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अप्रैल 2021

कुछ मालूम नामालूम ख़बरें

जयप्रकाश चौकसे

पत्र

 

इंदौर

 

 

कुछ मालूम नामालूम ख़बरें

 

प्रिय ज्ञानरंजन,

 

राजकपूर 'रिश्वत’ नामक फिल्म बनाने चाहते थे। कथा कस्बे के सेवानिवृत्त शिक्षक और उसके पुत्र के रिश्ते की है जो केन्द्र में उद्योग विभाग का मंत्री है। शिक्षक के मित्र उस पर दबाव डालते है कि उसे दिल्ली जाकर अपने मंत्री पुत्र का वैभव देखना चाहिए। वह इसके लिए कतई राजी नहीं है, परन्तु मित्र रेलवे टिकिट खरीदकर उसे ट्रेन में बैठा देते हैं। मैंने राजकपूर को सुझाव दिए कि रेल की यात्रा में डिब्बों में विविध धर्मों को मानने वाले यात्री होते हैं। यात्रा में एक दूसरे के हालचाल जानते है। रेल का डिब्बा भारत की विविधता का प्रतीक है। मैंने यह सुझाव भी दिया कि 'जागते रहो’ की तरह सफेदपोश चोरों की भूमिकाएं भी बनाई जाएं। इस कथा में मायथोलॉजी का तड़का इस तरह लगाया जा सकता है कि एक चोर एक युवती के गले से सोने का हार चुराना चाहता है परन्तु वह जब भी प्रयास करता है, एक बालक मुस्कराता हुआ वहां खड़ा होता है। दिन में चोर ने यात्रियों ने कभी कोई बालक नहीं देखा है। रेल में भीख मांगता हुआ गायक भी है जो श्रीकृष्ण के बचपन का विवरण देने वाले भजन गाता है। चोर को विश्वास हो जाता है कि श्रीकृष्ण ने ही बालक के रूप में उसे चोरी करने से रोका है। अब वह निश्चय करता है कि चोरी चकारी छोड़कर, मेहनत मजदूरी करेगा। बॉक्स ऑफिस सफलता के लिए इस तरह का मायथोलोजिकल तड़का देना जरूरी है। वर्तमान में मायथोलोजिकल लोग शासन कर रहे हैं। सबसे अधिक धन कमाने वाली एस.एस. राजमौली की 'बाहुबली’ भी ऐसी ही फिल्म है जो तर्क और विज्ञान सम्मत विचार प्रक्रिया का अपमान करती है। 'बाहुबली’ हर क्षेत्र में सक्रिय है। ये लोग 'पहल’ नहीं पढ़ते, इसलिए आपको धमकी नहीं दी गई और गालियां भी नहीं सुनना पड़ी जबकि भॉस्कर विविध पाठक पढ़ते हैं। इसलिए मुझे फोन पर धमकाया जाता है, अपशब्द कहे जाते है। एक बार एक हुडदंगी ने घर आने का दुस्साहस किया। मेरे ज्येष्ठ पुत्र प्रमथ्यु ने उसे थप्पड़ मारा तो उनसे स्वीकार किया कि उसे इस तरह के काम के लिए वेतन मिलता है। इसलिए सरकार कहती है कि बेरोजगारी अफवाह मात्र है।

