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अप्रैल 2021

लातिन अमेरिका डायरी: कोलंबिया- कोको और कॉफ़ी से कोका और कोकेन के घातक गिरोहों तक!

जितेन्द्र भाटिया

बस्ती बस्ती परबत परबत

 

परेरा हवाई अड्डे से पोब्लो रिको के लम्बे सफऱ पर निकलने से पहले हम शहर के एक छोटे से मॉलनुमा स्टोर  में रुकते हैं जहां का आधे से अधिक हिस्सा विभिन्न कोको उत्पादों और वहाँ की विख्यात कोलंबियन कॉफ़ी को समर्पित है। साइनबोर्डों से लेकर उत्पादों के नामों और पैकेजों पर छपे विवरणों तक सभी कुछ स्पेनिश में है। भाषा की दिक्कत के चलते हम सेलिया नाम का तमगा पहने घूमती एक मुलातो परिचारिका से कोलंबिया की सबसे अच्छी कॉफ़ी के बारे में  पूछना चाहते हैं तो वह हमारी राष्ट्रीयता जान चुकने के बाद कुछ नाराज़गी से कहती है कि कोलंबिया की पारंपरिक फसल कॉफ़ी नहीं कोको है, जिसे आप कॉफ़ी से कमतर समझने की भूल हरगिज़ न करें! बासमती चावल की तरह दुनिया में कोको की केवल पांच प्रतिशत फलियों को 'फिनो दी अरोमा’ का विशिष्ट दर्ज़ा मिलता है और कोलंबिया में उगने वाली 95 प्रतिशत कोको इसी श्रेणी की है जबकि निकटवर्ती इक्वेडोर और पेरू तक में मात्र पचहत्तर प्रतिशत कोको ही इस पहचान पर खरी उतरती है। सेलिया का राष्ट्रप्रेम उसकी चटख हरे रंग की पोशाक से बखूबी मेल खाता है। उसकी धमनियों में शायद आज भी अपने माया या अज्टेक पूर्वजों का रक्त बहता है।अपनी टूटी फूटी अंग्रेज़ी में स्पेनिश के कई विशेषणों के साथ वह जो कुछ कहती है उसका भावार्थ यही है कि हमारे लिए कोलंबिया से कोको खरीदे बगैर लौटने से जघन्य अपराध दूसरा नहीं होगा!

हमें यह जानकार अचरज होता है कि कॉफ़ी का जन्म यहाँ नहीं बल्कि अफ्रीका के सुदूर इथियोपिया में हुआ था, जहां से वह योरोप पहुँची और कोलंबस के उत्तराधिकारी उसे गन्ने की तरह लातिन अमेरिका लेकर आए। इसके विपरीत कोको की फलियाँ आदिकाल से लातिन अमेरिका के जंगलों में पायी जाती थी और सभी आदिवासी सभ्यताओं को इसकी जानकारी थी।यहीं से वह अफ्रीका और दूसरे प्रदेशों में फ़ैली। कहा जाता है कि लुटेरा कोर्तेज़ जब 1519 में मेक्सिको के तट पर उतरा था तो उसकी रंग बिरंगी पोशाक से प्रभावित हो अज्टेक शहंशाह मोंतेजुमा ने उसे कोको की फलियाँ उपहार स्वरूप भेंट की थी।हालांकि  कोर्तेज़ की रूचि उन फलियों से कहीं अधिक शहंशाह के गले में चमकते सोने के आभूषणों में थी! इससे भी बहुत पहले मध्य अमेरिका की माया सभ्यता में कोको के दाने हमारी कौडिय़ों की तरह सिक्कों का स्थान लेते थे। आज कोलंबिया में कोई 128 लाख हेक्टेयर ज़मीन कोको की खेती के लिए आबंटित है और अच्छी बात यह है कि इसकी खेती कॉर्पोरेट दैत्यों की जगह कोई 52 हज़ार छोटे  परिवारों द्वारा की जाती है।

कोको का ही परिष्कृत रूप है चॉकलेट! लातिन अमेरिका में चॉकलेट को खाने से अधिक एक पेय के रूप में पिया जाता है। चॉकलेट बनाने के लिए कोको पौधों की फलियों को भूनकर साफ़ करने के बाद इन्हें पीसा जाता है और इससे वसा (कोको बटर) को अलग किया जाता है। वसा रहित कोको पाउडर में दस से पंद्रह प्रतिशत कोको बटर, शक्कर,अन्य खुशबुएँ तथा दूध मिलाकर चॉकलेट तैयार होती है। लेकिन पीने वाली चॉकलेट में दूध और वसा नहीं होती और आप एक तरह से इसे कोको का पाउडर भी कह सकते हैं। लेकिन कोलंबिया में अक्सर इसे पाउडर की जगह कुछ अन्य पदार्थ मिलाकर चॉकलेट जैसी सिल्ली की शक्ल दे दी जाती है। सुविधा अनुसार सिल्ली के टुकड़ों को गर्म पानी में घोलने से चॉकलेट पेय तैयार हो जाता है, जो हर छोटे-बड़े रेस्तराओं और स्टॉलों  में सर्वत्र मिलता है। कई होटलों में तो रिसेप्शन में पास आपको इस गर्म पेय की मशीन भी दिख जाएगी।

सारे लातिन अमेरिका में आपको भोजन के बाद कॉफ़ी की जगह गर्म चॉकलेट का विकल्प मिलेगा और यह चॉकलेट कॉफ़ी की तरह बगैर दूध डाले पी जाती है। यदि आपको दूध वाली कॉफ़ी चाहिए तो आपको 'सफ़ेद कॉफ़ी’ बताना पड़ेगा जो कई बार नहीं भी मिल सकती है, क्योंकि यहाँ की सभ्यता में दूध का विशेष स्थान नहीं है और चॉकलेट पेय में दूध डालना तो सर्वथा वर्जित है। पूरे लातिन अमेरिका में हम जहां भी गए, वहां भोजन से पहले और उसके बाद चॉकलेट का पेय बहुत सहज भाव से माँगा जा सकता था, हमारे अपने चाय के कप की तरह! बल्कि कई स्थानों पर तो भोजन के समानांतर थर्मस फ्लास्क  में चॉकलेट का गर्म पेय लगभग पानी की तरह लगातार टेबल पर मौजूद रहता था।

