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दिसंबर - 2019

गर्म हवा: खुद की ज़मीन पर अज़नबी

दिनेश श्रीनेत

सिनेमा

 

 

 

 

 

''बड़ी गरम हवा है मियां... बड़ी गरम... इसमें जो उखड़ा नहीं वो सूख जावेगा।’’

- फिल्म से एक संवाद

 

'गर्म हवा’ सिर्फ देश के विभाजन की नहीं बल्कि ऐतिहासिक फैसले की कहानी है। एक स्तर पर यह फिल्म के नायक सलीम मिर्ज़ा (बलराज साहनी) का नितांत निजी और जिद से भरा हुआ फैसला है। मगर इसी फैसले को जब हम सामूहिक चेतना के रूप मे देखते हैं तो गहरे निहितार्थ नजर आते हैं। यह फैसला इस भारतीय उप-महाद्वीप का भविष्य तय करता नजर आता है। यह सिर्फ आज़ादी बाद दुनिया के नक्शे पर उभरे देश में किसी एक $कौम का भविष्य नहीं है बल्कि बहुत ही स्पष्ट राजनीतिक और वैचारिक धारा की स्थापना है। जहां आने वाली नस्लें किस आबो-हवा में सांस लेंगी यह भी तय होना है। उर्दू की लेखिका इसमत चुग़ताई एक $कौम या समुदाय के इसी फैसले को अपनी कहानी 'वहां’ का आधार बनाती हैं। कैफ़ी आज़मी और शमा ज़ैदी उस कहानी को पटकथा के माध्यम से विस्तार देते हैं और एमएस सथ्यु उसे एक पर्त-दर-पर्त खुलने वाली फिल्म में तब्दील करते हैं।

अधिकतर लोग यह जानते हैं कि 'गर्म हवा’ इसमत चुगताई की कहानी पर आधारित है, मगर बहुत कम लोगों को पता होगा कि उर्दू के एक और चर्चित कथाकार राजेंद्र सिंह बेदी की भी इस फिल्म में अप्रत्यक्ष रूप से बड़ी भूमिका है। फिल्म बनाने का सुझाव ही उनकी तरफ से आया था। उन दिनों शमा ज़ैदी बेदी के उपन्यास 'एक चादर मैली सी’ पर आधारित नाटक कर रही थीं। बेदी ने कहा, ''आप लोगों को एक फिल्म बनानी चाहिए, उन मुसलमानों पर जो पाकिस्तान नहीं गए और क्यों नहीं गए।’’ तीस्ता सीतलवाड़ को दिए इंटरव्यू (1) में शमा बताती हैं कि उन्होंने जब बेदी से कहा कि आप कुछ लिखकर हमें दीजिए तो वो बोले, ''मैं नहीं लिखूंगा, तुम लिखोगी और सथ्यु बनाएंगे।’’ बेदी ने जैसे पहले से सब कुछ तय कर लिया था। फिर शमा ने इसमत से इस विषय पर चर्चा की। इसमत को बात जंच गई। उन्होंने कहानी लिखी भी मगर वह गुम हो गई। इसमत ने दूसरी कहानी लिखी। शमा ने दूसरे वर्जन पर काम शुरू कर दिया। इसी बीच घर की सफाई में इसमत को पहली वाली कहानी भी मिल गई। शमा बताती हैं, ''अब हमारे पास दो कहानियां हो गई थीं। मैंने उनकी काहनी पर आधारित पटकथा लिखनी शुरू की। मैंने इसे नूरुल हसन को दिखाया। उन्होने कहा- कहानी तो सही है मगर पॉलिटिक्स गड़बड़ है। फिर मैं कैफी आजमी के पास गई। वे इप्टा के लिए काम करते थे। उन्होंने मूल कहानी से अलग अंदाज में इसकी पटकथा तैयार की। हालांकि ओरिजिनल किरदार और घटनाएं वही थीं। दिक्कत यह थी कि यह पटकथा बहुत लंबी थी।’’ शमा ज़ैदी कहती हैं कि उसे इस्तेमाल करते तो पांच घंटे की फिल्म बनती। फिर शमा ने उसका संक्षिप्तिकरण किया और इस तरह से फिल्म आरंभ हुई।

