रोज़ याद करने की ज़रूरत
व्योमेश शुक्ल
स्मरण-दो
इस बात पर यक़ीन कर पाना मुश्किल है कि आज की हिंदी कविता के केन्द्रीय महत्व के वास्तुकार - कवि-गद्य लेखक मंगलेश डबराल अब हमारे बीच नहीं हैं। बीते बरस, 27 नवंबर की रात साँस लेने में दिक्क़त होने पर उन्हें ग़ाज़ियाबाद के एक निजी अस्पताल में भर्ती कराया गया। तब तक उनका मेहनतकश जिस्म कोरोना से संक्रमित हो गया था। कुछ दिन बाद वह 'एम्स’ ले जाये गये, लेकिन तब तक शायद देर हो गयी थी। डॉक्टरों की कोशिश और हिंदी समाज की दुआ क़ुबूल न हुई और अपने लेखक, रोलमॉडल कवि-संपादक रघुवीर सहाय के जन्मदिन- 9 दिसंबर, 2020 की शाम बहत्तर वर्ष के मंगलेश डबराल नहीं रहे। एक बड़े अर्थ में मंगलेश डबराल हिंदी में 1990 के बाद सामने आई युवा लेखकों की उस पीढ़ी के 'रघुवीर सहाय’ ही थे, जिसने रघुवीर सहाय को नहीं देखा है। कविता, आलोचना, रिपोर्ताज़, यात्रा-संस्मरण, डायरी और संपादकीय जैसे लेखन के अनेक मोर्चों पर एक साथ सक्रिय रहने के अलावा उन्होंने विज़नरी और मूल्यनिष्ठ पत्रकारिता की उस कड़ी को बाज़ारवाद, उन्मादी राजनीति और नैतिक अध:पतन की तेज़ झोंक में टूटने से बचाए रखा, जिसका एक सिरा रघुवीर सहाय के पास था। इस सिलसिले में उन्होंने युवा कवियों और पत्रकारों के एक बड़े समूह का निर्माण किया। शोक और सूनेपन की इस घड़ी में मुख़्तलिफ़ सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स पर उमड़ी श्रद्धांजलियों से यह बात भी साफ़ हो गयी है कि आनेवाले समय में भी हिंदी के बहुत-से लेखक-पाठक मंगलेश डबराल के बग़ैर दृश्य की कल्पना नहीं कर पाएँगे। ग़ौरतलब है कि यह सिर्फ़ साहित्यिक मुद्दा नहीं है, बल्कि जीवन, संघर्ष और सुंदरता का एक वृहत्तर दृश्य है, जिसमें उनके व्यक्तित्व को रोज़ याद करते रहने की ज़रूरत बनी रहेगी। बेशक, उनकी कविता भी रोज़ याद करने की चीज़ है। भारत की साधारणता की ख़ूबसूरती और उसके रास्ते में आनेवाले अवरोध जितनी प्रामाणिकता और भरोसे के साथ उनकी कविता में गुँथे हुए हैं, उसकी मिसाल ढूँढऩा मुश्किल है। आज की तारीख़ में अगर धर्मनिरपेक्षता समकालीन कविता के सबसे बड़े मुद्दों में-से एक है, तो इतने सीधे और तल्ख़ बिंदु तक कविता को ले आने में उनकी मशहूर कविता 'गुजरात के मृतक का बयान’ की केंद्रीय भूमिका है। 1992 और 2002 की घटनाओं से गुज़र चुके देश में यह कविता कविकर्म का घोषणापत्र है। यह धर्मनिरपेक्षता उन्हें हिंदी की पूर्ववर्ती कविता से विरासत या उपहार में नहीं मिली, बल्कि अपने साथी कवियों के साथ मिलकर उन्होंने इसे निर्मित किया था। यह प्रोएक्टिव, ग़ैरतात्कालिक, ग़ैरसमझौतापरस्त धर्मनिरपेक्षता अपनी अभिव्यक्ति के लिए किसी दुर्घटना या तबाही का इंतज़ार नहीं करती और स्थापित कलात्मक मूल्यों से अपने लिए