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अप्रैल 2021

सत्यजित राय के किस्से

प्रमोद कुमार बर्णवाल

जन्म शताब्दी

 

 

भूमिका

सिनेमा अपने उद्भव के समय से ही विस्मय, चर्चा और आकर्षण का विषय रहा है। पर्दे पर कहानी को घटित होते हुए देखना, दर्शकों को किसी वायवीय दुनिया में ले जाता है। फि़ल्म की कहानी दर्शकों को इतना प्रभावित करती है कि कई बार वे उसे सच मानने लगते हैं; वे इस हद तक उसके वश में हो जाते हैं कि उनमें काम करने वाले कलाकारों को किसी और लोक से आया हुआ व्यक्ति तक मानने लगते हैं। यही कारण है कि आम दर्शक विभिन्न कलाकारों की निजी ज़िंदगी के बारे में जिज्ञासु होते हैं। इसका फायदा विभिन्न पत्र-पत्रिकाएं उठाती हैं, वे फ़िल्मों और उनमें काम कर रहे कलाकारों की निजी ज़िंदगी के किस्से चटखारे लेकर प्रस्तुत करती हैं। इनमें कुछ बातें सच होती हैं लेकिन कई बार गोसिप ज़्यादा होती है, सच और झूठ घुल-मिल जाते हैं; किसी किस्से में कितना सच है और कितना मसाला यह पता ही नहीं चलता। विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में अक्सर इस तरह के किस्से प्रस्तुत किये जाते हैं लेकिन वहां पर कई बार लेखक का नाम नदारद होता है और अगर कभी नाम होता है भी तो उस घटना की जानकारी लेखक को कैसे हुई उसके स्त्रोत के बारे में नहीं बताया जाता। 

बचपन से ही कहानी पढऩा और सिनेमा देखना मेरे शौक रहे हैं। इस शौक ने मुझे कहानी लेखन और सिनेमा-आलोचना की ओर मोड़ा। सिनेमा पर आलोचना लिखते हुए, मेरे मन में फिल्मों से जुड़े कलाकारों की जिंदगी के बारे में जानने की जिज्ञासा उत्पन्न हुई; इस जिज्ञासा ने मुझे प्रेरित किया कि मैं इन कलाकारों के सच्चे आख्यान प्रस्तुत करूं।  सत्यजित राय के किस्से इसी की परिणति हैं। सत्यजित राय की फ़िल्मकला से हम सभी भली-भांति परिचित हैं; लेकिन उनकी ज़िंदगी के विभिन्न पहलुओं से हम अपरिचित हैं; इस आख्यान में उनकी ज़िंदगी के कुछ ऐसे ही अनछुये प्रसंगों को प्रस्तुत किया गया है। उनकी ज़िंदगी से जुड़े ये सारे किस्से सच्चे हैं; मैंने कुछ संदर्भों से ये किस्से बुने हैं।  आख्यान के अंत में इन स्त्रोतों की चर्चा कर दी गई है। हां, इन आख्यानों को रचने के लिए रचनात्मक छूट ली गई है; कुछ काल्पनिक संवादों और स्थितियों का सृजन किया गया है; लेकिन यह इस तरह से किया गया है कि सच्चाई बनी रहे। ये सज्यजित राय की ज़िंदगी से जुड़े सच्चे आख्यान हैं। 

 

किस्सा एक:

शोमैन राजकपूर की पेशकश और सत्यजित राय की अनिर्णय की स्थिति

सत्यजित राय अनिर्णय की स्थिति में थे। वे होटल आराम करने आए थे, होना तो यह चाहिए था कि कमरे में पहुंचते ही वे सुकून की नींद लेते, आख़िर ख़ुद शोमैन राजकपूर ने आगे बढ़कर उनकी चिन्ता दूर करने की बात कही थी; किंतु खुश होने की बजाय वे और अधिक चिन्ता में पड़ गए...।

वे मुंबई आए थे, राजकपूर की बेटी के विवाह में शरीक होने; वहीं बातों-ही-बातों में उन्होंने राज साहब को अपनी अगली योजना के बारे में बताया। वे अपने दादा उपेन्द्रकिशोर राय चौधरी लिखित 'गोपी गायन बाघा बायन’ शीर्षक कहानी पर एक पटकथा तैयार कर रहे थे; उन्होंने बताया कि वे अपने दादा की कहानी पर फ़िल्म बनाना चाहते हैं किंतु इसके लिए अभी तक कोई फाइनेन्सर नहीं मिल पाया है।

राजकपूर ऐसे ही किसी मौके की तलाश में थे। उन्होंने फौरन कहा, ''मेरे बड़े बेटे रणधीर कपूर को लांच कर दो, मैं आपकी पिक्चर फाइनेन्स कर देता हूं।’’ राजकपूर हर पिता की तरह अपने बड़े बेटे रणधीर कपूर के केरियर को लेकर चिन्तित थे। वे ख़ुद प्रसिद्ध निर्देशक थे और चाहते तो अपनी किसी फ़िल्म से बेटे को ब्रेक दे सकते थे; किंतु एक वर्ल्ड फेमस डायरेक्टर अपनी फ़िल्म से किसी को लांच कर दे, एक पिता के लिए इससे बढ़कर खुशी और क्या हो सकती है। उन्होंने शर्त के साथ फाइनेन्स करने की बात कही। सत्यजित राय ने उनकी पेशकश पर बाद में जवाब देने के लिए कहा और होटल चले आएं। 