इतिहास की करवटों के पीछे जाने कितनी निजी मानवीय त्रासदियां होती हैं। दुनिया के श्रेष्ठ फिल्मकारों ने इतिहास की इन्हीं मानवीय त्रासदियों पर बेहतरीन फिल्में बनाई हैं। 'गर्म हवा’ को देखते हुए मुझे बार-बार रोमान पोलांस्की की फिल्म 'द पियानिस्ट’ याद आती है। पोलांस्की की इस फिल्म का नायक ब्लैडीस्लाव स्पीलमैन नाजीवाद की गहराती परछाइयों में अपनी दुनिया नष्ट होते देखता है मगर अंतिम समय तक आशा का दामन नहीं छोड़ता। 'लाइफ इज़ ब्यूटीफुल’ और 'शिंडलर्स लिस्ट’ से अलग यह फिल्म नायक के आशावाद पर केंद्रित है। विजय शर्मा 'सिनेमा और साहित्य: नाजी यातना शिविरों की त्रासद गाथा’ में लिखती हैं, ''अपनों को मरते देख जीवित रहना बहुत त्रासद होता है, लेकिन व्यक्ति की जिजीविषा उसे बुरी-से-बुरी परिस्थितियों में जीवित रखती है। पियानोवादक बहुत कुछ देख-सुनकर, सहकर भी जीवित रहता है।’’ (2) वे आगे लिखती हैं, ''फिल्म को देखने के बाद प्रतिकार की भावना नहीं जगती है, वरन मानवता पर विश्वास जमता है। संगीत की शक्ति और जिजीविषा को सलाम करने का मन करता है। यह फिल्म संगीत की शक्ति, जिजीविषा और दुष्टता-बुराई के समक्ष डटकर खड़े रहने का दस्तावेज है।’’ (3) ठीक उसी तरह 'गर्म हवा’ विभाजन के दौरान एक साधारण भारतीय मुसलमान के आसपास के संसार के आहिस्ता-आहिस्ता टूटकर बिखरने और और उसको फिर समेटने की कोशिशों का दस्तावेज है। 

हिन्दुस्तान के विभाजन से जुड़ा विमर्श अक्सर अपने पीछे उत्तेजना और हिंसा की लपटें भी लेकर आता है। विभाजन पर लिखे गए साहित्य में भी यह हिंसा ख़ूब नज़र आती है। चाहे वह कृशन चंदर के विभाजन पर लिखे यादगार उपन्यास-कहानियां हों, चाहे डार्क ह्यूमर व एब्सर्डिटी से भरे मंटो के 'सियाह हाशिए’ हों या फिर यशपाल का वृहद उपन्यास 'झूठा सच’। विभाजन पर बनी फिल्मों ने भी अलग-अलग तरीके से इसी हिंसा को चित्रित किया है। गोविंद निहलाणी की 'तमस’, दीपा मेहता की 'अर्थ’ या व्यावसायिक फिल्म 'ग़दर- एक प्रेमकथा’ विभाजन को उसकी हिंसा के बैकड्राप में देखते हैं। 'अर्थ’ की हिंसा जरूर मनोवैज्ञानिक स्तर तक उतरती है मगर वह भी एक व्यापक हिंसा का मानवीय संबंधों के स्तर पर किया गया चित्रण है। लेकिन सथ्यु गर्म हवा को विभाजन पर बनी बाकी फिल्मों की तरह बाहरी हिंसा से दूर रखते हैं। फिल्ममेकर तथा पाकिस्तान में प्रजातांत्रिक अधिकारों के लिए सक्रिय फ़रयाल अली गौहर 'गर्म हवा’ पर लिखती हैं, ''नाज़ुक, बारीक, चरित्र चित्रण की गहराई में सम्मोहित कर देने वाली और अपनी चिंताओं में विस्तार लिए यह एक ऐसी फिल्म है जो उन कहानियों के बीच हमेशा याद रखी जाएगी जहां विभाजन की पृष्ठभूमि में इंसानी कहानी को बयान किया गया है। 1973 में लगभग 10 लाख रुपये की लागत से बनी 'गर्म हवा’ सिर्फ विभाजन के दौरान हुई उथल-पुथल, नरसंहार या महिलाओं के शरीर पर होने वाले अत्याचारों के बारे में नहीं है, बल्कि यह फिल्म एक परिवार के उस चयन के बारे में है जो मुस्लिम होने के बावजूद भारत में रहने का फैसला करता है।’’ (4)