परेरा शहर से बाहर निकल हम ला वर्जिनिया होते हुए एपिया की ओर बढ़ रहे हैं जो उन्नीसवीं शताब्दी के अंत में स्पेन से आने वालों द्वारा बसाया एक अपेक्षाकृत नया कस्बा है जिसकी ग्यारह हज़ार की आबादी का एक बड़ा हिस्सा किसी न किस रूप में कॉफ़ी की खेती या इसके उद्योग से जुड़ा है। परेरा की कोको प्रेमी सेलिया के प्रभाव से मुक्त हमारा गाइड हर्नन सूचित करता है कि  हम इस वक्त दुनिया में सबसे अच्छी कॉफ़ी बनाने वाले इलाके से गुज़र रहे हैं। एपिया के कॉफ़ी बगान विश्व विख्यात हैं और यहाँ की 'कॉफ़ी उगाने वाली धुरी’ को युनेस्को द्वारा 1911 में विश्व पारंपरिक संपदा का खिताब मिल चुका है। कोलंबिया हालांकि ब्राज़ील और विएतनाम के बाद आज दुनिया का तीसरे नंबर का कॉफ़ी निर्यात करने वाला देश है, लेकिन इसकी कॉफ़ी उन दोनों देशों से कहीं अधिक विशिष्ट मानी जाती है और दुनिया में इसकी पहचान कोलंबिया के कैफीन  मुक्त स्वास्थकारी कोको से कहीं अधिक है। रेकार्डो के अनुसार यह राज़ उसकी मेवों और चॉकलेट जैसी खुशबू और सोंधी-सोंधी मिठास में है, लेकिन सच यह भी है कि मीडिया के अंधाधुंध प्रचार ने कोलंबियन कॉफ़ी को इस ऊंचे मुकाम तक पहुंचाने में काफी मदद की है। विज्ञापनों में दिखने वाले 'पोंचो’ पहने, कंधे पर कोलंबिया का पारंपरिक चमड़े का 'कैरियल’ झोला लटकाए और सिर पर 'अगुआदेनो’ टोपी पहने प्रदेश के काल्पनिक 'पैसा’ किसान  पात्र जुआन वाल्देज़ और उसके वफ़ादार गधे कोंचिता ने पांचवें दशक से फिल्म और टी वी पर कोलंबियन कॉफ़ी की श्रेष्ठता का पैग़ाम घर घर तक पहुंचाया है! प्रचार की यह पहचान इतनी ज़ोरदार और सफल है कि वर्ष 2005 में इसको अमेरिका के सबसे अधिक याद रहने वाले विज्ञापन का खिताब मिला था! कई देशभक्तों के अनुसार तो काल्पनिक पात्र जुआन वाल्देज़ को सहज ही कोलंबिया के 'अंकल सैम’ का दर्ज़ा दिया जा सकता है!

वर्ष 1700 के आसपास स्पेन से कोलंबिया बसने वालों के साथ आए कुछ पादरी पहली बार कॉफ़ी को योरोप से लातिन अमेरिका लाए थे। उत्तर पूर्व के कुछ छोटे किसानों ने इसे वहाँ उगाना शुरू किया था। लेकिन इसे बहुत लोकप्रियता नहीं मिली थी क्योंकि फलियों के उत्पादन तक पहुँचने में पौधों को पांच वर्ष लगते थे। कोलंबिया से कॉफ़ी को विदेशों में बेचने में इससे भी आगे लगभग सौ वर्ष लग गए और इसका पहला आयात लगभग 1800 वर्ष तक ही संभव हो पाया। आज कोलंबिया दुनिया की श्रेष्ठतम कॉफ़ी के लिए जाना जाता है और इसका वास्तविक श्रेय हमारे देश की 'अमूल’ जैसी कोआपरेटिव संस्था 'नेशनल फेडरेशन कॉफ़ी ग्रोअर्स ऑफ़ कोलंबिया’ को जाता है जो 1927 से स्वयं के लिए बिना लाभ कमाए देश के कॉफ़ी उगाने वाले पांच लाख छोटे किसानों को हर प्रकार की सहायता देने के अलावा इस उद्योग को कॉर्पोरेट संस्थाओं से मुक्त रखती है। इस सहकारी समूह के अधिकाँश सदस्य छोटे छोटे परिवार हैं। इस संस्था ने ही अपनी अभिनव टी वी प्रचार श्रृंखला द्वारा 1983 में पहली बार जुआन वाल्देज़ और उसके वफ़ादार गधे कोंचिताको दुनिया भर के दर्शकों के बीच  अमर कर दिया था। कहा जाता है कि इस विज्ञापन माला ने पचास वर्ष पहले हमारे देश की 'अमूल’ श्रृंखला से बहुत कुछ सीखा था और अमूल के संस्थापक डॉक्टर वर्गीज़ कुरियन के आग्रह पर सिल्विस्टर दा कुन्हा और चित्रकार यूस्टेस फर्नांडेज़ द्वारा रचित लाल पोल्का डॉट की फ्रॉक और नीले बालों वाली 'अमूल गर्ल’  ने सुदूर कोलंबिया में कॉफ़ी बेचने की कला को बेतरह प्रेरित किया था। मुझे याद है कि नब्बे के दशक में अपने मैनेजमेंट कोर्स के सिलसिले में जब मैं आनंद में कुरियन से मिला था तो उनका एक वाक्य मुझे बार बार याद आता रहा था कि उन्हें राजनीतिज्ञों से सख्त नफ़रत है क्योंकि वे आपको अपने तरीके से काम करने देने की जगह हर चीज़ में अपने पालतू 'क्रोनी’ उद्योगपतियों का हित तलाशते रहते हैं। दिल्ली की सीमा पर धरने के लिए बैठे लाखों किसानों की तस्वीरों को देखते हुए फिर एक बार कुरियन को नमन करते हुए मैं सोचता हूँ कि 'अमूल गर्ल’, 'वल्देज़’ और 'कोंचिता’ जैसे काल्पनिक पात्र मिलकर क्या इस दुनिया के तमाम बिके हुए भ्रष्ट राजनीतिज्ञों के मंसूबों को ध्वस्त नहीं कर सकते?