वे होटल आकर सोच में पड़ गए। उन्हें फाइनेन्सर मिल तो रहा था, किंतु एक शर्त के साथ; वे अपने दादा की कहानी पर फ़िल्म बनाना तो चाहते थे, किंतु किसी शर्त के अधीन होकर नहीं। सत्यजित राय एक द्वंद्व में पड़ गए।

उसी रात होटल में उनके लिए एक फोन आया। उन्होंने फोन उठाया। दूसरी ओर से किसी युवा की आवाज़ थी। उसने बंगाली में ही कहा, ''जी, मैं कलकत्ता से बोल रहा हूं , मैं एक फ़िल्म निर्माण परिवार से हूं। मैं अपनी दूसरी फ़िल्म बनाना चाहता हूं। मैंने सुना है कि आप कोई फ़िल्म बनाना चाह रहे हैं। .....जी, मेरी कोई शर्त नहीं है। मैं आपकी फ़िल्म को फाइनेन्स करना चाहता हूं। आप आ जाइये, पैसा रेडी है आपके लिए।’’ युवा निर्माता से बातचीत करके सत्यजित राय अत्यन्त प्रसन्न हुए। यह उनके लिए अप्रत्याशित उपहार की तरह था। उन्हें निर्णय लेने में देरी नहीं लगी कि क्या करना है; वे अनिर्णय की स्थिति से बाहर आ गए थे। 

 

किस्सा दो:

सातवें हिन्दुस्तानी से 'गोपी गायन बाघा बायन’ के सातवें सहायक तक

वर्ष 1968 की घटना है। कोलकाता में कड़ाके की ठंढ़ पड़ रही थी। एक बाईस साल के युवक ने ठंढ़ में काँपते हुए पीसीओ से अपने पिता को फोन लगाया।

बात करके उसने फोन क्रेडिल पर रखा। उसने जिस खुशी और उत्साह के साथ अपने पिता को फोन लगाया था, उनसे बातें करने के बाद उतना ही उदास हो गया। यह युवक था- टीनू आनंद, जिसने आगे चलकर चरित्र अभिनेता और फ़िल्म निर्देशक के रूप में अपनी सशक्त पहचान बनाई।

टीनू आनंद मुंबई में अभिनय के लिए मिले अवसर को ख़ुद ही ख़त्म करके किसी और पथ का सपना संजोये कोलकाता आए थे, किंतु दूसरा रास्ता खुलने से पहले ही ख़त्म होता नज़र आ रहा था। उन्हें अपने सामने अंधेरा नज़र आ रहा था। वे सोच में पड़ गए कि अब आगे क्या किया जाये..? यह सब नहीं होता, यदि उन्होंने ख्वाजा अहमद अब्बास से मिले अवसर को छोड़ा नहीं होता और सत्यजित राय से मिलने कोलकाता नहीं चले आए होते...।

 

(2)

टीनू आनंद के पिता इंदर राज आनंद अपने समय के जाने-माने नाटककार, संवाद लेखक और पटकथाकार थे। उन्होंने पृथ्वीराज कपूर के पृथ्वी थियेटर के लिए कई नाटक लिखें। राज कपूर की कई फ़िल्मों के लिए कहानी, संवाद और पटकथा लिखी। इंदर राज आनंद इस मुकाम पर कड़ा संघर्ष करके आए थे। अपने केरियर की शुरुआत में उन्हें और उनके परिवार को भारी अभावों का सामना करना पड़ा था। एक सही मुकाम पर पहुंचने से पहले उन्हें बहुत से घर बदलने पड़े थे। उन्हें सत्रह सालों तक एक ही कमरे के मकान में किराये पर रहना पड़ा था। हर पिता की तरह वे भी अपने बेटे के केरियर को लेकर चिंतित थे। उन्हें सिनेमा की दुनिया के संघर्षों का ज्ञान था, इसलिए वे नहीं चाहते थे कि उनका बेटा इस क्षेत्र में आये। इसलिए उन्होंने टीनू को अपने से बहुत दूर अजमेर में पढऩे के लिए भेज दिया; किंतु टीनू आनंद ने अपनी पढ़ाई ख़त्म करने के बाद सिनेमा में ही केरियर बनाना तय किया। उन्होंने अपनी इच्छा पिता के सामने रखी।

पिता ने देखा कि टीनू किसी और क्षेत्र में नहीं जाना चाहता, सिनेमा में ही केरियर बनाना चाहता है तो उन्होंने अपने तहत उसकी सहायता करना ही बेहतर समझा। उन्होंने टीनू से कहा, ''तुमने तय कर लिया है कि फ़िल्म निर्देशन के क्षेत्र में जाओगे तो एक काम करो, सबसे पहले किसी निर्देशक के सहायक बन जाओ और इसके बारे में अनुभव हासिल करो।’’

''जी।’’ टीनू ने हामी भरी।

''मेरे तीन दोस्त हैं जो निर्देशक हैं। मैं उनसे अनुरोध करूंगा, तुम उनके सहायक बन सकते हो।’’ इंदर राज आनंद ने कहा, ''पहले तो हैं राजकपूर साहब, बिल्कुल नज़दीकी हैं निश्चित ही तुम्हें न नहीं करेंगे। दूसरे हैं सत्यजित राय साहब जो मेरे बहुत अच्छे करीबी दोस्त हैं और तीसरे हैं फेडरिको फेलिनी साहब जो इटली में रहते हैं।’’

राजकपूर, सत्यजित राय और फेलिनी तीनों ही अपनी तरह की फ़िल्मों के प्रसिद्ध निर्देशक थे; किंतु टीनू ने जब इटली का नाम सुना तो उनके कान खड़े हो गए। विदेश में निर्देशन सीखने का मौका मिलेगा और घूमने-फिरने का भी- यह सोचकर उन्होंने फेलिनी साहब का सहायक बनने के लिए खुशी-खुशी हामी भरी।