विभाजन का संदर्भ लेकर आई ऋत्विक घटक की दो महान फिल्में 'मेघे ढाका तारा’ और 'सुबर्णरेखा’ से अलग यह शरणार्थियों के जीवन संघर्ष की गाथा भी नहीं थी। 'गर्म हवा’ मनोवैज्ञानिक स्तर पर उन लोगों की कहानी कहती है जो अपनी ही मातृभूमि में शरणार्थी बन गए हैं। अलग धर्म और समुदाय से वास्ता रखने की वजह से उन्हें उसी जगह पर जीने के लिए संघर्ष करना पड़ता है, जहां वे अब तक बड़े सुकून से अपना गुजारा करते आए थे। विभाजन पर आधारित किसी भी दूसरी फिल्म के मुकाबले इस फिल्म में बिना किसी मेलोड्रामा या भावुकता का सहारा लिए उस मनौवैज्ञानिक हिंसा को पकडऩे का प्रयास किया गया है, जिसका विभाजन के दौरान लाखों लोग शिकार हुए। यही वजह है कि 'गर्म हवा’ को हम बिना किसी दुविधा के भारतीय सिनेमा की कुछ सबसे महत्वपूर्ण फिल्मों में स्थान दे सकते है। सन् 1973 में इतने अंडरटोन वाली फिल्म बनाना, जब हिन्दी सिनेमा की शैली बहुत लाउड रही हो, यह अपने-आप में बहुत बड़ा प्रयोग था।

फिल्म आगरा के एक छोटे से कारोबारी की दिक्कतों को बयान करती है। देश का विभाजन हो चुका है। अब महात्मा गांधी भी नहीं रहे। माहौल खराब है। अफवाहों का बाज़ार गर्म है। मुसलमान पाकिस्तान में अपना भविष्य देख रहे हैं। मिर्ज़ा की चिंताएं बहुत छोटी-छोटी है। एक आम हिन्दुस्तानी की तरह वे अपने परिवार को और अपने कारोबार को बचाए रखना चाहते हैं। उनको यकीन है कि गांधी की शहादत बेकार नहीं जाएगी और उन्हें अपनी जमीन, अपना घर, अपने लोगों को छोड़कर मुसलमानों के लिए बने किसी और मुल्क में नहीं जाना होगा। बलराज साहनी ने सलीम मिर्ज़ा के किरदार में अपने जीवन का सर्वश्रेष्ठ काम किया है। यह त्रासदी का नायक है। जिसका परिवार उसके सामने बिखर रहा है। जिसके हर फैसले गलत साबित हो रहे हैं। जिसका साथ लोग छोड़ते जा रहे हैं। हर सदमे, हर झटके को जज़्ब करके उनका आगे बढऩा, जरुरत पडऩे पर थोड़ा झुक जाना, थोड़ी खुशामद कर लेना मगर ठीक उसी वक्त अपने स्वाभिमान को भी बनाए रखना-  इस चरित्र को अविस्मरणीय गहराई देता है।

इतिहासकार यास्मीन ख़ान लिखती हैं, ''आज़ादी का ख़ास ताना विभाजन के बाने से कुछ इस तरीके से गुंथ गया था कि इसने राष्ट्रीय पहचान का एक नया अवसर पैदा कर दिया था। जहां पहले हज़ारों स्थानीय स्वायत्त समूह होते थे वहां अब भारत या पाकिस्तान के प्रति राष्ट्रभक्ति आधिकारिक रूप से अनिवार्य हो गई थी। विश्वासघात के आरोप से कोई भी मुसलमान न बच सका और तमाम मुसलमानों को अपनी विश्वसनीयता साबित करने की कोशिशें करनी थीं।’’ (5) सलीम मिर्ज़ा को भी अपनी विश्वसनीयता साबित करने के लिए ये कोशिशें लगातार करनी पड़ती हैं। जब उन्हें अपने कारोबार के लिए रकम जुटानी होती है, जब वे बैंक के पास लोन के लिए जाते हैं, जब हवेली पर कस्टोडियन का कब्जा होने के बाद उन्हें अपने परिवार के लिए घर तलाशना होता है और जब जासूसी का आरोप लगाकर उन्हें हिरासत में ले लिया जाता है। यहां तक कि जब वे रिहा हो जाते हैं तब भी बहुत से लोग उन पर भरोसा नहीं करते हैं।

राजनीतिक मनोविश्लेषक आशीष नंदी कहते हैं, ''देश-प्रेम का मतलब प्रादेशिकता या क्षेत्रियता है जो मानव जाति का नैसर्गिक गुण है। इस तरह की प्रादेशिकता सभी जीवों में पाई जाती है। यहां तक कि कुत्ते और बिल्लियों में भी। दूसरे शब्दों में, देश-प्रेम मानव जाति के लिए प्राकृतिक चीज है। लेकिन राज्यवाद का विचार देश-प्रेम को पर्याप्त नहीं मानता।’’ (6) देश-प्रेम बनाम राज्यवाद के इसी द्वंद्व को गर्म हवा में बखूबी प्रस्तुत किया गया है। एक-एक करके सलीम के अपने उन्हें छोड़कर पाकिस्तान जाने लगते हैं। सबसे पहले बहन-बहनोई जाते हैं। उसके बाद बड़े भाई हलीम मिर्जा (दीनानाथ जुत्शी) जाते हैं। फैक्टरी के वर्कर भी काम छोड़ते जा रहे हैं। जब जूते के कारोबार में सहयोग करने वाला उनका बड़ा बेटा बाकऱ मिर्जा (अबु सिवानी) भी पाकिस्तान चला जाता है तो सलीम की बेगम (शौक़त क़ैफी) कहती हैं, ''आपको किसने रोक रक्खा है, यहां कौन सा खजाना गाड़कर रक्खा है, जो साथ नहीं ले जा सकते?’’ सलीम जवाब देते हैं, ''यह उम्र वतन छोड़कर जाने की नहीं, इस दुनिया से उस दुनिया में जाने की है।’’

सलीम मिर्ज़ा आसपास की जिस दुनिया से हमेशा रू-ब-रू होते आए हैं वे उसे ही वतन मानते हैं। अपनी जड़ों, अपने लोगों और अपनी जमीन से इस लगाव और विस्थापित होने की मनोवैज्ञानिक पीड़ा को छोटे-छोटे दृश्यों के माध्यम से बड़ी खूबसूरती से प्रस्तुत किया गया है। फिल्म के यादगार दृश्यों में से एक है, जब सलीम मिर्जा को हवेली छोडऩी पड़ती है और उनकी बूढ़ी मां लकडिय़ों के ढेर में छिप जाती हैं। उन्हें जबरन गोद में उठाकर ले जाना पड़ता है और वे बड़बड़ाती रहती हैं, ''मैं नहीं जाऊंगी, अपनी हवेली छोड़कर नहीं जाऊंगी।’’ यह दृश्य बहुत प्रतीकात्मक बन पड़ा है। यह राजनीतिक अवधारणाओं की बजाय अपनी जमीन, अपने लोगों को जुडऩे की भावना को बड़ी शिद्दत के साथ बयान करता है। चेक उपन्यासकार मिलान कुंदेरा ने सत्ता के ख़िलाफ़ आदमी के संघर्ष को 'भूलने के ख़िलाफ़ याद रखने’ के संघर्ष के रूप में परिभाषित किया है। जब सभी लोग किराए के नए घर में आते हैं तो पता लगता है कि अम्मा ने अपनी चारपाई ऊपर डलवा रखी है। सलीम मिर्जा पूछते हैं, ''ऊपर? सीढिय़ां चढऩे उतरने में उन्हें तकलीफ न होगी?’’ बड़े बेटे बाक़र की बेगम बोलती है, ''दादी अम्मा ने जिद करके अपनी चारपाई यहां बिछवाई, जंगले से हवेली जो नज़र आती है।’’