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यूं तो सारा कोलंबिया अपनी 1600 तितलियों और 1900 पक्षी प्रजातियों के लिए विख्यात है, लेकिन रिसाराल्दा राज्य में स्थित ततामा नेशनल नेचुरल पार्क पूरी दुनिया से पक्षी और तितली प्रेमियों, ऑर्किड विशेषज्ञों, प्राणीशास्त्रियों और वनस्पति जानकारों को अपनी ओर आकृष्ट करता है। हमने सोचा था कि हमारी आरामदेह कार हमें अपने गंतव्य मोंतेजुमा रेन फारेस्ट लॉज तक पहुंचाएगी, लेकिन छोटे से गाँव पुएब्लो रिको पहुँचने के बाद हमें सामान सहित  कार से उतरने को कहा गया। बाकी का 13 किलोमीटर का सफ़र हमें संकरे पहाड़ी रास्ते पर बैटरी से चालित एक विशेष गाड़ी में बिना सामान लिए तय करना था और हमारा सामान एक अन्य खेप में अलग से पहुंचाया जाने वाला था। कुछ वर्ष पहले इसी तरह का सफ़र हमने अरुणाचल प्रदेश के नामदाफ़ा जंगलों में पैदल चलते हुए गुज़ारा था जहां हमारा सामान अलग से हाथी पर चलता था। यहाँ तातामा पार्क में डीजल गाडिय़ों की आवाजाही पर प्रतिबन्ध भी था।

मोंतेजुमा का यह पहाड़ी रास्ता बेहद तंग था, लेकिन दिन में कई कई बार यहाँ से गुज़रने वाला गाड़ी चालाक यहाँ के हर घुमावदार मोड़ से बखूबी परिचित था। हमें वहां अपनी जगह से न हिलने और खिड़की से बाहर न झाँकने की सख्त ताकीद दी गयी थी। ऊपर चढ़ते हुए जहां तक नज़र जाती थी, पहाडिय़ों पर फैला अंतहीन घना जंगल था। ततामा और मोंतेज़ुमा की इन पहाडिय़ों पर यदि कोई भटक जाए तो उसके लिए वहाँ से निकल पाना असंभव होगा।

प्राचीन सभ्यताओं की तरह लातिन अमेरिका के पक्षी भी हमारे पक्षियों से सर्वथा भिन्न हैं और इन्हें नयी दुनिया के पक्षियों के रूप में जाना जाता है। हमारी पुरानी दुनिया के कुछ पक्षी भी यहाँ मौजूद हैं और कहा जाता है कि ये प्रशांत सागर के फैलाव को पार करने की जगह ग्रीनलैंड  और उत्तरी ध्रुव के पास के इलाके से यहाँ पहुंचे हैं। यानी ये पक्षी इंसान से भी पहले इस नयी दुनिया को खोज चुके थे। हमारे पुरानी दुनिया के पक्षियों के मुकाबले लातिन अमेरिका के रंग बिरंगे पक्षी कहीं अधिक विविध और चकाचौंध कर देने वाले हैं। मध्य अमेरिका और कोलंबिया में पाए जाने वाले क्वेटज़ेल पक्षियों की आधा दर्जन प्रजातियों के हरे, लाल, पीले और नीले पंख प्राचीन काल में  महाराजाओं और सैनिकों के मुकुटों की शोभा बढ़ाते थे। क्वेटज़ेल शब्द अज्टेक प्रदेश में बोली जाने वाली प्राचीन भाषा नहुआती का है जिसका अर्थ है 'सीधे खड़े हो जाने वाले पूंछ के चमकदार पंख’। लातिन अमेरिका की पारंपरिक चित्रकला और कलाकृतिक छवियों में हमारे मोर की तरह क्वेटज़ेलया उसके जोड़े अलग-अलग मुद्राओं में सुसज्जित दिखाई देंगे। लंबी पूंछ वाला चमकदार क्वेटज़ेल न सिर्फ ग्वातेमाला का राष्ट्रीय पक्षी है बल्कि वहां की मुद्रा भी क्वेटज़ेल नाम से ही जानी जाती है।

उस पहाड़ी रास्ते से मोंतेजुमा की ओर बढ़ते हुए हम अपने सफ़र के पहले सुनहरी सिर वाले क्वेटज़ेल को देखते हैं। भूरे, लाल और चमकदार हरे रंग के क्वेटज़ेल को सामने की डाल पर ऐन हमारे सामने बैठा देखकर गाड़ी का चालाक भी धीरे से, बिना आवाज़ किए अपना वाहन रोक देता है। क्वेटज़ेल दो तीन क्षणों तक चित्रित आँखों से हमारी ओर देखता है, फिर अपनी चमकदार आभा के साथ उड़कर उस गहरे हरे जंगल में विलीन हो जाता है। 'बुएना सुएर्ते!’ -खुश आमदीद! - ड्राइवर ख़ुशी से हाथ हिलाता है—शायद यात्रा के आरम्भ में क्वेटज़ेल का दिखना बेहद शुभ कहा जा सकता है।

रास्ते के नीचे पेड़ों में कोलंबिया के सलेटी टीटी बंदरों का गिरोह है। हमारा गाइड बाद में बताता है कि इन बंदरों के रिश्तेदार हमारे अपने लाल मुंह के बंदरों की तरह शहरी इलाकों में भी देखे जा सकते हैं और यहाँ से कुछ उत्तर में स्थित मेडेलिन शहर में तो कई सदियों से इनका भारी जमावड़ा है। चुस्त जंगली टीटी बंदरों के मुकाबले ये शहरी बंदर अपेक्षाकृत सुस्त, मोटे, निर्भीक और लद्दड़ नज़र आएँगे, हमारे अपने शहरी बंदरों की तरह।