एक स्टेशन पर युवा प्रेमी कम्पार्टमेंट में प्रवेश करते है। उसके पास टिकिट नहीं है, कोई सामान नहीं है। वे हाथ जोड़कर यात्रियों को बताते हैं कि उनका जन्म अलग-अलग धर्म मानने वाले परिवारों में हुआ है। वे प्रेम करते है। अगले स्टेशन पर दोनों परिवार के हुडदंगी उन्हें मारने के लिए आ सकते है। कम्पार्टमेंट में सन्नाटा फैल जाता है। उम्रदराज शिक्षक कहता है कि युवती उसकी पीठ से पीठ सटाकर लेट जाए और युवक को नीचे रखे सामान के पीछे लेटना चाहिए। बूढ़ा शिक्षक कम्बल ओढ़ लेता है। हुडदंगियों के आने पर वह खांसता है। हुडदंगी छूत की बीमारी समझकर किसी और डिब्बे में तलाश करने जाते है। गाड़ी चलने के बाद शिक्षक कहता है कि इनकी शादी चलती ट्रेन में करा देना चाहिए। शादी हो जाने पर परिवार वालों का क्रोध शांत हो जाता है। यह उनकी मजबूरी है। खाप पंचायत जंगल घास की तरह फैल गई है। एक आदमी कम्पार्टमेंट दर कम्पार्टमेंट होते हुए इंजिन के पीछे लगे डिब्बे से कोयले लेकर आता है। कम्पार्टमेंट में मौजूद शादी कराने वाला एक पंडित है जो अपने धनाड्य ग्राहक के घर शादी कराने दिल्ली जा रहा है। चलती हुई ट्रेन में एक विवाह सम्पन्न होता है। बूढा शिक्षक कन्यादान करता है। ट्रेन देर रात दिल्ली पहुंचती है। बूढ़ा शिक्षक पृथ्वीराज चौहान अन्य यात्रियों का सामान उतारने में मदद करता है। इसी अफरा तफरी में उसका बैग चोरी हो जाता है। अब उसके पास कोई परिचय पत्र और फोटोग्राफ नही है परन्तु उसे पुत्र का पता ज्ञात है। किसी तरह पूछताछ करते हुए वह मंत्रीजी के बंगले पर पहुंचता है। सुरक्षाकर्मी पहचान पत्र के अभाव में उसे अंदर जाने या मंत्रीजी को खबर देने से इन्कार कर देते है।

शिक्षक सुबह के इन्तजार में बंगले के गिर्द घूमता रहता है। जब वह अपने पुत्र के कक्ष के निकट पहुंचता है तो परदे के पीछे से देखता है कि एक उद्योगपति नोटो से भरा सूटकेस मंत्री जी को देता है। मंत्री जी उसे कहते है कि शीघ्र ही उसके हित में हुक्म जारी कर दिया जायेगा। यह धन उसे अपने से सीनियर साथियों को देना होगा। उद्योगपति कहता है कि इतनी ही रकम, आदेश जारी होते ही मंत्री जी के पास पहुंचा देंगे। उद्योगपति कहता है कि हमारे पास बहुत से सूटकेस हैं। आप फिक्र नहीं करें। बूढ़ा शिक्षक अपनी कमर से बैल्ट निकालकर अपने बेटे को मारना प्रारंभ करता है। बेटा बार बार कहता है कि उसका पिता उसे गलत समझ रहा है। मंत्री जी पीटने वाले को पिता कहते है तो सुरक्षा कर्मचारी असमंजस में है कि मंत्री जी के पिता पर हाथ कैसे उठाएं। बूढ़ा शिक्षक अपने पुत्र को पीटता हुआ बंगले के बाहर आता है। उसे पीटना जारी रखता है। उसका बेल्ट टूट जाता है। वह संसद की ओर देखते हुए कहता है कि यह भ्रष्ट मंत्री उसका बेटा नही है। उसे इस व्यवस्था ने पाला पोसा है। संसद की ओर संकेत करता है। फिल्म के अंतिम शॉट में बूढ़े शिक्षक के क्लोज पर, संसद में बजाई जा रही तालियों की ध्वनि सुनाई देती है। मुझे स्मरण है कि मैंने 'रिश्वत’ की पटकथा और संवाद लिखने के लिए विजय तेंदुलकर का नाम सुझाया था। राजकपूर और विजय तेंदुलकर की मुलाकात भी कराई थी। विजय तेंदुलकर ने राजकपूर से कहा था हाथ का काम पूरा होते ही वे 'रिश्वत’ लिखना प्रारंभ करेंगे। ये सारी बातें संभवत: 1987 या 1988 के जनवरी की है। सन 1988 दो जून को राजकपूर की मृत्यु हो गई।