एक ही परिवार में स्त्रियों की कई पीढिय़ां नजर आती हैं। फिल्म विभाजन की छाया में इन स्त्रियों के संघर्ष, संतोष, खुशियों और उम्मीदों को बयान करती है। एक तरफ दादी अम्मा अपनी बेलौस टिप्णियों से फिल्म में हल्के-फुल्के क्षण लेकर आती हैं। वो वतन तो दूर अपनी हवेली भी नहीं छोडऩा चाहतीं। जबकि सलीम की बेगम जमीला के पास एक आम स्त्री की चिंताएं हैं। उसके पास सलीम मिर्ज़ा जैसा धीरज नहीं है। उसे उनकी जिद समझ में नहीं आती। जमीला को लगता है कि पाकिस्तान जाने से शायद हालात सुधर जाएंगे। वहीं सलीम की बेटी आमना (गीता सिद्धार्थ) छोटी-छोटी खुशियों और उम्मीदों के बीच जी रही है। पाकिस्तान के बनने से किस तरह मुसलिम परिवारों की शादियों और रिश्तों में दिक्कतें आने लगीं यह भी बखूबी दिखाया गया है। हालिम मिर्ज़ा के बेटे काजिम (जमाल हाशमी) से आमना के रिश्ते की बात चल रही है मगर सलीम मिर्जा के भाई हालिम पाकिस्तान चले जाते हैं। वे उसकी शादी भी कहीं और करना चाहते हैं। आमना की फूफी का बेटा शमशाद (जलाल आग़ा) आमना के चाहता है मगर आमना उसे पसंद नहीं करती। काजिम भागकर आता भी है तो पुलिस उसे गिरफ्तार करके पाकिस्तान भेज देती है। धीरे-धीरे आमना का रुख शमशाद के प्रति नरम होने लगता है। दोनों जिस्मानी तौर पर भी करीब आ जाते हैं मगर एक दिन पता चलता है कि शमशाद का रिश्ता कहीं और तय हो गया है। आमना कलाई की नसें काटकर आत्महत्या कर लेती है।

यहां पर फिल्म अपनी त्रासदी के चरम पर पहुंच जाती है। आमना की मौत बताती है कि किस तरह से इतिहास के त्रासदी अंधेरों में ऐसे तमाम निर्दोष और मासूम लोग खो जाते हैं, जिनका सीधा वास्ता न तो धार्मिक बहसों से होता है और न ही राजनीति से। वे सिर्फ सामान्य जीवन और प्रेम तलाश रहे होते हैं। आमना की खुदकुशी का दृश्य जिस तरह फिल्माया गया है वह न सिर्फ स्तब्ध कर देता है बल्कि फिल्म खत्म होने के बाद भी लंबे समय तक जेहन में मौजूद रहता है। इस पूरे सीक्वेंस के दौरान बैकग्राउंड में वारसी ब्रदर्स की कव्वाली का इस्तेमाल किया गया है। यह कव्वाली सिचुएशन की विडंबना और उसके कंट्रास्ट को और गहरा कर देती है। अजीज अहमद खान वारसी की आवाज में कव्वाली के बोल भी इसी कंट्रास्ट को रच रहे हैं, ''भटके हुए मुसाफिर / मंजिल पर पहुंचे आखिर / उजड़े हुए चमन में / बेरंग पैरहन में / सौ रंग मुस्कुराए / सौ फूल लहलहाए’’। हम आमना के फ्लैश बैक में पानी हिलती हुई ताज की परछाईं और आमना और शमशाद की नज़दीकियां देखते हैं। बोल जारी हैं, ''आई नई बहारें / पडऩे लगी फुहारें / घूंघट की लाज रखना / इस सर पे ताज रखना / इस सर पे ताज रखना’’। आमना अपनी कलाई ब्लेड से काट देती है और खून की एक लकीर चादर को भिगोती हुई नीचे की तरफ बहती रहती है।