कुछ आगे घने जंगल के बीच रास्ता मोंतेजुमा रिसोर्ट की ओर उतर गया था। यहाँ एक छोटे से दोमंज़िला मकान में नीचे रसोईघर और खुला भोजन कक्ष था। ऊपर की मंज़िल पर रिसोर्ट के मालिक टपास्को परिवार का निजी घर था और जंगल के बीच यहाँ वहां छोटे छोटे कॉटेज थे जिनमें उस वक्त भी कीड़ों से बचाव के लिए मच्छरदानियाँ तनी हुई थी। भोजन कक्ष के आसपास पेड़ों के तनों  पर पक्षियों को आमंत्रित करने वाले कई तरह के 'फीडर’ थे जिनपर अनगिनत पक्षियों की आवाजाही थी—सुर्ख लाल रंग वाले 'टैनेजर्स’, पीले, नीले और हरे रंग के 'यूफोनिया’ पक्षी और लम्बी सुईदार चोंचों वाली बेहिसाब 'हमिंगबर्ड’, जिनकी फीडर के छेद में चोंच डालकर मीठे पानी को पीने की प्यास अनंत लगती थी। इनके अलावा कई अन्य रंग बिरंगे पक्षी, जिन्हें अभी हम पहचानते भी नहीं थे। इन्हीं फीडर्स से कुछ दूरी पर आरामकुर्सी लगा सब के बीच बड़े चूहे के आकार का एक जानवर भी भोजन की तलाश में उधर आ निकला। हमारा गाइड हर्नन बताता है कि यह शर्मीला 'काला अगौती’ है जो कोलंबिया के जंगलों में आम पाया जाता है और जो शाम के बाद ही बाहर निकलता है।

अगली सुबह तड़के हम पैदल उसी संकरी सड़क पर रिसोर्ट से आगे पैदल निकले तो मौसम बेहद  ठंडा था और सूरज निकलने में अभी काफ़ी समय बाकी था। यह रास्ता रिसोर्ट की चार हज़ार फीट की ऊंचाई से धीरे धीरे ऊपर चढ़ता हुआ पहाड़ी की साढ़े आठ हज़ार फीट की ऊँचाई वाली  चोटी तक जाता है। इसे पैदल पार करने की कठिनाई को पीछे से आती रिसोर्ट की गाड़ी ने आसान बना दिया। इसके बाद वापसी का उतराई का सफ़र हमें आराम से जंगल का आनंद लेते हुए दोपहर तक पैदल पूरा करना था।

पहाड़ के ऊंचे पेड़ों पर हमें लातिन अमेरिका की ख़ास पहचान वाले 'टुकन’ पक्षी मिले जिनकी बड़ी बड़ी आँखों के रंगीन घेरे और मोटी, लम्बी, हमारे धनेश से भी बड़ी रंग-बिरंगी चोंच के सिरों पर बने आरी जैसे दांत इसे एक डरावनी प्रतीति देते हैं। लेकिन वास्तव में इनके ये आरी जैसे दांत बहुत मज़बूत न होते हुए भी दूसरे पक्षियों, साँपों और छोटे जानवरों को डराने में काफी कारगर साबित होते हैं। इस विशालकाय चोंच से टुकन दूर की हल्की शाखाओं से फल तोडऩे और अपने आरीदार जबड़ों से फलों को छीलने का काम लेते हैं। टुकन दुनिया के सबसे सर्वप्रिय पक्षियों में से है। इंग्लैंड की प्रसिद्ध शराब 'गिनेस’ के विज्ञापन 'लवली डे फॉर ए गिनेस’ में आपको  उड़ती 'टुकन’ की बड़ी चोंच पर शराब के दो गिलास संतुलित दिखाई  देंगे और इसके अलावा भी इसकी तस्वीर न जाने कितने खाद्य और दूसरे ब्रांडेड सामान पर सुशोभित मिल जाएगी, हमारे अपने 'किंगफ़िशर’ की तरह । लेकिन जंगल में, अपने प्राकृतिक परिवेश के बीच 'टुकन’ को देखने का आनंद कुछ और ही है। मध्य से लेकर दक्षिणी लातिन अमेरिका में 'टुकन’ की कोई चालीस-पचास प्रजातियाँ पायी जाती हैं। इनमें से हरेक की अपनी रंग बिरंगी पहचान है जिससे इनकी शिनाख्त करना बहुत मुश्किल नहीं है। दुनिया का सबसे बड़ा टोको 'टुकन’ कुल 25 इंच लंबा होता है और इस लम्बाई का आधे से अधिक हिस्सा इसकी विशालकाय चोंच का होता है। 'टुकन’ की सबसे छोटी प्रजाति 'टूकानेट’ कहलाती है और सबसे बड़ी 'अरासारी’, और इसके ये नाम यहाँ की आदि भाषा टुपी से पुर्तगाली और स्पेनिश में आए हैं। लातिन अमेरिका की प्राचीन सभ्यताओं में 'टुकन’ के स्वरूप के कारण इसे मनुष्यों और प्रेतात्माओं के बीच के संवाद  का माध्यम माना जाता है और इसका शिकार भी नहीं किया जाता। इन संस्कृतियों में आपको क्वेटज़ेल की ही तरह 'टुकन’ की रंगीन कलाकृतियाँ भी अक्सर दिखेंगी और हमारे बाघ की तरह यह अब इन लातिन अमेरिका  जंगलों की ख़ास पहचान का दर्ज़ा ले चुका है।

पहाड़ी की चोटी पर एक फौजी चौकी थी। हमें देख कुछ सिपाही बाहर आ हमसे बातें करने लगे।  हमारे भारी भरकम कैमरों को देख उन्होंने बहुत इसरार से हमारे साथ तस्वीरें भी खिंचवाई। इस बीच हमारा गाइड खानापूरी के तौर पर  तमाम परमिट संबंधी कागज़ात उन्हें दिखा चुका था। हमारे लिए देश के बीचोंबीच घने जंगल में सेना की उपस्थिति का औचित्य समझना मुश्किल था। गाइड ने बताया कि वहां सेना की प्रमुख ज़िम्मेदारी ड्रग्स के तस्कर गिरोहों पर निगाह रखने और उन्हें पकडऩे की है। हमारे लिए कोलंबिया के इस अत्यंत शक्तिशाली ड्रग्स माफ़िया को कुछ हद तक समझना अभी शेष था।