जब राजकपूर कोमा में थे तब राजीव गांधी ने अस्पताल में एक बड़ा कक्ष राजकपूर के परिवार को दिया था। मैं पूरा माह दिल्ली रहा। प्रतिदिन सुबह से शाम तक उसी कक्ष में रहता था। जिस समय राजकपूर के पुरस्कार लेते समय बेहोश होने की खबर आई, उस समय मैं रणधीर कपूर के घर था। उसी रात हम एअर इंडिया के विमान से दिल्ली पहुंचे थे। ऋषि कपूर दिल्ली के निकट शूटिंग कर रहे थे, राजीव गांधी ने प्रस्ताव रखा था दिल्ली में ही राजकपूर का अंतिम संस्कार राष्ट्रीय सम्मान के साथ किया जाये परन्तु श्रीमती कृष्णा कपूर ने मुंबई जाने का निर्णय लिया। राजकपूर के बंगले से शव-यात्रा निकली और थोड़ी देर के लिए आर.के. स्टूडियो के गेट के सामने रुकी। महाराष्ट्र सरकार ने रातों रात श्मशान भूमि को तैयार किया था। हजारों लोग शव-यात्रा में शामिल हुए।

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राजकपूर औैर नरगिस थाणे स्थित पागल खाने हर महीने एक बार जाते थे। एक पागल महिला केवल इतना ही कहती थी कि 'यह हत्या उसने नहीं की।’ अधिकारी ने यह बतलाया कि प्राय: वह खामोश रहती है परन्तु जब भी बोलती है केवल वही वाक्य दोहराती है। पुरानी फाइलों से ज्ञात हुआ कि सम्पत्ति के लोभ में एक भाई ने दूसरे को मारा और इल्जाम मार दिए जाने वाले की पत्नी के सिर थोप दिया। अदालते कैसे काम करती है, यह हम 'राग दरबारी’ में पढ़ चुके है। राजकपूर इस पागल लड़की पर एक फिल्म बनाना चाहते थे। उन्हें पटकथा लेखक की तलाश थी।

मैंने मनोहर श्याम जोशी का उपन्यास 'कसप’ पढ़ा था और उसके पते डी.डी. ए, साकेत नगर पर पत्र व्यवहार भी हुआ। वे रमेश सिप्पी के लिए 'बुनियाद’ लिख रहे थे। उन्होंने रमेश सिप्पी से कहा कि राजकपूर के स्टूडियो से चौकसे के बारे में पता करें कि क्या वह मुंबई में है। बहरहाल हम दोनों की मुलाकात हुई और उन्हें मैं राजकपूर से मिलाने ले गया। उस रात राजकपूर अपना हारमोनियम लिए बैठे थे और रवीन्द्र जैन भी हारमोनियम पर धुन बनाने का प्रयास कर रहे थे। मनोहर श्याम जोशी ने राजकपूर से हारमोनियम लिया। कुछ पुरानी बंदिशें भी सुनाई। मनोहर श्याम जोशी के पिता शास्त्रीय संगीत सिखाते थे। मनोहर श्याम जोशी वाशरूम गए। राजकपूर उन्हें पच्चीस हजार पेशगी देना चाहते थे। रवीन्द्र जैन ने कहा कि दो तीन सिटिंग के बाद दीजिए। राजकपूर अपनी फिल्मों पर खूब खर्च करते थे परन्तु व्यक्तिगत मामलों में कंजूस थे। इसलिए रवीन्द्र जैन की बात मान ली। जैन साहब को भय था कि मनोहर श्याम जोशी पटकथा लेखन के साथ संगीत भी दे सकते है। हर एक के अपने भय होते है। भव्य फिल्में बनाने वाले राजकपूर लगभग चालीस वर्ष किराए के मकान में रहे। श्रीमती कृष्णा कपूर की जिद के कारण 1982 में अपना मकान बनाया।