किसी रियायत या छूट की माँग भी नहीं करती। इस बात के लिए आधुनिक हिंदी साहित्य का इतिहास हमेशा उनका शुक्रगुज़ार रहेगा। इसी तरह पूरे संकोच के साथ वह हिंदी कविता को बदलते और बढ़ाते रहे। उनके प्रतिकार में हिंसा के लिए कोई जगह नहीं रही, बल्कि एक नैतिक ज़िद से हमारा सामना होता था, जो अपनी मौलिकता और सादगी से हमें अभिभूत भी कर लेती थी। मंगलेश डबराल हिंदी साहित्य के ईको सिस्टम से बहुत गहरे जुड़े हुए थे और उसमें किसी चोर दरवाज़े से घुसती चली आ रही कारोबारी मानसिकता और पाखण्ड के प्रदर्शन से चिंतित रहते थे। दरअसल, वह कभी भी कविता या साहित्य को विज्ञापन या प्रचार की वस्तु मानने के लिए तैयार नहीं हो पाए। एक जगह वह लिखते हैं : ''एक बुलेटिन में आठ या नौ लोकार्पणों की तस्वीरें छपी हैं। एक जैसी मुद्रा में, हाथों में किताबें थामे, उन्हें सीने से सटाये हुए विचार-मुद्रा में खड़े प्रतिष्ठित लोग। फ़िलहाल इसे हिंदी का 'पेज थ्री’ भी कहा जा सकता है। अभी वह रंगीन नहीं हुआ है। ऐसे समारोहों में पुस्तकों के रचनाकार प्राय: कुछ नहीं कहते, कुर्सी पर प्रतिमा की तरह बैठे रहते हैं और इस तरह कर्मकांड संपन्न हो जाता है। हिंदी साहित्य में यह कौन-सा युग है? लोकार्पण युग?’’ सत्तर के दशक की शुरुआत में उत्तराखंड के टिहरी गढ़वाल ज़िले के काफ़लपानी गाँव से चलकर इलाहाबाद, लखनऊ और भोपाल होते हुए मंगलेशजी दिल्ली पहुँचे; बचपन, पहाड़ों, नदियों और अतीत के तमाम अनुभवों को अपने सीने में रखकर आजीविका और जज़्बे की ख़ातिर पत्रकारिता में आए और आख़िरी साँस तक एक कवि के साथ-साथ पत्रकार भी बने रहे। उनकी ज़िन्दगी से यह बात भी सीखी जा सकती है कि लेखक होने के लिए और कुछ नहीं, सिर्फ़ संवेदना और सचाई की ज़रूरत है। वे लोग, जो लेखक बनने के सपने में छलाँग लगाना चाहते हैं, उन्हें मंगलेश डबराल की ज़िन्दगी - उनकी मूल्यनिष्ठा, जिज्ञासा, आत्मसजगता, कोमल अथक हठ और जज़्बे से बहुत-कुछ सीखने और अपनाने को मिल सकता है। मंगलेश डबराल मोहभंग और परिवर्तन की बेचैनी जैसी ज़िंदा और हिम्मती चीज़ों से बनकर आए थे। लेकिन यह उनके व्यक्तित्व का एकमात्र पहलू नहीं है। एक नागरिक लेखक के तौर पर मिलने वाली पराजयों से उनकी आत्मवत्ता लगातार टकराती रही। इस संघर्ष के बरअक्स उन्होंने अपने गद्य लेखन से पॉप्युलर कल्चर की आलोचना और संगीत, यात्रा, भूमंडल, शहरों, आंदोलनों और कविता की समझदारी को मज़बूत और ईमानदार बनाने का काम किया। उनकी रेंज और जिज्ञासाओं का कोई अंत नहीं था और वह लगातार सीखने की प्रक्रिया में रहते थे। आम तौर पर उनके पाये के लेखक अपनी मान्यताओं और आदर्शों में स्थिर हो जाते हैं, लेकिन उनका मन एक बच्चे की तरह तरल और कोमल था और किसी भी नए ख्याल और प्रयोग के लिए उसमें जगह बाक़ी रहती