पहाड़ी से वापस उतारते हुए रास्ते में कई रंगों के अनेक नए 'टैनेजर’ पक्षी मिले। नयी दुनिया के पक्षियों में 'टैनेजर’ एक बड़ा पक्षी समूह है जिसकी कोई ढाई सौ प्रजातियाँ उत्तरी से लेकर लातिन अमेरिका में मिलती हैं लेकिन हर प्रदेश अपनी ख़ास प्रजातियों से जाना जाता है। आसमानी से  नीले, पीले, भूरे, हरे, नारंगी और सुर्ख लाल तक के रंग के 'टैनेजर’ अक्सर रिसोर्ट के आसपास के फीडर्स पर भी देखे जा सकते थे।

वापसी की पैदल यात्रा से थककर जब हम वापस रिसोर्ट पहुंचे तो एक बड़े फ्लास्क में भरा हरी चाय से मिलता जुलता गर्म पेय हमारा इंतज़ार कर रहा था। उसे पीते ही पूरे शरीर में जैसे एक नयी शक्ति का संचार महसूस हुआ। जब हममें से हरएक ने इसका एक और कप लेने के लिए हाथ आगे बढ़ाया तो मालिक की बेटी मिशेल मंद मंद मुस्कुराने लगी।यह कोका पत्तियों का सत्व था जिसे चाय की तरह पत्तियों पर खौलता पानी डालकर बनाया जाता है। ये पत्तियाँ इन जंगलों में उगती हैं और आदिकाल से इंका और अज्टेक जातियां थकान दूर करने और कई व्याधियों से मुक्ति पाने के लिए इन्हें दांतों के बीच चबाती और इसके सत्व का सेवन करती रही हैं। इन पत्तियों में चार तरह के 'अल्कालोयड’ पदार्थों के अलावा कैलोरी शक्ति, कार्बोहाइड्रेट, खनिज और विटामिन भी होते हैं। यूं तो कोका की पत्तियों में पाने वाले चारों 'अल्कालोयड’ नशीले होते हैं लेकिन इनमें सबसे घातक और लत लगाने वाला 'अल्कालोयड’ है कोकीन! प्राकृतिक रूप से इन पत्तियों में पाए जाने वाले ये 'अल्कालोयड’ इतनी कम मात्रा में होते हैं कि नुक्सान पहुंचाने की जगह ये शरीर में दवा का सा असर करते हैं। लातिन अमेरिका की जनजातियाँ तो सदियों से इन पत्तियों के प्रभावकारी औषधीय गुणों को जानती थी। प्रदेश से बाहर मनोरंजन  के लिए इन पत्तियों के सत्व का पहला इस्तेमाल कोका कोला कंपनी ने किया जिसने अपने पेय का नाम ही इसपर रख डाला। कोका कोला में 1885 से बीसवीं सदी के आरंभ तक आधिकारिक रूप से कोका पत्तियों के सत्व का इस्तेमाल होता रहा और शायद आज भी होता हो, लेकिन इसके फार्मूला की गोपनीयता के चलते पक्के तौर पर कुछ कह पाना मुश्किल है।

कोलंबिया के अलावा इक्वेडोर, बोलीविया, पेरू और अर्जेंटीना जैसे तमाम देशों में कोका पौधों की खेती होती रही है  और ये पत्तियाँ बाहर भेजी जाती रही हैं। लेकिन बीसवीं सदी के इंसान ने जब इनसे नशीली कोकेन निकालने की पद्धति विकसित कर ली तो इसकी अवैध खेती और उससे कोकेन बनाने का व्यापार, नशे का एक भयानक अंतर्राष्ट्रीय कुचक्र बनता चला गया,जिसकी चपेट में आज पूरा विश्व आ चुका है। अनुमान है कि पेरू में सबसे अधिक 60 हज़ार और बोलीविया में 50 हज़ार टन कोका पत्तियों की खेती होती है, जिनके मुकाबले कोलंबिया का 15 हज़ार टन पत्तियों का उत्पादन अपेक्षाकृत कम है और वहां इसकी खेती पर आंशिक प्रतिबन्ध है लेकिन इसके बावजूद इसे पूरी तरह रोक पाना लगभग असंभव है। सारे प्रतिबंधों के बावजूद कोलंबिया और मेक्सिको के खतरनाक ड्रग सिंडिकेट आज भी इस नशीले पदार्थ की सप्लाई के प्रमुख गढ़ हैं और कहा जाता है कि दुनिया की कुल 400 से 500 टन कोकेन का लगभग 60 प्रतिशत हिस्सा चोरी-छिपे ढंग से आज भी कोलंबिया में तैयार होकर विदेशों में जाता है। इतने कोकेन के अरबों डॉलर के व्यापार ने कोलंबिया में कई ताकतवर ड्रग तस्करों को जन्म दिया है और इनमें से कई तो  देशों की सरकारों से भी अधिक साधन संपन्न और शक्तिशाली हैं। ऐसे में मोंतेजुमा पहाड़ी पर तैनात चंद सिपाहियों के टुकड़ी किस कदर नाकाफ़ी है यह समझना बहुत मुश्किल नहीं था।

कोका पौधों से जुड़ी इस सारी जानकारी के बाद तो कुछ समय तक कोका चाय की ओर बढ़ते हमारे हाथ एकबारगी थम से गए थे। लेकिन कोका पत्तियों से बनने वाले पेय पर उंगली उठाना फ़िज़ूल था। आने वाले दिनों में कोलंबिया से आगे पेरू में भी हम इस चाय का भरपूर लुत्फ़ उठाने  वाले थे। पेरू में तो इसे इंकाओं के पारंपरिक पेय के रूप में गर्व से पेश किया जाता है और कुस्को के जिस होटल में हम रुके, वहाँ तो हर मंज़िल पर पानी की जगह चौबीसों घंटे कोका चाय की निश्शुल्क सेवा उपलब्ध थी।कोका चाय की तासीर चाय और कॉफ़ी से भी मंद होती है और इसे आप एक थकान भरे दिन के बाद रात में सोने से पहले भी आराम से पी सकते हैं।लेकिन इसके बावजूद यह भी सच है कि लातिन अमेरिका संसार से बाहर कोका पत्तियों के साथ पाया जाना भी एक दंडनीय अपराध है और इसे पान की तरह चबाने या इसकी चाय पीने की तो कल्पना भी नहीं की जा सकती।