राजकपूर 'अजंता’ नामक फिल्म बनाना चाहते थे। इस फिल्म को टेकनीकलर में बनाने के लिए उन्होंने कैमरामैन राधू करमरकर को प्रशिक्षण के लिए लंदन भेजा था। उनकी रुचि 'अजंता’ गुफा में काम करने वाले मजदूरों और कलाकारों के जीवन में थी। उनकी फिल्म के प्रमुख पात्र मजदूर और कलाकार थे। नरगिस से अलगाव के बाद उन्होंने 'अजन्ता’ का विचार स्थगित कर दिया। मुझे आश्चर्य है कि कई पीढिय़ों ने कलाकृति रची परन्तु संपूर्ण कृति एक ही व्यक्ति का आकल्पन लगता है।

मेहबूब खान ने 'मदर इंडिया’ के बाद 'सन ऑफ इंडिया’ बनाई जो असफल रही। मेहबूब खान कश्मीर की हब्बा खातून का बायोपिक बनाने चाहते थे। उन्होंने उस पर काम शुरू किया। रेडियो पर नेहरू की मृत्यु का समाचार सुनते ही उन्हें हृदयघात हुआ और वे मर गए। जब उनका शव हटाया गया तब ज्ञात हुआ कि वे हब्बा खातून लिख रहे थे।

कुछ वर्ष पश्चात रेखा अभिनीत 'उमराव जान अदा’ के फिल्मकार मुजफ्फर अली, एस्कोर्ट कम्पनी के मालिक जे.के. नंदा से धन लेकर डिम्पल कापडिय़ा और विनोद खन्ना अभिनीत 'हब्बा खातून’ की खुछ शूटिंग करने के बाद उन्होंने फिल्म अधूरी छोडऩे का निश्चय किया। यह संभव है कि वे अपने रश प्रिंट देखकर स्वयं अपने काम से असंतुष्ट थे। हब्बा खातून ने मुगल सेना को युद्ध क्षेत्र से भगा दिया था। वे कविता करने के साथ ही तलवार चलाना भी जानती थी। आज के सेंसरशिप नियमों और उन पर सत्ता के शिकंजे के बाद हब्बा खातून बनाना संभव नहीं लगता।

गुरुदत्त ने कुछ फिल्मों को थोड़ी शूटिंग करके, उन्हें बंद कर दिया। उन्होंने अपनी पत्नी गीता रॉय को नायिका बनाकर 'गौरी’ नामक फिल्म प्रारंभ की। कुछ रीलें बनने के पश्चात पति पत्नी के आपसी विवाद के बाद फिल्म निरस्त कर दी गई। 'गौरी’ की कथा कुछ हद तक विद्या बालन अभिनित फिल्म 'कहानी’ से मिलती है। ज्ञातव्य है कि गुरुदत्त उदयशंकर के नृत्य विद्यालय 'कल्पना’ में नृत्य कला सीख रहे थे। उदयशंकर जी अपने छात्रों को यह अभ्यास देते कि वे स्वयं एक नृत्य संयोजित करें। गुरुदत्त का नृत्य इस तरह था कि नाचने वाले का शरीर सांप ने जकड़ लिया है। नर्तक ने सांप का मुंह हाथ में दबोच लिया है। नाचने वाला सांप लिए नाच रहा है और सांप उसे डसने का प्रयास कर रहा है। संभवत: दस आक्टोबर 1965 को सांप ने उन्हें डस लिया। उनकी आत्महत्या पर उतनी हाय तोबा नहीं मची जितनी मीडिया ने सुशांत राजपूत की आत्महत्या के समय की थी।

बहरहाल गुरुदत्त राजकपूर को अली बाबा की भूमिका देकर चालीस चोरों की भूमिकाएं चरित्र कलाकारों को देना चाहते थे। राजकपूर और गुरुदत्त मिलने लगे और प्रतिदिन सी.सी.आई. क्लब में टेनिस खेलने भी जाते थे। इन सब के साथ पटकथा भी बनाई जा रही थी। एक रात राजकपूर को गुरुदत्त ने फोन करके तुरंत आने को कहा। वे नैराश्य से घिरे हुए थे। आधी रात गुजर चुकी थी और राजकपूर ने इतनी पी ली थी कि वे कार चलाने में असमर्थ थे। अगली सुबह समाचार आया कि गुरुदत्त ने आत्महत्या कर ली। यह तय है कि 'अलीबाबा और चालीस चोर’ प्रतीक के रूप में इस्तेमाल किए जाते। फन्तासी को नए ढंग से प्रस्तुत करने की योजना थी।