थी। मंगलेश डबराल ने अकेलेपन की बजाय सामूहिकता को चुना था। इसलिए उनके मित्रों-परिचितों, पाठकों और प्रशंसकों का संसार बहुत बड़ा है। उसकी थाह लगाना लगभग असंभव है, लेकिन यही बात उन मूल्यों के बारे में नहीं कही जा सकती, जिनके लिए हमने उन्हें जीते-मरते देखा है। उनके जैसे विचारक-कवि की मृत्यु के बाद जो अप्रत्याशित ख़ालीपन हिंदी कविता की मुख्यधारा में आनेवाला है; उसे मूल्यों के समर में उतरे बिना भरा नहीं जा सकता। यों, उन्मादी राजनीति, भोगवादी सभ्यता और नैतिक पतन का जैसा रचनात्मक और टिकाऊ 'क्रिटीक’ उनकी शख्सियत की मौजूदगी से ही संभव हुआ था, उसकी भरपाई अभी तो क्या, कुछ समय बीत जाने पर भी होती नहीं दिखती। हिंदी की दुनिया पर अभी बुराई का क़ब्ज़ा नहीं हुआ है; लेकिन अब सच-झूठ के घालमेल, प्रदर्शनपरकता और सत्तात्मक पारस्परिकता से पहले से आक्रांत साहित्य के परिसर में अच्छाई और बुराई के बीच तनी हुई शक्ति-संतुलन की वह नाज़ुक डोर टूट भी जा सकती है; हिंदी के अनोखे कवि-गद्यकार मंगलेश डबराल ने जिसे अपनी कविता और कविता जैसे गद्य से सँभाला था। कविता मंगलेश डबराल के सभी सरोकारों के बीच में थी। उन्होंने कविता के वज़न पर ज़िंदगी जीने की मुश्किल शर्तें ख़ुद पर लागू कीं और रचना को किताब, दुनियादारी या पेशे की सुविधाओं से बाहर ले जाते रहे। बतौर संपादक, उन्होंने लगभग तीन दशकों तक कुशाग्र और प्रतिबद्ध कविता को 'प्रमोट’ और 'प्रोजेक्ट’ किया, दुनिया-भर की अच्छी कविता को अनुवाद के ज़रिये यथाशक्ति हिंदी में ले आये और गद्य लिख-लिखकर कविता के बारे में ठोस, भरोसेमंद, सत्ताओं के लिये असुविधाजनक, विचारशील और जनवादी बातों का माहौल तैयार किया। वह कहते थे कि उनके पास काव्यचिंतन और आलोचना के पर्याप्त औज़ार नहीं हैं, लेकिन उनकी दो किताबों - 'लेखक की रोटी’ और 'कवि का अकेलापन’ को कविता की आलोचना की 'हैंडबुक’ की तरह पढ़ा गया। वे ऐसी आलोचना-पुस्तकें हैं, जिन्हें लंबे समय तक नौजवान आलोचकों के झोले में रहना चाहिये। उनके कवि-व्यक्तित्व की कोमलता को कमज़ोरी मानना भूल होगी। वह एक भीतरी धड़कन है जो अपनी ज़िद पर लगातार चलती रहती है। उसका निर्माण जिजीविषा की कठोरतम धातु से हुआ है। इस ग़लतफ़हमी को कभी-कभी उनकी कविता पर भी लागू करने की कोशिश हुई; जिसका कोई नतीजा नहीं निकलना था, सो नहीं निकला। उन्हीं के शब्दों में : ''मेरी कविता प्रगीतात्मक नहीं है. शायद प्रगीतात्मकता को लेकर हिंदी में कुछ भ्रांतियाँ हैं। मैं चाहता हूँ कि कविता ऐसी हो जैसे हवा या पानी या आसमान या कोई पत्ती या कोई आग या कोई अच्छा स्वाद या अच्छा स्पर्श। सहज, प्राकृतिक और सरल; लेकिन सिर्फ़ संरचना के स्तर पर - अनुभव के स्तर पर नहीं। मेरी कोशिश यह होती है कि वे लगभग शिल्पहीन हों. वे अपने शिल्प से स्वायत्त हो जाएँ। कविता को शिल्प से स्वायत्त कर पाना मेरा उद्देश्य रहा है। इससे अगर समझा जाता है कि यह प्रगीतात्मकता है तो समझा जाता रहे, लेकिन ऐसा है नहीं।’’ मनुष्य का दुख मंगलेश डबराल की निर्णायक शक्ति है। उनके व्यक्तित्व का भी स्थायी भाव। उनकी कविता और गद्य निजी और सार्वजनिक दुख के वस्तुनिष्ठ आकलन के दस्तावेज़ भी हैं। दरअसल दुनिया में प्रवेश का रचनाकार के पास यही एक रास्ता है जो दूर तक जाता है। बाक़ी रास्ते भी इसी में आकर मिल जाते हैं। एक जगह वह कहते हैं : ''दुख और अवसाद। मुझे लगता है कि जीवन और समाज में कई बार दुख और अवसाद एक बड़ी सकारात्मक भूमिका अदा करता है। ग्राम्शी का एक बहुत मशहूर कथन है कि 'आत्मग्लानि एक क्रांतिकारी भावना है।’ चारों ओर रोग, मृत्यु, भूख, शोषण और अत्याचार के बीच अगर आप कोई आत्मग्लानि महसूस करते हैं तो अपने आप में यह एक क्रांतिकारी भावना है। पश्चिम में, विश्वयुद्धों के बाद 'सेंस ऑफ सर्वाइवल’ और 'गिल्ट ऑफ सर्वाइवल’ - यानी 'बचे रहने की ग्लानि’ - बहुत ज़्यादा लोगों में रही है। ख़ुद ब्रेख्त की अनेक रचनाएँ हैं, जो इस भावना से भरी हुई हैं। एक हद तक शायद मुझमें यह है, लेकिन वह ग्लानि, दुख या अवसाद मेरे निजीपन से नहीं निकला है, बल्कि हमारे समय की सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक, भौतिक और आत्मिक दुनिया से आया है। इन्हें अपने भीतर लाकर। इन कविताओं में ये चिंताएँ एक निजी अवसाद की शक्ल ले लेती हैं। फिर भी, मैं बाहरी यथार्थ का निर्वहन भी करता रहूंगा। जो बहुत विफल रहे, जो रास्ते में गिर पड़े, जिनके तीर निशानों पर नहीं लगे, जो लोग अपनी छोटी-सी नाव लेकर समुद्र पार करने के लिए निकले थे वे रास्ते में ही डूब गए। ऐसे तमाम विफल लोगों की सूची नागार्जुन अपनी एक कविता में गिनाते हैं और कहते हैं कि मैं उनको प्रणाम करता हूँ। मुझे लगता है कि यह एक महान कविता है और अगर मैं इसे लिख पाता तो कितना अद्भुत होता।’’ लेकिन अलग-अलग अनुभवों के लिये उनके मन में दुख के बराबर ही जगह थी. किसी भी अच्छे कवि की तरह वह अपने अंत:करण में इन्हें एक द्वंद्वात्मक संहति में संभाले रहते थे। उनके किरदार में अनुभवों की इस जटिल स्थिति को समझने और किसी प्रमेय की तरह हल करने की नैतिकता थी। किसी भी शर्त पर वह जटिलता का निषेध नहीं करते थे और जटिलता को वैसे का वैसा स्वीकार भी नहीं करते थे। एक सरल वाक्य बचाना उनके यहाँ नारा या मुहावरा नहीं, मुक्तिबोधीय आत्मसंघर्ष का हासिल है। उनकी कविता इसलिए एक समाधान भी है : 'इस तरह की कविता लिखना जिसमें एक उम्मीद हो, एक आशा हो, एक नारा हो; यह भी मेरी लिखने की इच्छा होती है, लेकिन मैं लिख देता हूँ कि मैं चाहता हूँ कि सड़क पर जो नारा लग रहा है वह बचा रहे अपने अर्थ के साथ; तो यह भी एक काम है। अगर मैं चाहता हूँ कि वह नारा बचा रहे जो सड़क पर हमको सुनाई दे रहा है और मैं वह नारा नहीं लिख पा रहा हूँ, मैं उसके बचे रहने की कामना कर रहा हूँ, तो यह भी एक तरह का काम है। साहित्य में ऐसी कविता की ज़रूरत को मैं कम करके नहीं आँक रहा। मुझे लगता है कि आदमी के संघर्षों में, समाज के संघर्ष में इस तरह की भी कविता लिखी जानी चाहिए। वह भी ज़रूरी रचना है। शमशेर जैसे जटिल, दुरूह और अतियथार्थवादी कहे जाने वाले 'कवियों के कवि’ ने भी इस तरह की कविताएँ लिखी हैं।’ भीषण दुर्घटनाओं और बुरी ख़बरों का सामना वह अपने स्नायु-तंत्र पर करते हुए और शोर को संगीत की तरह लिखने की मनुष्यता पर ताउम्र टिके रहे। वह कविता के भीतर ही रहते थे और हमेशा एक ही भाषा में बात करते थे, चाहे कविता के बाहर ही क्यों न कर रहे हों। इसलिए उनके काव्यानुभूति के ढाँचे में एक स्थापत्य जैसी संगति दिखायी देती है। अपने समय की सभी ज़रूरी बहसों में शामिल रहते हुए उन्होंने अपनी रचनाओं के लिये कभी सफ़ाई नहीं दी, अच्छी कविता के लिये लडऩे के मोर्चे से कभी पीछे नहीं हटे और भाषा के भीतर और बाहर शालीनता और असहमति की रक्षा करते रहे। सवाल यह नहीं है कि उन्हें कैसे याद किया जायेगा, बल्कि शायद यह है कि उन्हें भुला देने के लिये कितना गिरना पड़ेगा। उन्हें मिले प्यार और आवेग को कम करके आँकने, जीवन-प्रसंगों में कमज़ोर पहलुओं की तलाश करने और सराहनाओं में पानी मिलाने की कुछ हरकतें इस बीच होने भी लगी हैं; लेकिन यह भी सच है कि ऐसे प्रयत्न कर रहे लोग हिंदी की प्रतिबद्ध, प्रगतिशील और विवेकवान मुख्यधारा के नागरिक नहीं हैं। घात लगाकर बैठे रहना और योद्धाओं का उपहास करने की कोशिश करना कुछ लोगों की आदत है। लेकिन मंगलेश डबराल की छवि हवा-जैसी पारदर्शी है - विरोधी जिसमें-से होकर गुज़र जायेंगे और वह वैसी की वैसी रही आयेगी।
'पहल’ के पाठक व्योमेश शुक्ल को अरसे से पढ़ते रहे हैं। उन्होंने अनेक रूपों में लेखन किया है। अपने शिल्प, अपनी भाषा में अपनी बात कहने का जो हुनर व्योमेश के पास है वह उन्हें भिन्न और मौलिक बनाता है। रंगकर्म के लिए पूरे देश में बड़ी पहचान है। 'रुपवाणी’ थियेटर के निर्माता हैं। उन्होंने विश्व साहित्य की अनेक अनूठी कृतियों का हिन्दी अनुवाद किये हैं। अनुवाद, कविता, निबंध, डायरी सभी विधाओं में व्योमेश का लेखन है और अभी उम्र केवल चालीस है। अंकुर मिश्र, भारत भूषण, उस्ताद बिसमिल्लाह खाँ पुरस्कार मिले। रज़ा फाउण्डेशन की फैलोशिप (2016) प्राप्त हैं। अभी अभी जीवन की पीठ पर विष्णु खरे की कविताओं का नायाब अध्ययन प्रकाशित हुआ। शीर्षक है - ''तुम्हें खोजने का खेल खेलते हुए।’’ सम्पर्क : मो. 7007946472
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