लातिन अमेरिका में  कोका के ये पौधे पिछले आठ हज़ार वर्षों से उगाये जाते रहे हैं और इंकाओं के लिए तो इसकी पत्तियाँ सोने से भी अधिक बहुमूल्य मानी जाती थी। व्यक्ति के मरने पर उसकी कब्र में बाकी सामन के साथ साथ कोका की पत्तियाँ भी रखी जाती थीं। लोग न सिर्फ औषधि के रूप में इन पत्तियों का इस्तेमाल करते थे बल्कि त्यौहारों और अनुष्ठानों में भी इनका महत्वपूर्ण स्थान था। इन जीवनदायी पत्तियों से मारक कोकेन तक पहुँचने का सफ़र शायद वैज्ञानिक विकास के नाम पर प्रकृति के बदइस्तेमाल और इंसान की आत्महंता प्रवृत्ति के उजागर होने का तकलीफ़ भरा उदाहरण भी है।

एंडीज़ पहाड़ों की अनंत किंवदंतियों में एक कहानी यह है कि वहाँ कभी कुका नाम की एक अत्यंत सुन्दर स्त्री का वास था, जो इतनी रूपवती थी कि किसी भी पुरुष के लिए उसके मोहपाश से बच पाना मुश्किल था। अपने इस सौन्दर्य का भरपूर इस्तेमाल करवह अपने शिकार का फ़ायदा उठा अंतत: उसे सर्वनाश की ओर धकेल देती थी। जब महान इंका प्रमुख को इसकी जानकारी मिली तो उन्होंने उस स्त्री की बलि देने और उसके शरीर को दो किस्सों में काटकर ज़मीन में गाड़ देने का आदेश दिया।कहा जाता है कि उसकी समाधि से एक चमत्कारी पौधा फूट निकला जो शक्ति देने और दर्द तथा यंत्रणा का नाश करने के साथ साथ आसक्ति में जकड़  लेने वाला भी था। उस सुन्दर, अप्रतिरोध्य स्त्री की याद में लोगों ने उसे कोका नाम दिया। कोका से कोकेन बनने की कथा भी शायद इस प्रतीकात्मक कहानी से मिलती जुलती है। कोकेन के पाश में फंस जाने के बाद उससे मुक्त हो पाना कुका स्त्री की आसक्ति से निकल पाने जितना ही मुश्किल है।

कोकेन के आधुनिक दुरूपयोग के बावजूद कोका की पत्तियाँ आज भी एंडीज़ और लातिन अमेरिका संस्कृति का एक अभिन्न हिस्सा हैं। इन्हें चबाने से दर्द कम होता है, पहाड़ी ऊंचाइयों तक चढऩे में सहायता मिलती है और कई अन्धविश्वासी लोग तो यहाँ तक मानते हैं कि इनके सेवन से भविष्य को जाना जा सकता है। यदि इस अतिशयोक्ति को छोड़ दें तो कोका पत्तियों के विभिन्न फायदों का वैज्ञानिक आधार है। कोका पत्तियों में मौजूद 'अल्कालोयड’ ह्रदय की गति को बढ़ाते हैं, शरीर को शक्ति दे भूख-प्यास कम करते और थकी मांसपेशियों को राहत देते हैं। श्वास नली को खोल ये सांसों का हांफना कम करते हैं। इनमें कीटाणु विरोधी तत्वों के अलावा आयरन और विटामिन बी तथा सी प्रचुर मात्र में होते हैं और इसमें विद्यमान कैल्शियम हड्डियों को जोडऩे में सहायक होता है । लेकिन पत्तियों के प्राकृतिक स्थिति से कोकेन के सफ़ेद पाउडर में बदलते ही ये सारे गुण एक भयानक, नष्ट कर देने वाली लत में तब्दील होने लगते हैं। दृष्टव्य है कि 20 ग्राम कोका पत्तियों के सेवन से कोई 70 नैनोग्राम 'अल्कालोयड’ शरीर में जाता है जब कि कोकेन लेने वालों के न्यूनतम डोज़ में इससे कोई पांच हज़ार गुना अधिक कोकेन होता है जो एक लाभकारी औषधि को  खतरनाक ड्रग में तब्दील कर देता है। दिलचस्प यह भी है कि कोकेन की लत छुड़ाने का एक कारगर तरीका रोगी के लिए नियमित रूप से कोका पत्तियों को चबाना माना गया है।

सोलहवीं शताब्दी में जब कोलंबस के वंशजों के साथ धर्म परिवर्तन का नारा लगाते पादरी यहाँ आए थे तो उन्होंने जनजातियों के धार्मिक अनुष्ठानों में कोका पत्तियों का विशेष स्थान देखकर उन्हें इनसे दूर रहने की सलाह दी थी। लेकिन जल्दी ही उन्हें इसका व्यावसायिक पक्ष समझ में आ गया था और वे अपने बंदी श्रमिकों को नियमित रूप से कोका पत्तियाँ खाने को देते रहे ताकि कठिन श्रम के दौरान वे थकें नहीं और इस तरह उनकी उत्पादकता बढ़ाई जा सके। आज भी गरीब श्रमिक वर्ग में इन पत्तियों का उपयोग सबसे प्रचलित है। गरीब किसानों का यही वर्ग वैध-अवैध तरीकों से कोका पत्तियों की खेती करता है और फिर इन पत्तियों को सुखाकर इसकी घनित लेई बनाता है जो ड्रग बिचौलियों द्वारा अच्छे खासे दाम पर खरीद ली जाती है। यह सौदा किसी भी अन्य फसल उगाने से कहीं अधिक लाभकारी है और इसी के चलते कोलंबिया, पेरू और बोलीविया की सरकारें बहुत कोशिश के बाद भी ड्रग्स बनाने और इसकी तस्करी रोकने के प्रयासों में विफल रही हैं।