ज्ञातव्य है कि गुरुदत्त और श्याम बेनेगल चचेरे भाई थे। गुरुदत्त ने अपनी कथा 'कश्मकश’ श्याम बेनेगल की मां को पढऩे को दी थी। श्याम बेनेगल की मां का विचार था कि कथा अच्छी है परन्तु फिल्म नहीं बनाई जा सकती। कालांतर में यह 'कश्मकश’ के आधार पर ही 'प्यासा’ बनाई गई। गुरुदत्त ने 'प्यासा’ की भूमिका दिलीप कुमार को दी थी परन्तु अपने डॉक्टर की सलाह पर वे कोई दुखांत फिल्म अभिनीत नहीं करना चाहते थे। ऐसे भी दिलीप कुमार प्राय: शंकाग्रस्त रहते थे। यही कारण है कि उन्होंने जितनी फिल्मों में अभिनय किया, उससे कहीं अधिक फिल्में अस्वीकृत कर दी। शेक्सपीयर के हैमलेट और शरद बाबू के देवदास को महाभारत के अर्जुन की तरह शंका मुक्त करने वाला कोई मिला। याद आता है कि टी.एस. इलियट की एक पंक्ति का अनुवाद है कि 'मैं ब्राह्मण हूँ और शंका करता हूँ।’

विगत सदी के आठवें दशक में गुणवंतलाल शाह चार्टड एकाउंटेन्ट थे और फिल्मों में पूंजी निवेश करते थे। मैंने उन्हें अमृतलाल नागर के उपन्यास 'मानस के हंस’ का सारांश सुनाया। वे इससे प्रेरित फिल्म बनाने के लिए बड़े उत्साहित थे। उन्होंने कहा कि भव्य बजट की इस पीरियड फिल्म की लागत बहुत अधिक है और दिलीप कुमार मान जाए तो आर्थिक समीकरण सही हो जाता है। दिलीप कुमार के आय कर के मामले गुणवंत लाल शाह देखते थे। उन्होंने दिलीप कुमार से बात की और मुझे शाम पांच बजे उनके निवास स्थान जाने को कहा। सुरक्षा कर्मी मुझे छत पर ले गया जहां दिलीप कुमार पतंग उड़ा रहे थे। पड़ोसी से पतंगबाजी की शर्त एक दर्जन बीयर बोतल थी। मुझे उन्होंने कहा कि मैं उचका पकडूं। पड़ोसी की पतंग काट कर बीयर पीते हुए उपन्यास का सारांश सुनेंगे। छत पर एक कमरा था जिसमें जयपुर और अहमदाबाद से लाए मांजे और मसाले रखे हुए थे। उन्होंने मुझे विस्तार से पतंगबाजी के गुर बताए। इसके बाद 'मानस का हंस’ के अध्याय के बाद अध्याय का सारांश सुना तथा इसके लिए एक प्रति लाने का आदेश अपने सचिव को दिया। यह सिलसिला लगभग एक माह चला। दिलीप इतने उत्साहित थे कि लंदन जाकर विग बनाना चाहते थे। दिलीप इतने रम गए थे कि कुछ ही दिनों बाद वे मुझे 'मानस का हंस’ सुनाने लगे। उपन्यास में युवा तुलसीदास का एक तवायफ से प्रेम कथा का विवरण भी दिया गया। उसी तवायफ को गिरफ्तार करके आगरा ले जाया जा रहा था क्योंकि उसके रूप का वर्णन हुक्मरान सुन चुका था। तुलसीदास भी उस समय कोठे पर थे और उन्हें बंदी बना लिया गया। मार्ग में तुलसीदास ने सिपहसालार का हाथ देखा। वे ज्योतिष के जानकार थे। उन्होंने उसे बताया कि उसका सहायक उसकी पीठ में सोते समय खंजर मारेगा और सुंदर कन्या को स्वयं ले भागेगा। सिपहलासार पीठ पर ढाल बांधकर लेटे और कत्ल करने वाले को रंगे हाथ पकड़ा इसी के पुरस्कार स्वरूप उसने तुलसीदास को रिहा कर दिया। तुलसीदास की पत्नी भी ज्योतिष थी। वर्षों बाद जब रत्नावली बहुत बीमार थी तब तुलसीदास उससे मिलने आए। रत्नावली के प्रश्न करने पर तुलसीदास ने कहा कि स्वयं रत्नावली ने विवाह पूर्व तुलसीदास की कुंडली देखी थी। वह जान गई कि एक दिन वे महान कवि बनेंगे। उनकी ख्याति के माध्यम वह अमर हो जाना चाहती थी।