इंदर राज आनंद ने अपने बेटे की इच्छा का सम्मान करते हुए फेलिनी साहब को इस संबंध में एक चि_ी लिखी। कुछ दिनों बाद फेलिनी साहब का जवाब आया, उन्होंने लिखा-  'इंदर तुम अपने बेटे को भेज सकते हो मुझे कोई ऑब्जेक्शन नहीं है लेकिन मैं इटालियन बोलता हूं , इंग्लिश तो मैं बिल्कुल नहीं बोलता। इसके अलावा मेरी यूनिट में भी कोई इंग्लिश नहीं बोलता। इसलिए अपने बेटे से कहो कि वह पहले इटालियन भाषा सीख ले, उसके बाद मेरे पास आए।’

टीनू ने फेलिनी की चिट्ठी पढ़ी तो उनका इटली जाने का नशा हिरन हो गया। पढ़ाई पूरी करने के बाद वे और कोई कोर्स नहीं करना चाहते थे। उन्होंने अपने पिता से कहा, ''जी, मैं अब और कोई कोर्स नहीं करना चाहता, आप सत्यजित राय साहब से बात कर लें; मैं उन्हीं को ज्वाइन करूंगा।’’

''राजकपूर साहब को क्यों नहीं?’’ इंदर राज आनंद ने सवाल किया, ''वे तो यहीं मुंबई में ही रहते हैं।’’

''वह इसलिए क्योंकि...’’ टीनू ने जवाब दिया, ''...क्योंकि वे हमारे परिवार के बहुत नज़दीकी हैं। उनका हमारे घर पर आना-जाना है। मैं उन्हें अपने बचपन से ही देखता आ रहा हूं और उन्हें बहुत नज़दीक से जानता हूं। वे भी मुझे बहुत अच्छी तरह से जानते हैं। इसलिए मैं उनसे कोई फेवर नहीं चाहता; इसकी बजाय सत्यजित राय साहब मुझे नहीं जानते, हम दोनों में एक दूरी है, आई वान्ट टू लर्न फ्रॉम दी लोवेस्ट रैंक।’’

यह सुनकर इंदर राज आनंद बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने टीनू को शाबासी दी और सत्यजित राय से बात करने का वादा किया।

 

(3)

इस घटना के कुछ समय बाद ही राजकपूर की बेटी का विवाह था; कई हस्तियां उसमें शामिल होने के लिए मुंबई आईं थीं, सत्यजित राय भी उनमें से एक थे। इंदर राज आनंद और राजकपूर में पारिवारिक रिश्ता था; इसलिए इंदर राज आनंद अपने परिवार के साथ विवाह-समारोह में विशेष रूप से शामिल थे। इस समारोह में इंदर राज आनंद सत्यजित राय से मिलें और उन्हें अपने बेटे से मिलवाया। सत्यजित राय ने इंदर राज आनंद की बातें ध्यान से सुनी, फिर टीनू की ओर मुखातिब होते हुए कहा, ''टीनू , मैं एक पटकथा पर काम कर रहा हूं। जिस दिन रेडी हो जायेगी, मैं तुम्हें चि ट्ठी भेज दूंगा; तुम चले आना।’’ सत्यजित राय बिना किसी किंतु-परंतु के टीनू को अपनी अगली फ़िल्म में सहायक के रूप में लेने के लिए तैयार हो गए, यह टीनू के लिए मन मांगी मुराद की तरह थी; वे बहुत खुश हो गए।

इसके बाद टीनू सत्यजित राय की चि ट्ठी का इंतज़ार करने लगे, किंतु काफी दिन बीत गए; दिन सप्ताह में और सप्ताह महीनों में बदलने लगे तो टीनू को चिन्ता हुई। वे सोच में पड़ गए कि अब आगे क्या किया जाये? इसी समय की बात है ख़्वाजा अहमद अब्बास अपनी महत्वाकांक्षी फ़िल्म 'सात हिन्दुस्तानी’ का निर्माण-निर्देशन शुरू कर रहे थे। वे अपनी फ़िल्म के लिए कलाकारों को कास्ट कर रहे थे। ख़्वाजा अहमद अब्बास और इंदर राज आनंद दोनों ही राजकपूर के खेमे के थे। दोनों ने उनकी फ़िल्मों में कथा, पटकथा और संवाद लिखे थे; इसलिए उनके बीच पारिवारिक रिश्ते थे। वे टीनू आनंद को जानते थे। एक मुलाकात में उन्होंने टीनू से कहा, ''तुम फ़िल्मों में काम करना चाहते हो, क्या तुम मेरी फ़िल्म में काम करोगे? मुझे अपनी फ़िल्म के लिए सातवें हिन्दुस्तानी की तलाश है।’’

सत्यजित राय की चि ट्ठी अभी तक आई नहीं थी, टीनू सोच ही रहे थे कि आगे क्या करें? ऐसे में ख़्वाजा अहमद अब्बास का यह प्रस्ताव उन्हें बहुत भला प्रतीत हुआ। निर्देशन नहीं तो अभिनय ही सही। वे एक सेकंड में अपनी जगह पर खड़े हो गए और खुश होते हुए कहा, ''जी, मैं ज़रूर करूंगा।’’ 'सात हिन्दुस्तानी’ में एक शायर का किरदार था, यह रोल टीनू आनंद को मिल गया।