1860 में एक वैज्ञानिक ने पहली बार कोका पत्तियों से कोकेन अलग करने में सफलता पायी थी। इससे आगे तस्करों के लिए कुछ ही वर्षों में इन पत्तियों से कोकेन निकालने को एक गृह उद्योग की शक्ल देना और कोका की घनित लुगदी को चोरी छिपे चल रहे छोटे कारखानों तक पहुंचाना बहुत मुश्किल नहीं रह गया था।

आज भी दक्षिणी और उत्तर पूर्वी कोलंबिया के बड़े इलाके में कोका की खेती से लेकर कोकेन के सफेद पाउडर के निर्माण तक का माफिया तंत्र बेहद सुचारू ढंग से काम कर रहा है और अरबों डॉलरों का यह व्यापार ही पूरी दुनिया में कोकेन की सप्लाई के लिए मुख्य रूप से ज़िम्मेदार है।

कोका के पौधे में सिर्फ दो महीनों के दौरान घनी पत्तियाँ उगती हैं और चाय के पौधों की तरह इसकी झाडिय़ाँ कम से कम बीस वर्षों तक जीवित रहती हैं। हाथ से पत्तियों को तोड़ इन्हें कूटकर इनमें पेट्रोल, सीमेंट, एसिड, चूना और साल्वेंट मिलाकर इसकी लुगदी को सुखाया जाता है। एक टन पत्तियों से कुल एक किलो घनीकृत लुगदी निकलती है जो लागत मूल्य से कोई नौ गुना दाम पर नौ सौ डॉलर प्रति किलो के हिसाब से बिचौलियों द्वारा आसानी से खरीद ली जाती है।इससे आगे यह चोरी छिपे कई कई कारखानों में शुद्धीकरण की अनेक  सीढिय़ों से गुज़रती हुई जब शहर के अंतिम ग्राहक तक पहुँचती है तो इसका दाम एक हज़ार डॉलर प्रति ग्राम या दस लाख डॉलर प्रति किलो हो चुका होता है। इस बेशकीमती सामान का सबसे बड़ा बाज़ार आज भी अमेरिका है जहां यह ज़मीन के रास्ते, जहाज़ों या चार्टर उड़ानों द्वारा किसी न किसी तरह पहुँच ही जाती है। ड्रग से प्रभावित देश कई बार लातिन अमेरिका से कोका पत्तियों की खेती पर प्रतिबन्ध लगाने की बात कर चुके हैं लेकिन ऐसा करना आसान नहीं।

1970 के बाद से अमेरिका और योरोप में कोकेन की बढ़ती मांग ने लातिन अमेरिका और विशेषत: कोलंबिया में अति शक्तिशाली ड्रग शहंशाहों का उदय हुआ है, जिसने जन जीवन के अलावा यहाँ की राजनीति को बेतरह प्रभावित किया है। इनमें सबसे शक्तिशाली नाम पाब्लो एस्कोबार का है जिसने 1975 में कोकेन का धंधा शुरू किया था और जो स्वयं  हवाई जहाज़ उड़ाकर कोलंबिया से ड्रग्स को पनामा पहुंचता था, जहां से उसकी कोकेन अमेरिका के कई ठिकानों तक पहुँचती थी। इस पैसे से उसने अपने धंधे के लिए पंद्रह छोटे हवाई जहाज़ और छ: हेलीकाप्टर खरीदे और उद्दंडता की पराकाष्ठा में अपने पुराने हवाई जहाज़ को रद्द कर उसे एक निशानी के रूप में अपने हसिएन्दा नेपोलेस स्थित फार्म के दरवाज़े पर लटका दिया। 1976 में एस्कोबार और उसके कई साथियों को मेडेलिन शहर में 18 किलो कोकेन के साथ गिरफ़्तार किया गया लेकिन उसने शहर की अदालत में मुक़दमे की सुनवाई कर रहे न्यायाधीशों को घूस देने में कामयाबी पायी और कुछ महीनों बाद ही उसपर लगा मुकदमा रद्द कर दिया गया। यहीं से एस्कोबार और सत्ता के बीच साठगाँठ का लम्बा सिलसिला शुरू हुआ जिसे कालान्तर में मेडेलिन कार्टेल नाम से जाना गया। इसने सरकारी और कानूनी अधिकारियों को पैसे से खरीद कर अपनी सुरक्षा के लिए आधुनिकतम हथियार मुहैय्या किये और कई दूसरे नामी-गिरामी तस्करों को भी अपने गिरोह में शामिल किया। अब इस गिरोह के पास एक निजी द्वीप पर अपनी हवाई पट्टी, बंदरगाह, होटल, घर, स्पीडबोट और हवाई जहाज़ थे। दौलत की इंतहा में उसने कोकेन के भंडारण के लिए एक वातानुकूलित वेयरहाउस भी बनाया। कहा जाता है कि इस धंधे के ज़रिये हर महीने सत्तर से अस्सी टन कोकेन प्रति माह कोलंबिया से संयुक्त राष्ट्र अमेरिका के विभिन्न शहरों तक पहुँचती थी। इस धंधे में मेडालिन कार्टेल अकेला नहीं था। कोलंबिया में ही एक और काली कार्टेल था जिन दोनों के बारे में देश के राष्ट्रपति ट्रुजिलो ने कहा कि ये दोनों कार्टेल देश के सबसे बड़े दुश्मन हैं। कहा जाता है कि 1996 में लातिन अमेरिका के ड्रग व्यापार का 75 से 80 प्रतिशत हिस्सा इन दोनों गिरोहों के हाथ में था और तब इनकी कमाई 6 से 8 ख़रब डॉलर प्रति वर्ष आंकी गयी थी। अमरीकी अधिकारियों के अनुसार तब ये दोनों कार्टेल  प्रति वर्ष 50 अरब डॉलर घूस पर खर्च करते थे। कोलंबिया  के तत्कालीन राष्ट्रपति वर्जिलियो वर्गास के अनुसार ये इतने शक्तिशाली थे कि किसी चुनी  हुई सरकार का तख्ता भी पलट सकते थे। इस दौरान घूस स्वीकार न करने वाले न जाने कितने ईमानदार अधिकारियों और राज्य प्रमुखों को इन कार्टेलों के हाथ अपनी जान गंवानी पड़ी थी।