यह अजीब सा संयोग है कि बीसवीं सदी में शंकर नामक युवा बदनाम गली से गुजर रहा था और तवायफ के कोठे पर बजाए जाने वाला तबला सुर में नहीं था। शंकर सीढिय़ां चढ़कर कोठे पर पहुंचे और तबला वादन किया। तवायफ उन पर मोहित हो गई परन्तु शंकर ने उसे बता दिया वे इस चक्कर में नहीं पडऩे वाले, ज्ञातव्य है कि कुछ वर्ष पश्चात शंकर ने पृथ्वी थियेटर्स में पाश्र्व संगीत दिया जहां उनकी मित्रता जयकिशन से हुई। राजकपूर ने अपनी फिल्म 'बरसात’ का संगीत शंकर जयकिशन से रिकार्ड कराया। पटकथा लेखक सलीम खान का कहना है कि हर व्यक्ति की कुंडली में अच्छे बुरे दौर आते परंतु शंकर जयकिशन ने 21 वर्ष माधुर्य रचा। एक दौर में वे फिल्म के नायक के मेहनताने के बराबर धन संगीत देने के लिए लेते थे परन्तु राजकपूर के लिए माहवारी वेतन पर ही काम किया। ज्ञातव्य है कि फिल्मकार महेश कौल के आमंत्रण पर ही अमृतलाल नागर आये थे और दोनों ने मिलकर तुलसी बायोपिक पर तीन माह तक काम किया। अमृतलाल नागर पटकथा लेखन के लिए लखनऊ आये। इसी बीच महेश कौल का निधन हो गया। अत: उन्होंने उपन्यास लिखा। पढ़कर ही आभास होता है कि यह पटकथा की तरह लिखा गया है। यह भी आश्चर्य की बात है कि जब दिलीप कुमार तुलसी बायोपिक के लिए तैयार हुए तो गुणवंत शाह का हृदयघात से देहान्त हो गया। दिलीप कुमार का कहना था कि अपने मित्र गुणवंत शाह की मृत्यु के पश्चात वे फिल्म नहीं करेंगे क्योंकि हर शॉट देते समय उन्हें गुणवंतलाल शाह की याद आएगी। गुणवंतलाल शाह ने मेरी लिखी फिल्म 'शायद’ में पूंजी निवेश किया था। दिलीप कुमार की प्रिय किताब वर्जीनिया वूल्फ की 'वुदरिंग हाइट्स’ थी जिससे प्रेरित अधपकी फिल्म दिलीप कुमार ने ए.आर.कारदार के लिए 'दिल दिया दर्द लिया’ नाम से बनाई।

विमल रॉय 'कुंभ’ नामक कथा लिख रहे थे। उनकी मृत्यु कारण 'कुंभ’ नहीं बनी। कन्नड लेखक भैरप्पा के उपन्यास में कुंभ प्रकारण है। मैंने पुर्नजन्म आकल्पन पर एक पटकथा लिखी जिसमें भैरप्पा के उपन्यास 'अपने-अपने सच के दायरे’ का गहरा प्रभाव था। विजयपथ सिंघानिया इस पर फिल्म बनाना चाहते थे परन्तु कोई सितारा अनुबंधित नहीं कर पाए।