इसके बाद फ़िल्म के लिए रिहर्सल शुरू हो गई। रोज शाम को अब्बास साहब के ऑफिस में मीटिंग होती, जिसमें सभी कलाकार हाव-भाव के साथ अपने-अपने संवादों का उच्चारण करते, ताकि शूटिंग के दौरान अपने चरित्र में ढलने में किसी को कोई परेशानी न हो।

टीनू आनंद अपने चरित्र में ढलने का प्रयास करने लगे। एक शायर के जैसे हाव-भाव होते हैं, वे उसी अंदाज़ में संवाद अदा करने का प्रयास करते। वे अब्बास साहब और अन्य कलाकारों के सामने निरंतर अभ्यास करते लेकिन वे जब अकेले होते अपने केरियर को लेकर आत्मचिंतन करते। वे आईने में अपना चेहरा देखते; और सोचते- 'मैं इस चेहरे-मोहरे के साथ क्या अभिनय में बहुत आगे बढ़ पाऊंगा? हीरो के रोल तो मुझे कभी नहीं मिलेंगे, ज़्यादा-से-ज़्यादा साइड रोल ही मिल पायेंगे।’

यह सब चल रहा था, कि एक दिन सत्यजित राय की चि ट्ठी टीनू के घर आ गई। उन्होंने लिखा था- मैं अपनी अगली पिक्चर 'गोपी गायन बाघा बायन’ शुरू कर रहा हूं। तुम चाहते थे कि मेरा असिस्टेंट बनो तो आ जाओ तुम।

चि ट्ठी पढ़कर टीनू आनंद को आत्मिक खुशी हुई। वे अब्बास साहब के पास गये और उन्हें सत्यजित राय की चि ट्ठी के बारे में बताया। टीनू ने कहा, ''आपका ये एक्टर रिटायर हो रहा है...। मैंने आपको ज्वाइन करने से पहले सज्यजित राय से बात की थी। अभी उनकी चि ट्ठी आई है, वे अपनी अगली फ़िल्म शुरू कर रहे हैं। वे मुझे अपना सहायक बनाने के लिए राजी हो गए हैं।’’ टीनू ने अपने हाथ जोड़े और आगे कहा, ''आपने मुझे चुना था लेकिन ऑफिसयली आई वांट टू बिकम डायरेक्टर। मुझे चांस मिल रहा है.....।’’ अब्बास साहब ने टीनू की बातें ध्यान से सुनी। फिर उन्होंने खुशी-खुशी उसे जाने की इजाजत दे दी।

इसके बाद टीनू आनंद अपने घर गए। उन्होंने अपनी ज़रूरत की चीज़ें बैग में रखीं, पिता से आवश्यक हिदायतें लीं और ट्रेन से कोलकाता के लिए रवाना हो गए।

 

(4)

वर्तमान समय में मुंबई से कोलकाता, ट्रेन में सफर करके लगभग तीस घंटे में पहुँचा जा सकता है; लेकिन आज से लगभग पचास वर्षों पूर्व इस दूरी को तय करने में अड़तालीस घंटे से भी ज़्यादा समय लग जाते थे। टीनू आनंद ट्रेन के तीसरे दर्जे के कम्पार्टमेन्ट में सफर करके कोलकाता पहुँचे। उन्होंने कोलकाता पहुँचकर एक पीसीओ से अपने पिता को फोन लगाया और बेहद उत्साहित होते हुए कहा, ''पिताजी, मैं कोलकाता पहुँच गया हूँ। मैं अब रे साहब से मिलने जा रहा हूँ .....।’’

टीनू आनंद दो दिन का सफर तय करके जब कोलकाता पहुँचे, उनकी देह थककर चूर हो गई थी; किंतु दिलो-दिमाग में सत्यजित राय के साथ काम करने की आस ने उनके मन में उत्साह कूट-कूट कर भर डाला था, जिसके कारण वे अपने पिता को फोन करते समय बेहद उत्साहित थे; किंतु दूसरी ओर से जब पिता ने कुछ ऐसा जवाब दिया जो अप्रत्याशित था तो टीनू आनंद का उत्साह उडऩ छू हो गया। पिता इंदर राज आनंद ने बहुत ही निराशाजनक शब्दों में कहा, ''बेटे, वापस आ जाओ....।’’

''आंऽ! क्या मतलब?’’

''बेटे! तुम इधर कोलकाता जाने के लिए ट्रेन में सवार हुए और उधर उसी समय सत्यजित रे साहब की चि ट्ठी घर पर पहुँची। उन्होंने मुझे रिक्वेस्ट करते हुए लिखा है कि मैं तुम्हें कोलकाता न भेजूँ।’’

''आंऽ! लेकिन ऐसा क्यों?’’

''सत्यजित राय ने अपनी चि ट्ठी में लिखा है कि...’’ इंदर राज आनंद ने कहा, ''इंदर, मैंने फ़िल्म के प्रोड्यूसर से बात की। पर वह सातवें असिस्टेंट के लिए तैयार नहीं है.....। मैं जो फ़िल्म बना रहा हूँ, वह भारी बजट की है। यह पिक्चर राजस्थान में बनने वाली है, अधिकतर आउटडोर शूटिंग होगी। फ़िल्म की पूरी यूनिट को लेकर राजस्थान में आना-जाना होगा। फिर उनके रहने-खाने में व्यय...., अनुमान है कि काफी खर्चा आएगा। प्रोड्यूसर का कहना है कि ऑलरेडी हमारे पास छह असिस्टेन्ट हैं, हम अब सातवें का भार नहीं उठा सकते।’’