सलीम मिर्ज़ा की बेटी आमना और बेटा सिकंदर (फारुख़ शेख) इस फिल्म में उम्मीदों का चेहरा बनकर आते हैं। आमना बिखराव की इस प्रक्रिया में टूट जाती है। वहीं बेरोजगारी के बावजूद सिकंदर को अपनी एजुकेशन और देश के मुस्तक़बिल पर भरोसा है। वह इंटरव्यू देने जाता है तो अफसर कहता है, ''मिस्टर मिरजा... कीप माई एडवाइज़... यू आर वेस्टिंग योर टाइम इन दिस कंट्री, आप पाकिस्तान क्यों नहीं चले जाते? वहां आप लोगों के लिए आसान रहेगा।’’ वह चाय की दुकान पर अपने हिंदु, मुसलिम और सिख दोस्तों के साथ इकठ्ठा होता है तो उनकी चिंताओं में भारत-पाकिस्तान नहीं बल्कि रोजगार होता है। देश से बाहर जाने की चर्चा होती है तो एक नौजवान सिकंदर को जवाब देता है, ''सब जाते हैं यार! लेकिन जाएँ क्यों? हमे तो सारी नौकरी यहीं मिलनी चाहिए... यहीं चाहिए।’’

बहुत छोटे से रोल के बावजूद सिकंदर मिर्ज़ा इस फिल्म का दूसरा अहम किरदार है। गौरी मिश्रा अपने शोध में सलीम और उनके बेटे के किरदारों का विश्लेषण करते हुए कहती हैं, ''दो पात्र सलीम मिजऱ्ा और उसका बेटा सिकंदर फिल्म के कथ्य पर हावी हैं। पूरी फिल्म में सलीम मिर्ज़ा का नैरेटिव अतीत की ओर उन्मुख है। यह नए बदलावों को स्वीकार करने से इनकार करने, कारोबारी मामलों में परंपरागत तौर तरीकों और पुरानी जान-पहचान पर भरोसा रखने तथा समस्याओं से जूझते हुए लगातार ख़ुदा पर उनके भरोसे में परिलक्षित होता है। वहीं सिकंदर का नैरेटिव भविष्य की ओर उन्मुख है क्योंकि वह ग्रेजुएशन के बाद नौकरी की तलाश में है।’’ (7) गौरी फिल्म के दृश्यों की तरफ ध्यान आकृष्ट करती हैं, जिन्हें निर्देशक ने एक ही अंदाज में फिल्माया है। पहले दृश्य में सलीम मिर्ज़ा बैंक प्रबंधक के पास जाते हैं, जो उन्हें लोन देने से मना कर देता है, जबकि वह सलीम को अच्छी तरह से जानता है। दूसरे दृश्य में सिकंदर को एक साक्षात्कार के दौरान बताया जाता है कि जिस पद के लिए वह इंटरव्यू देने आया है वह पहले से ही भरा हुआ है। दोनों दृश्यों में बैंक मैनेजर और इंटरव्यू लेने वाले अफसर का चेहरा नहीं देखते। वे ऑफस्क्रीन हैं। गौरी लिखती हैं, ''ये दृश्य दर्शकों को उस वास्तविकता की ओर ले जाते हैं कि पुराना और नया, दोनों ही विघटना के कगार पर है। सिकंदर के जुलूस में शामिल होने की वजह उम्मीद है और सलीम मिर्ज़ा के लिए इस बात का एहसास कि वह अकेला नहीं है। यहां से फिल्म के नैरेटिव में एक मोड़ आता है और यह अतीत और भविष्य के बीच एक पुल बनाता है।’’ (8)

फिल्म में तांगेवाला एक सूत्रधार की भूमिका निभाता है। पहले दृश्य में ही वह सलीम मिर्ज़ा से पूछता है, ''आज किसे छोड़ आए मियां?’’ सलीम मिर्ज़ा बताते हैं, ''बड़ी बहन को’’ और एक ठंडी सांस लेते हुए कहते हैं, ''कैसे हरे-भरे दरख़्त कट रहे हैं इस हवा में...’’ जब सलीम बेटे बाकर को स्टेशन छोड़कर आते हैं तो तांगेवाला फिर वही सवाल पूछता है। सलीम बताते हैं, ''बाकर मिर्ज़ा को...’’ तांगेवाला कहता है, ''वाह मियां वाह, बड़ी हिम्मत है। जिगर के टुकड़ों को एक-एक करके छोड़ आए और खुद (हंसी) यहां डटे हो...’’ फिल्म के अंत में जब सलीम मिर्ज़ा खुद अपनी बेगम और बेटे के साथ रवाना होते हैं तो तांगेवाला कहता है, ''सच्ची कहूं मियां, घर वाले थोड़ी अरबी-फ़ारसी पढ़ा देते तो बोल ही देता... मेरा मन पहले ही कहता था कि आप जाओगे जरूर...’’ वहीं पर बेरोजगारी के खिलाफ निकल रहे जुलूस की वजह से उनका रास्ता रुक जाता है। सिकंदर के दोस्त उस जुलूस में हैं। सिकंदर भी शामिल होना चाहते हैं और सलीम मिर्जा कहते हैं, ''जा बेटे, अब मैं तुम्हें नहीं रोकुंगा... इंसान कब तक अकेला जी सकता है।’’ यही वक्त होता है जब सलीम मिर्ज़ा को भी फैसला करना है। सिकंदर की मुट्ठी हवा में लहरा रही है और वह पूरे जोश के साथ 'इनकलाब जिंदाबाद’ के नारे लगा रहा है। सलीम मिर्ज़ा भी तांगे से कूद पड़ते हैं। घर की चाभियां थमाते हुए कहते हैं, ''ज़मीला मैं भी अकेली जिंदगी की घुटन से तंग आ गया हूँ।’’ देखते-देखते सलीम मिर्जा भीड़ में खो जाते हैं।