शैलेन्द्र 'तीसरी कसम’ के बाद फणीश्वरनाथ 'रेणु’ के उपन्यास 'मैला आंचल’ पर फिल्म बनाना चाहते थे। शैलेन्द्र एक निकट रिश्तेदार के विश्वासघात से व्यथित थे और उनका भी असमय निधन हो गया।

धर्मवीर भारती के लिजलिजे उपन्यास 'गुनाहों के देवता’ नामक फिल्म उस फिल्मकार ने बनाई जिसे अपने उपन्यास बेचने से धर्मवीर भारती ने इन्कार कर दिया था।

गुरुदत्त के मित्र और लेखक अबरार अलवी ने 'फिडलर ऑन द रूफ’ से प्रेरित पटकथा बनाई थी। वे अपनी पटकथाओं को स्वयं की आवाज में टेप रिकार्ड करते थे। 'फिडलर’ के पांच टेप मैंने सुने। मैंने उनसे कुछ समय मांगा कि विचार करके मिलूंगा। मैंने टेप राजकपूर को सुनाए। राजकपूर का कहना था कि फिडलर क्रिश्चिएन बहुल क्षेत्र में बसे एक यहूदी परिवार की कथा है। यहूदी की पांच सुंदर कन्याओं से सारे क्रिश्चिएन युवा प्रेम करते है परन्तु प्रणय निवेदन और विवाह करने का साहस किसी के पास नहीं है। राजकपूर को शंका थी कि सेन्सर प्रमाण पत्र नहीं देगा और समाज भी इसे स्वीकार नहीं करेगा।

साहित्य और इतिहास प्रेरित फिल्में सभी देशों में बनी हैं। रवीन्द्रनाथ टैगोर ने अपनी निगरानी में अपने नाटक 'नाटिर पूजा’ पर फिल्म बनाई जो असफल रही। इतिहास प्रेरित पीटर ओ टूल और रिचर्ड बर्टन अभिनीत फिल्मा 'बैकेट’ सराही गई परन्तु इसी विषय पर टी.एस. इलियट के नाटक 'मर्डर इन कैथर्डल’ से प्रेरित फिल्म असफल रही। ऋषिकेश मुखर्जी ने 'बैकेट’ से प्रेरित अमिताभ बच्चन और राजेश खन्ना अभिनीत 'नमक हराम’ बनाई।

हरिवंशराय की आत्मकथा के पहले खंड 'क्या भूलूं क्या याद रखूं’ में कर्कल प्रकरण बहुत साहसी है। मैंने रमेश बहल की 'पुकार’ फिल्म की गोवा में आयोजित शूटिंग के समय अमिताभ बच्चन से इस खंड पर फिल्म बनाने की आज्ञा देने का अनुरोध किया था। वे बहुत देर तक मैन साधे रहे। स्पष्ट था कि वे असहमत थे। सुना है कि 'क्या भूलूं क्या याद रखूं’ के अंग्रेजी अनुवाद में कर्कल प्रकरण निकाल दिया गया है।

शम्मीकपूर की पत्नी गीताबाली ने राजेन्द्र सिंह बेदी के उपन्यास 'एक चादर मैली सी’ पर बारह रीलें बनाई थी। उन्हें चेचक हो गया और वे मर गई। बचपन में उन्हें टीका नहीं लगाया गया था। शम्मीकपूर को लगा कि शूटिंग के समय रोग लगा। उन्होंने इस अधूरी फिल्म को जला दिया। राजकपूर ने अधूरी फिल्म का रश प्रिंट देखा था और वे उसे क्लासिक मानते थे।

भारत में अधूरी फिल्मों के रश प्रिन्ट को एक साथ मिला दें तो देश की भौगोलिक सीमाओं को उनसे बांधा जा सकता है।

कभी भारत को पत्रकार राजेन्द्र माथुर ने 'सपनों से बुना देश’ कहा था। आज वह नाइटमेयर बन चुका है।

 

जयप्रकाश चौकसे

 

फिल्म लेखन का जाना माना नाम

संपर्क- मो. 9820528450

 


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