टीनू आनंद, ख्वाजा अहमद अब्बास साहब को 'न’ कहकर मुंबई से कोलकाता आए थे; उनके 'न’ कहने के बाद अब्बास साहब ने वह रोल एक बेहद प्रसिद्ध कवि हरिवंश राय बच्चन के बेटे को दे दिया। इस तरह से टीनू के हाथ से सातवें हिन्दुस्तानी का रोल गया ही, 'गोपी गायन बाघा बायन’ में सातवाँ सहायक बनने का रास्ता भी बंद हो गया; निर्देशन का प्रशिक्षण शुरू होने से पहले ही ख़त्म हो गया। टीनू का सारा उत्साह कपूर की तरह उड़ गया। उनके मुँह से कोई आवाज़ ही नहीं निकले। उन्हें समझ नहीं आये कि अब आगे क्या बोलें।

तब इंदर राज आनंद ने ही बात सम्भालते हुए कहा, ''क्या हुआ? चुप क्यों हो गए? इसमें उदास होने वाली क्या बात है।’’

''जी, कुछ नहीं। बस, ऐसे ही...।’’ टीनू ने किसी तरह से अपनी बात कही, ''मैं अब क्या करूँ?’’

इंदर राज आनंद ने आगे कहा, ''तुम कलकत्ते पहुँच ही गए हो तो उन्हें फोन कर लो, जाकर मिल लो। मिलने के बाद टिकट लेकर अगली ट्रेन से वापस आ जाओ। उदास मत होओ। इस पिक्चर में न सही, अगली पिक्चर में वे तुम्हें अपना असिस्टेन्ट ज़रूर बना लेंगे।’’

 

(5)

टीनू आनंद ने सत्यजित राय को फोन लगाया और कहा, ''माणिक दा, मैं टीनू बोल रहा हूँ। मैं कोलकाता पहुँच गया हूँ।’’

टीनू की बातें सुनकर सत्यजित राय हड़बड़ाये, उन्होंने बंगाली में कहा, ''उरी बाबा, तुम ऐसे कैसो? मतलब कि तुम आ गए हो?’’

''हाँ जी। आपने जो दूसरी चिटठी भेजी, वह मेरे फादर को मिली । मैं उस समय ट्रेन में था।’’

''ओह!’’

''हाँ। मुझे आपका संदेश नहीं मिल पाया।’’ टीनू आनंद ने कहा, ''...तो अब मैं क्या करूँ?’’

''एक काम करो....।’’ सत्यजित राय ने कहा, ''....कल मुझसे आकर मिल लो। ऐसे ही बिना मिले चले मत जाना। आओ चाय-वाय पीओ मेरे साथ।’’

''जी।’’ टीनू आनंद ने हामी भरी।

''तुम कितने बजे सोकर उठते हो?’’ सत्यजित राय ने सवाल किया।

''जी, आप जब कहेंगे मैं पहुँच जाऊँगा।’’

''ठीक है।’’ सत्यजित राय ने कुछ सोचते हुए कहा, ''सुबह आठ बजे मेरे घर पर आ जाओ।’’

(6)

अब मुंबई लौटना है, पर वापसी का टिकट लेने से पहले एक बार सत्यजित राय से मिल ही लेता हूँ- यह सोचकर टीनू आनंद ने एक होटल में कमरा ले लिया। वे कमरे में अपने केरियर को लेकर चिंतन करते रहे। अब मेरा क्या होगा?- यह सवाल उन्हें रह-रहकर परेशान कर रहा था।

'रे साहब के घर आठ बजे तक पहुँचने के लिए मुझे सुबह जल्दी उठना पड़ेगा, आख़िर नित्य क्रिया से निवृत्त होने और तैयार होने में कुछ समय तो लगेगा। पर....उफ! ये सिहरन पैदा करने वाली सर्दी।’ टीनू ने सोचा।  

अगली सुबह टीनू की नींद खुली। 'थोड़ी देर तक और सो लिया जाये।’ - उनके मन में यह ख़याल आया। कड़कड़ाती ठंढ़ में उन्हें बिस्तर से बाहर निकलने का मन नहीं हो रहा था। पर  यह भी ख़याल आया कि ऐसा न हो, राय साहब के घर पहुँचने में देर हो जाये। वे कहीं निकल न जायें। यह सोचकर अपना मन मारकर टीनू बिस्तर से निकलें। उन्होंने घड़ी देखी- सुबह के छह बज रहे थे। उन्होंने जल्दी से तैयार होना शुरू किया। नित्य क्रिया से निवृत्त हुए और कपड़े बदलकर, ठंढ़ से लड़ते हुए सत्यजित राय के घर चल दिए।

टीनू कुछ देर बाद सत्यजित राय के घर के बाहर थे। उन्होंने घड़ी देखी- पौने आठ बज रहे थे। अभी कुछ समय बाकी है, मैं ठीक आठ बजे दरवाज़े पर दस्तक दूँगा- टीनू ने सोचा और घर के बाहर सीढिय़ों पर ही बैठ गये। उन्होंने सीढिय़ों पर ही सिकुड़कर किसी तरह से ठंढ़ काटी; फिर ठीक आठ बजे घर की घंटी बजाई और दरवाज़े के खुलने का इंतज़ार करने लगे...।

