्य और विनियोग बदला है। मनुष्य ने दीर्घकाल की साधना से जो कुछ पाया उसमें इतना और जुड़ गया है। घर में अच्छे व्यक्तित्व वाले एक बच्चे के और आ जाने से परिवार के व्यक्तिगत सम्बन्धों में भी परिवर्तन आ जाते हैं। यहाँ तो मानवता की गोद में तीन-तीन शानदार व्यक्तित्व वाले बच्चे आ गए हैं। इसलिए सम्बन्ध तो बदलेंगे ही, बदलते ही रहते हैं। इस बार जरा ज़्यादा बदलाव अनुभव हो रहा है।
जो लोग केवल आखिरी किनारे को जानते हैं वे सही अर्थों में प्रगितिशील नहीं हैं और जो उसके शुरू या बीच के किनारों को ही जानते हैं वे भी नहीं है। प्रगतिशील चिन्तन सम्पूर्ण इतिहास की देन है। इसीलिए हर साहित्यकार से इतिहास उसकी माँग करता है।
दलबन्दी बुरी बात है। साहित्य के क्षेत्र में और भी बुरी है, लेकिन अस्वाभाविक नहीं है। किसी शक्तिशाली व्यक्तित्व के इर्द-गिर्द प्रभावित लोग अनादिकाल से इकट्ठे हो जाते रहे हैं और साहित्य में, धर्म में, राजनीति में दल बनाने का सूत्रपात करते हैं। ये दल पहले भी बन चुके हैं, अब भी बन रहे हैं और आगे भी बनेंगे। मगर आजकल हम लोग इनसे जितना चिन्तित हैं उतना कदाचित् पहले के लोग चिन्तित नहीं हुआ करते थे। आज भी जो लोग मध्ययुगीन मनोवृत्ति के हैं वे अपेक्षाकृत कम परेशान होते हैं। जिनके मन में ऊपर बताये हुए तीन लक्षण अधिक स्पष्ट हो गए होते हैं वे ही अधिक चिन्तित होते हैं। क्योंकि श्रद्धा या अन्धश्रद्धा के आधार पर गठित दल न हो ऐतिहासिक बोध के अनुकूल पड़ता है और न समष्टि चेतना के। मुझे ऐसा लगता है कि साहित्य में इन दिनों जो दलबन्दियाँ हो रही हैं वे साहित्यिक उपलब्धियों से उतना सम्बद्ध नहीं हैं जितना अन्य प्रकार की बातों से। जैसे-जैसे मनुष्य की छोटी-बड़ी भौतिक आवश्यकताओं को आसानी से पूरी करने के साधनों पर समष्टि-मानव का अधिकार बढ़ता जाएगा, वैसे-वैसे इन दलबन्दियों का डरावना और कुत्सित रूप सड़ता जाएगा और स्वस्थतर रूप प्रकट होते जाएँगे। इनको दूर करने के प्रयत्न का अर्थ है मनुष्य को अभाव और अज्ञान से मुक्त करने का प्रयत्न।
प्रिय बलराजजी, मेरा विश्वास है कि मनुष्य एक दिन क्षुद्रताओं से ऊपर अवश्य उठेगा। ये मार-काट, लड़ाई-झगड़े, दलबन्दियाँ और व्यूहबन्दियाँ सब उसी महान् लक्ष्य को प्राप्त करने के प्रयत्नों की कसमसाहट हैं। गुरुदेव की वह बात मुझे याद आती है, जो कुछ इस प्रकार की है — हम लुहार की दुकान पर बैठे हैं। ठाँय-ठाँय, खटर-खटर, गर्दो-गुब्बार देखकर घबराये हुए हैं। लेकिन अगर हमें मालूम हो कि वीणा के तार बन रहे हैं जो तैयार होने पर मधुर ध्वनि ही उत्पन्न करेंगे, तो हमारी घबराहट बहुत कम हो जाएगी। आइये, हम लोग भी विश्वास करें कि वीणा के तार तैयार हो रहे हैं। हम नहीं तो हमारे बच्चे उनसे निकली हुई मधुर ध्वनि को अवश्य सुनेंगे।
मैं सोच रहा हूँ कि मेरी इस बात को सुनने के बाद आप कहीं हँसने न लगें. यह न समझने लगें कि उन्नीसवीं शताब्दी के स्वप्नदर्शियों के भग्नावशेष आज भी बचे हुए हैं। लेकिन मैं आपको विश्वास दिलाना चाहता हूँ कि मैं वैसा स्वप्नदर्शी नहीं हूँ। उन्नीसवीं शताब्दी के स्वप्नदर्शी भौतिक विज्ञान की उपलब्धि से झूम उठे थे। मैं अपने को उनसे भिन्न मानता हूँ। भौतिक विज्ञान स्थानगत जानकारियों का विश्लेषण है, जिसे अंग्रेज़ी में special कहते हैं, लेकिन मनुष्य-जीवन कालगत अनुभूतियों का विषय है जिसे अंग्रेज़ी में temporal कहा करते हैं। इतिहास इसी श्रेणी का विज्ञान है। काव्य और संगीत इसी श्रेणी के ज्ञान हैं। मैं वैज्ञानिक विश्लेषण पर आधारित प्राविधिक सफलताओं से ही उल्लसित होकर स्वप्न नहीं देखने लगा हूँ। मेरा विश्वास इतिहास से झनकर आया है।
मैं समझता हूँ आपके प्रश्नों का 25 प्रतिशत पाने लायक उत्तर हो गया है।

- हजारी प्रसाद द्विवेदी



पीएचडी के अंतिम वर्ष में जेएनयू के शोध छात्र उदयशंकर मे इसे 'पहल' के लिये उपलब्ध कराया है। नई कहानियां नवम्बर 1965 के अंक से साभार।

 

 



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