2012 में कोलंबिया, वेनेज़ुएला और संयुक्त राष्ट्र अमेरिका के सम्मिलित अभियान में छ: बड़े ड्रग तस्करों को गिरफ्तार कर अमेरिका भेजा गया, लेकिन इसके बाद भी ड्रग का यह व्यापार लगभग यथावत चल रहा है जिसमें आये दिन नए किरदार सामने आने लगे हैं।

विडम्बना यह है कि पेड़ों की जो पत्तियाँ अज़तेक, माया और इन्का सभ्याताओं में सदियों से उपचार और थकान दूर करने का एक कारगर माध्यम बनी हुई थी, उन्हीं से आधुनिक इंसान ने अब कोकेन जैसा मारक नशीला पदार्थ बनाना सीख, इसकी लत में फंसे लोगों को इसकी अंधी, बेहिसाब अर्थव्यवस्था का गुलाम बना दिया है। संयुक्त राष्ट्र के आंकड़ों के अनुसार दुनिया के कोई दो करोड़ लोग किसी न किसी रूप में इन ड्रग्स का सेवन करते हैं जबकि भारत और अमेरिका में कोकेन का मूल्य लगभग सात से दस हज़ार रुपये प्रति ग्राम है, जिससे इस अवैध अर्थव्यवस्था के परिमाण का अंदाज़ा लगाया जा सकता है। कई देशों में ड्रग्स के साथ पाए जाने पर मृत्युदंड सुनिश्चित होने के बावजूद इसके सेवन में कोई कोई कमी नहीं आयी है। विभिन्न मादक ड्रग्स  की वरीयता में कोकेन के बाद सिंथेटिक  हेरोइन और मारियुआना का स्थान भी हमारी अपनी देशी अफ़ीम, डोडा और चरस से कहीं ऊपर है और इसका मूल्य भी  चरस से कोई पचास गुना अधिक होगा। ज़ाहिर है कि इसके सेवन का फैशनेबल चलन भी काला बाज़ारी से चालित होने वाले अमीरों के व्यवसायों, फ़िल्मी हस्तियों आदि में सबसे अधिक दिखता है। ताज्जुब यह भी है कि कोकेन के सबसे बड़े निर्माता कोलंबिया में कोकेन की आतंरिक मांग नहीं के बराबर है और यहाँ की 99 प्रतिशत कोकेन वैध-अवैध तरीकों से विदेशों में ही बिकती है।

इस नाटक का सबसे प्रभावित देश संयुक्त राष्ट्र अमेरिका लगातार कोलंबिया पर दबाव बना रहा है कि वह अपने देश में कोका की खेती पर प्रतिबन्ध लगाए। एक ताज़ा बयान में अमेरिका ने कहा कि ''वह गंभीरता से विचार कर रहा है कि कोलंबिया को ऐसा देश घोषित किया जाए जो लगातार ड्रग विरोधी अंतर्राष्ट्रीय समझौतों का उल्लंघन कर रहा है!’’ लेकिन इसके प्रत्युत्तर में कोलंबिया के राष्ट्रपति जुआन सांतोस ने गुस्से से कहा कि ''इस चुनौती से लडऩे में हमें किसी की धमकी स्वीकार्य नहीं है!’’

दरअसल दुरभिसंधि यह है कि कोका की खेती को समाप्त करना एक तरह से लातिन अमेरिका की प्राचीन सभ्यता के एक महत्वपूर्ण हिस्से को मिटा देने जैसा होगा और इससे लाखों गरीब किसानों के लिए रोटी-रोज़ी का ख़तरा भी खड़ा हो जाएगा। इस दुरभिसंधि को मुखर रूप से प्रकट करते हुए बोलीविया के तत्कालीन राष्ट्रपति इवो मोरालेस को 2009 में संयुक्त राष्ट्र की मीटिंग से पहले  भवन के बाहर सार्वजनिक रूप से कोका की पत्तियाँ चबाते देखा गया था। पूछे जाने पर उन्होंने स्पेनिश भाषा में कहा, ''अपने प्राकृतिक रूप में कोका पत्तियाँ स्वास्थ्य के लिए हानिकारक नहीं हैं!...मुझे गर्व है कि मैं न सिर्फ़ इसका उत्पादक हूँ, बल्कि इसे प्राकृतिक रूप में खाना भी मुझे पसंद है!’’

मोंतेजुमा रिसोर्ट में हमारी कोका चाय का दूसरा कप भी खाली हो चुका था और हमारी मेज़बान मिशेल हाथ में केतली लिए इसे दुबारा भरने के लिए तैयार खड़ी थी।

हमें यहाँ से आगे पेरू जाना था, जहां का एक प्रमुख आकर्षण विश्व विख्यात माचू पिचू शिखर की यात्रा होने वाली थी। अपनी शारीरिक सीमाओं के चलते हमारा इरादा इसे ट्रेन और बस से पूरा करने का था, लेकिन हमारे कुछ जांबाज़ मित्रों ने इस कठिन चढ़ाई को पांच दिनों के पैदल ट्रेक में पूरा करने का मन बनाया था। उन्हीं से बाद में पता चला कि उनके साथ चल रहे मार्गनिर्देशक और स्थानीय कुली उन्हें यात्रा के दौरान नियमित रूप से कोका की पत्तियाँ चबाने की सलाह देते रहे और उन्होंने भी माना कि वे पत्तियाँ यदि दुर्भाग्यवश उन्हें न मिली होती तो अपने स्वस्थ शरीर के बावजूद उस कठिन चढ़ाई को पूरा कर पाना उनके लिए असंभव होता!

 

 

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