थोड़ी देर में दरवाज़ा खुला....। टीनू ने दरवाज़े पर जो देखा उससे भौंचक्के रह गए.....। वे फ़िल्म उद्योग में पैदा हुए थे; वे वहाँ की रग-रग से वाकिफ थे। उन्होंने फ़िल्मी दुनिया से जुड़े व्यक्तियों को खुद आगे बढ़कर दरवाज़ा खोलते कभी नहीं देखा था; जबकि यहाँ पर तो विश्व प्रसिद्ध निर्माता, निर्देशक, लेखक, पटकथाकार, संवाद लेखक और संगीत निर्देशक खुद दरवाज़ा खोले सामने खड़े मुस्कुरा रहे थे। टीनू आनंद वहीं चारों खाने चित हो गए, वे बेहोश होते-होते बचे। सत्यजित राय ने उन्हें घर के अन्दर आने के लिए कहा।

टीनू ने घर के अंदर अपने क़दम रखे। सत्यजित राय ने टीनू को एक ओर बैठने का इशारा किया। उन्होंने आवाज़ देकर घर के किसी सदस्य को चाय लाने के लिए कहा। फिर टीनू की ओर मुड़े और बंगाली में ही कहा, ''टीनू , तुम बैठकर चाय पीओ। मैं कुछ काम कर रहा हूँ , मुझे पंद्रह-बीस मिनट लगेंगे। मैं काम खतम करके तुमसे बातें करता हूँ।’’ इतना कहकर टीनू के जवाब की प्रतीक्षा किये बिना, वे अपनी डेस्क की ओर मुड़ गये। डेस्क पर टाइपराइटर रखा हुआ था। वे डेस्क के सामने स्थित कुर्सी पर बैठे और टाइपराइटर पर कुछ टाइप करने लगे।

टीनू कुर्सी पर बैठ गए, वे सत्यजित राय को टाइंिपग करते देखते रहे। 'अगर मुझे बीस मिनट बिठाना ही था तो आधा घंटा और सोने दे देते। इतनी सर्दी है....आधे घंटे बाद बुला लेते।’ टीनू ने कुर्सी पर बैठे-बैठे मन में सोचा।

करीब बीस मिनट के बाद सत्यजित राय अपनी कुर्सी से उठे। उन्होंने टाइप किया हुआ पेज उठाया। फिर अपना स्टेपलर ढूंढ़ा। उन्होंने टाइप की हुई सामग्री स्टेपल की, फिर चलकर टीनू के पास आएं। उन्होंने टाइप की हुई सामग्री टीनू के सामने रखी मेज पर रख दी।

टीनू ने अपनी नज़रें ऊपर उठाईं और आश्चर्य से कहा, ''माणिक दा! ये ...?’’

''टीनू , पहले मैंने ये सोचा कि चूंकि मेरा प्रोड्यूसर नहीं चाहता, इसलिए मैं तुम्हें नहीं रख सकता। लेकिन बाद में मैंने ये सोचा कि देख लेंगे, प्रोड्यूसर मुझे जो पैसे देगा, उसी में हमलोग मैनेज कर लेंगे। एक रोटी कम खा लेंगे। तुम्हें दे देंगे वो रोटी। अब ये मैं नहीं कह सकता हूँ कि तुम्हें तनख्वाह मिलेगी, पर एटलिस्ट तुम काम पर लग जाओ।’’ सत्यजित राय ने कहा, ''तुम काम करना शुरू कर दो, इसलिए मैं आज चार बजे उठा हूँ। मैं बंगाली में पिक्चर बना रहा हूँ। इसके सारे संवाद बंगाली में हैं। तुम बंगाली बोलते नहीं हो, इसलिए तुम सीन समझ नहीं पाओगे। यही सोचकर मैं सुबह चार बजे से पिक्चर के दृश्यों का सार अंग्रेज़ी में लिख रहा हूँ, ताकि तुम दृश्य समझ जाओ और हमारी यूनिट के मेम्बर बन जाओ...।’’ सत्यजित राय आगे कहे जा रहे थे और इधर टीनू की आँखों में आँसू छलक आए थे।  

 

किस्सा: तीन

इट्स साउंड इज़ वेरी गुड  

सत्यजित राय बंगाली और अंग्रेज़ी दो भाषाएं जानते थे। उन्होंने बंगाली के अलावा कुछ फ़िल्में अंग्रेज़ी में बनाईं। इसके अलावा दो फ़िल्में हिन्दी में बनाईं। 'शतरंज के खिलाड़ी’ (1977) उनकी पहली और 'सद्गति’ (1981) दूसरी हिन्दी मूवी है। यह किस्सा उनकी पहली हिन्दी मूवी के निर्माण के समय का है।

सत्यजित राय प्रेमचंद लिखित 'शतरंज के खिलाड़ी’ शीर्षक कहानी पर इसी नाम से फ़िल्म बनाना चाहते थे। उन्होंने मूल कहानी के आधार पर मूवी की कथा-पटकथा और संवाद तैयार की। मूवी हिन्दी, अंग्रेज़ी और उर्दू भाषा में बननी थी। सत्यजित राय ने उर्दू में संवाद तैयार करने की जिम्मेवारी जावेद सिद्दीकी को सौंपी। जावेद सिद्दीकी उत्तर प्रदेश के रामपुर से उर्दू भाषा में स्नातक करने के बाद मुंबई आ गए थे, जहाँ उन्होंने कई वर्षों तक विभिन्न उर्दू दैनिकों में पत्रकारिता की। उन्होंने उर्दू में कई कहानियाँ भी लिखी। सत्यजित राय जब 'शतरंज के खिलाड़ी’ मूवी के लिए उर्दू संवाद लेखक की तलाश कर रहे थे, उनके किसी परिचित ने जावेद सिद्दीकी का नाम सुझाया। तब सत्यजित राय ने यह भार जावेद सिद्दीकी को सौंपी।