हम कैफ़ी आज़मी की आवाज़ में वायस ओवर सुनते हैं, ''धारे में जो मिल जाओगे बन जाओगे धारा / ये वक़्त का ऐलान वहां भी है यहां भी।’’

'गर्म हवा’ फैसले की फिल्म तो है ही, यह पक्षधरता की फिल्म भी है। यह फिल्म पहली बार हिन्दी सिनेमा में मुसलमानों के स्टीरियोटाइप तोड़ती है और उनके समाज के भीतर चलने वाले घात-प्रतिघात और टूटन को बयान करती है। साथ ही यह भी बताती है कि अपनी कौम का वतन समझे जाने के बावजूद वहां पर रिफ्यूजी और खुद की जमीन पर अजनबी समझे जाने और संदेह के दायरे में आने की तमाम विडंबनाओं के बावजूद बड़ी संख्या में मुसलमानों ने देश की मुख्यधारा में शामिल होना चुना। उन्होंने मजहबी आधार पर गढ़े गए देशों की अवधारणा को मानने से इनकार कर दिया और एक ऐसी प्रजातांत्रिक व्यवस्था में आस्था दिखाई जहां वे अपनी ज़रूरतों और अपने हक के लिए आवाज उठा सकें। 

 

संदर्भ

1.      एमएस सथ्यु एंड शमा ज़ैदी इन कन्वर्सेशन विद तीस्ता शीतलवाड़, Hillele TV, यूट्यूब

2.      सिनेमा और साहित्य: नाजी यातना शिविरों की त्रासद गाथा, विजय शर्मा, वाणी प्रकाशन नई दिल्ली

3.      (वही) सिनेमा और साहित्य: नाजी यातना शिविरों की त्रासद गाथा, विजय शर्मा, वाणी प्रकाशन नई दिल्ली

4.      बॉडी पॉलीटिक: वीमन इन द सिनेमा ऑफ पार्टीशन, फरयाल अली गौहर, हेराल्ड

5.      विभाजन: भारत और पाकिस्तान का उदय, पृ.180, यास्मीन ख़ान, पेंग्विन बुक्स

6.      एज़ाज़ अशरफ़ के साथ आशीष नंदी की बातचीत, कारवां पत्रिका,  16 जून 2019

7.      जेंडर एंड नेशनलिज़्म: अ स्टडी ऑफ पार्टीशन फिक्शन एंड सिनेमा, गौरी मिश्रा

8.      (वही) जेंडर एंड नेशनलिज़्म: अ स्टडी ऑफ पार्टीशन फिक्शन एंड सिनेमा, गौरी मिश्रा

 

 

दिनेश श्रीनेत, कथाकार, सिनेमा व पॉपुलर कल्चर पर लेखन, कहानी 'विज्ञापन वाली लड़की’ उर्दू में अनुदित होकर भारत और पाकिस्तान में प्रकाशित, पश्चिम और सिनेमा पुस्तक वाणी प्रकाशन से, इकनॉमिक टाइम्स ऑनलाइन में भारतीय भाषाओं के प्रभारी, संपर्क- 9910999370

 


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