जावेद सिद्दीकी ने उर्दू में कहानियाँ लिखी तो थी, किंतु फ़िल्मों के लिए लिखने का उनका कोई तजुर्बा नहीं था; इसलिए वे घबड़ाये हुए थे। पर चूँकि सत्यजित राय उस समय तक भारत के अलावा विदेशों में भी ख्याति अर्जित कर चुके थे, उनकी फ़िल्में देश के अलावा बाहर भी बहुप्रतीक्षित रहती थीं; इसलिए जावेद सिद्दीकी उनके साथ काम करने का मौका अपने हाथ से जाने नहीं देना चाहते थे; उन्होंने शमा जैदी से परामर्श लिया और संवाद तैयार किये।

फिर वह दिन भी आया जब उन्हें अपने लिखे संवाद सत्यजित राय और उनकी फ़िल्म यूनिट को सुनाने थे। इस संबंध में एक बैठक हुई। इसमें सत्यजित राय और उनकी फ़िल्म यूनिट से जुड़े कलाकार थे ही, उर्दू अच्छी तरह से जानने-समझने और पढऩे-लिखने वाले विद्वान भी थे। जावेद सिद्दीकी ने बहुत घबड़ाते हुए अपनी लिखी पहली संवाद रचना सुनानी शुरू की।  

जावेद सिद्दीकी ने धीरे-धीरे संवाद पढऩा शुरू किया। महफिल में उपस्थित सभी व्यक्ति धीर-गम्भीर मुद्रा में ख़ामोशी से संवाद सुन रहे थे। जावेद सिद्दीकी धीरे-धीरे पढ़ते हुए आख़री पृष्ठ तक पहुँचे, उन्होंने अंतिम फ्रेम का संवाद सुनाया। फिर उन्होंने श्रोताओं की प्रतिक्रिया जानने के लिए अपना सिर ऊपर उठाया। कमरे में सूई के गिरने पर भी आहट न हो, ऐसी शांति थी। जावेद सिद्दीकी साहब घबड़ाये, 'मैंने पहली बार लिखा है, पता नहीं सही लिखा है कि नहीं?’ उन्होंने अपने मन में सोचा। इसी समय महफिल की ख़ामोशी को तोड़ती हुई सत्यजित राय की धीर-गम्भीर आवाज़ सुनाई पड़ी- ''आई डोन्ट नो व्हाट ही हैज रिटेन बट इट’स साउंड इज़ वेरी गुड।’’ 

 

किस्सा: चार

फूलों के मध्य तमंचा

'शतरंज के खिलाड़ी’ मूवी का अंतिम दृश्य इस प्रकार से है- शतरंज के खेल से विशेष प्रेम करने वाले दोनों मित्र- मिर्ज़ा सज्जाद अली (संजीव कुमार) और मीर रोशन अली (सईद जाफरी) आपस में शतरंज खेल रहे हैं। खेल में मीर रोशन अली जीत रहे हैं और मिर्ज़ा अपनी बाजी हार रहे हैं। अब मिर्ज़ा सज्जाद अली का खेल में मन नहीं लग रहा, जबकि मीर रोशन अली को विशेष आनंद आ रहा। मिर्ज़ा सज्जाद अपनी बाजी हारते देख चिढ़-से जाते हैं और मीर रोशन अली का ध्यान भटकाने के लिए उनकी बेवफा पत्नी पर टीका-टिप्पणी करते हैं। मीर रोशन अली को यह बात नागवार गुजरती है, वे भी मिर्ज़ा सज्जाद अली को उलटा-पुलटा कहते हैं। दोनों के बीच वाद-विवाद बढ़ता है और यह आगे बढ़कर हिंसा का रूप ले लेता है। मीर रोशन अली अपना आपा खो बैठते हैं और मिर्ज़ा सज्जाद अली पर गोली चला देते हैं। पर संयोग से गोली मिर्ज़ा की बांह के ऊपर उनके कपड़े को छूती हुई निकल जाती है; उन्हें किसी प्रकार का शरीरिक नुक़सान नहीं पहुँचता। कुछ देर बाद जब दोनों का क्रोध शांत होता है, उन्हें अपनी ग़लती का एहसास होता है। वे अफसोस जताते हैं और गिले-शिकवे भूलकर शतरंज खेलने बैठ जाते हैं। वे शतरंज खेल रहे हैं और उसी समय स्क्रोलिंग शुरू हो जाती है।

मूवी का अंतिम दृश्य अन्तत: उपर्युक्त रूप में प्रकट हुआ पर मूल पटकथा इससे भिन्न थी। आपसी तू-तू-मे-मे में रिवाल्वर चल जाती है; फिर कुछ देर बाद जब उन्हें अपनी ग़लती का एहसास होता है, वे रिवाल्वर उठा कर फेंक देते हैं। रिवाल्वर जाकर एक कोने में बनी फूलों की क्यारी में जाकर गिरती है। दृश्य के अंतिम फ्रेम में तमंचे को फुलों की क्यारी में गिरा हुआ दिखाया जाना था, इसके बाद स्क्रोलिंग शुरू हो जानी थी। पर शूटिंग के समय इसे बदल दिया गया।

अंतिम दृश्य मूल पटकथा से अलग क्यूँ और कैसे बनी?- इसके पीछे एक किस्सा है। हुआ यूँ कि- फ़िल्म की शूटिंग लखनऊ से काफी दूर एक गाँव में हो रही थी। गाँव में दूर-दूर तक कहीं भी असली फूलों की क्यारी नहीं थी। अब सवाल उठा कि अंतिम दृश्य कैसे शूट की जाये? इसके लिए कृत्रिम तरीका अपनाने की कोशिश की गई। कुछ फूल के पौधे मंगवाये गये और उन्हें गीली मिट्टी में खड़े किये गये। सोचा गया कि इनके बीच तमंचे को दिखा देंगे। शूटिंग शुरू हुई, पर मिट्टी से जुड़े पौधों में जो बात है, वह कृत्रिम तरीके से खड़े किये में कैसे आ सकती है। पौधों में ताज़गी नज़र नहीं आ रही थी, यह बात सत्यजित राय को खली। वे सोच में पड़ गए। कुछ देर बाद उन्होंने घोषणा की- मैं यह दृश्य शूट नहीं करूँगा। इस पर जावेद सिद्दीकी सत्यजित राय के पीछे पड़ गए। उन्होंने पूरी पटकथा पढ़ रखी थी। उन्होंने तो फ़िल्म के डॉयलॉग ही लिखे थे, वे पूरी पटकथा से परिचित थे। उन्होंने सत्यजित राय से कहा, ''माणिक दा, पटकथा कितने अच्छे तरीके से लिखी गई है। आप ऐसा मत कीजिये। यह शॉट बहुत अच्छा है। आप इसे शूट नहीं करेंगे तो यह दृश्य कितना बुरा लगेगा। कृप्या आप ऐसा नहीं करें।’’ सत्यजित राय बहुत देर तक जावेद सिद्दीकी की बक-बक सुनते रहें, फिर उन्होंने एक लाइन कही- ''इफ़ यू गिव मी द फ्लावर, आई गिव द शॉट।’’

 

किस्सा: पाँच

सत्यजित राय का सौहार्द और प्यार 

यह किस्सा सत्यजित राय की डेथ एनिवर्सरी के समय का है। सत्यजित राय की डेथ एनिवर्सरी कोलकाता में मनाई जा रही थी। बंगाल के कई विद्वान और सिनेमा से जुड़ी हस्तियाँ इसमें सिरकत कर रही थीं। पाँच वर्षों तक सत्यजित राय के सहायक रहे टीनू आनंद भी इसमें शामिल हुए। उन्होंने सत्यजित राय से कोलकाता में हुई पहली मुलाकात का संस्मरण सुनाया। संस्मरण सुनाते-सुनाते उनकी आँखों में आँसू छलक आए।

उन्होंने अपने आँसू पोंछे और आगे कहा, ''मैं जब भी इस घटना को नैरेट करता हूँ, मेरी आँखों में आँसू आ जाते हैं। एक व्यक्ति जो अपने साँतवें असिस्टेन्ट का ख़र्च वहन नहीं कर सकता, उसको ब्रेक देने के लिए चार बजे सुबह जगता है; जबकि उसका सातवाँ असिस्टेन्ट साला कम्पलेन कर रहा था कि मुझे बीस मिनट पहले क्यों बुला लिया।’’

टीनू आनंद कुछ सेकंड के लिए रुके, फिर उन्होंने आगे कहा, ''वो जो छह-सात पेजेज हैं, जो सत्यजित रे साहब ने मुझे उस सुबह लिख के दिये थे। वे मेरे पास आज भी सुरक्षित हैं। आज जब मुझे ठंढ़ लगती है या मैं अकेलापन महसूस करता हूँ तो उन पेजेज को चादर की तरह ओढ़ लेता हूँ। मुझे गरमी मिलती है, उनका सौहार्द और प्यार मिलता है; मुझे बड़ा सुकून मिलता है।’’

 

संदर्भ और टिप्पणी:-  

रेडियो जॉकी कमल शर्मा ने अभिनेता और निर्देशक टीनू आनंद से बातचीत की थी। यह बातचीत रेडियो के विविध भारती चैनल पर सत्ताईस अक्टूबर, 2019 को 'उजाले उनकी यादों के’ कार्यक्रम के तहत पुन: प्रसारित की गई थी। किस्सा एक, दो और सात इसी बातचीत के आधार पर लिखी गई है।

जावेद सिद्दीकी ने एक बातचीत में सत्यजित राय से संबंधित कुछ संस्मरण सुनाये थे। यह बातचीत दो मई, 2018 को विविध भारती पर प्रसारित 'आज के फ़नकार’ में सुनाये गए थे। रेडियो जॉकी यूनुस ख़ान ने इसे प्रस्तुत किया था। किस्सा तीन और छह इसी के आधार पर लिखी गई है।

रेडियो जॉकी यूनुस ख़ान ने जावेद सिद्दीकी से लंबी बातचीत की थी, इसी बातचीत का एक हिस्सा विविध भारती पर दस अक्टूबर, 2020 को 'उजाले उनकी यादों के’ कार्यक्रम के अंतर्गत पुन:प्रसारित हुई थी। किस्सा चार और पाँच  इसी के आधार पर लिखी गई है।

 

 

 

सिनेमा और सिने कलाकारों से जुड़े सच्चे आख्यानों पर तैयार की जाने वाली पुस्तक से यहाँ कुछ अंश हम सत्यजित रे की जन्म शताब्दी पर प्रकाशित कर रहे हैं। प्रमोद कुमार वर्णवाल की श्याम बेनेगल पर एक महत्वपूर्ण पुस्तक 2020 में प्रकाशित हुई है। इसके अलावा उनकी कई रिपोर्ट देश की मशहूर पत्रिकाओं में छपी हैं। बी.एच.यू. से पढ़ाई पूरी करने के बाद स्वतंत्र लेखन कर रहे हैं। बोकारो में रहते हैं।

संपर्क- मो. 945189112

 


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