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दिसंबर - 2019

ट्रम्प की दीवार से गन्ने के खेतों और कोस्टा रिका तक!

जितेन्द्र भाटिया

बस्ती बस्ती परबत परबत

 

लातिन अमेरिका डायरी

 

बीस बरसों तक 'सोचो साथ क्या जाएगा’ में विश्व साहित्य के दुर्गम ठिकानों की पड़ताल के बाद मेरे लिए तय कर पाना ज़रा भी मुश्किल नहीं था कि ज़रूरी तौर पर किस प्रदेश की यात्रा का सपना अब मुझे पूरा करना है। अपने चार पांच सौ वर्षों के शोषण काल, प्राचीन सभ्यताओं के बीच से फूटे जादुई यथार्थ के अभिनव योगदान और अमरीकी उपभोक्तावाद की छाया में प्रतिरोध की एक अभिनव मिसाल कायम करता तथा कोको-कॉफ़ी, फुटबॉल और समाजवाद की अद्भुत 'कॉकटेल’ पर ज़िन्दा यह अनोखा प्रदेश, लातिन अमेरिका के सिवा कोई और नहीं हो सकता था। अपनी अलग पहचान बनाने वाले माक्र्वेज़, बोर्खेज़, नेरुदा, गेलियानो, चे ग्वेवारा, रोसा, वर्गास लोसा, नायपॉल, एलिंदे और अनेकानेक संघर्षशील लेखकों की कर्मभूमि, एक ऐसा प्रदेश, जहाँ रंगभेद और नस्लवाद का नामोनिशान तक नहीं है, क्योंकि यहाँ का लगभग हर बाशिंदा अलग अलग जातियों, रंगों और सभ्यताओं के बीच जन्मा, शोषण के एक सांझे सांस्कृतिक इतिहास का वारिस है; जहां अमरीकी उपभोक्तावाद ने हर जनतंत्र के पनपने से पहले ही उसे अपने साम्राज्यवादी मंसूबों से कुचलने की भरसक कोशिश कर जगह-जगह अपने 'प्रॉक्सी’ पिट्टू तानाशाह बिठाए हैं, और आज भी जो प्रदेश अपनी बहुमूल्य प्राकृतिक सम्पदा को एक मृत पत्थरदिल औद्योगिक साम्राज्य में बदलने की साज़िशों के विरुद्ध जी जान से जुटा है।

अमेज़न के बहुमूल्य जंगलों में प्रायोजित आगों की भीषण लपटें अंतत: पूरी पृथ्वी के लिए एक खतरे की घंटी बजा चुकी हैं। उससे कई हज़ार मील दूर इंडोनेशिया में जिस र$फ्तार से जंगलों को काटकर दुनिया भर के 'मेकडोनाल्ड’ और 'के एफ सी’ को तेल का कच्चा माल सप्लाई करने वाले 'पाम’ के खेतों में बदला जा रहा है और तेज़ी  हो या मंदी, समय के ज़रूरी सवालों को हाशिये पर डाल छद्म राष्ट्रवाद और प्रदेशवाद का जो ज़हर आज भारत सहित पूरे विश्व में फैलाया जा रहा है, उसमें सभ्यता के बच पाने की उम्मीद छोडिय़े, इस षड्यंत्र के खिलाफ आवाज़ उठाने की कशिश भी बहुत कम लोगों में बाकी बची है। मोइन अहसन 'जज़्बी’ की पंक्तियों का सहारा लें तो—

दुनिया ने हमें छोड़ा ऐ दिल, हम छोड़ न दें क्यों दुनिया को

दुनिया को समझ कर बैठे हैं, अब दुनिया दुनिया कौन करे!

लेकिन किसी ज़िद्दी वैताल की तरह हम फिर भी हार मानने वालों में नहीं हैं। ‘हाल-ए-दिल सुनाएंगे, सुनिए या न सुनिए’ वाले अंदाज़ में मयनमार हो या लातिन अमेरिका, 'बस्ती बस्ती, परबत परबत’ का हमारा सफ़र अपने समय के इन ज़रूरी सवालों से अपने आपको दूर नहीं रख पायेगा। यूं भी दुनिया की लगभग 13 प्रतिशत भूमि और 65 करोड़ जनसँख्या का वज़न उठाते लातिन अमेरिका को दरकिनार करना मुश्किल होगा।

लातिन का यह विशेषण इसलिए क्योंकि यहाँ बोली जाने वाली तीनों प्रमुख भाषाएँ स्पेनिश, पुर्तगाली और फ्ऱेच लातिन की ही संतान हैं। लातिन अमेरिका, जिसके आर्थिक, और सांस्कृतिक कुप्रभावों से अपनी उपभोक्ता संस्कृति को बचाने के लिए अमरीका से छूने वाली मेक्सिको की सीमा रेखा पर एक पुख्ता दीवार खड़ी करने का इरादा राष्ट्रपति ट्रम्प कई बार दोहरा चुके हैं। हमारा उस पार का सफ़र इन और दूसरी दीवारों के तोड़े जाने का प्रयास करेगा।

मैंने यह सफ़र दो किश्तों में, लगभग सवा दो महीनों में पूरा किया और इसके दौरान यह अहसास लगातार मेरे साथ रहा कि इस लातिन दुनिया को हम कितना कम जानते हैं और इसे ठीक से जानने के लिए दस सप्ताह का वक्त कितना नाकाफी है!

                                                           

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मेरे लिए यह हतप्रभकारी स्थिति थी कि पिछले पैंतीस वर्षों में चार बार अमेरिका का चक्कर लगा चुकने के बावजूद पिछली दो कोशिशों में मेरी अमेरिकन वीज़ा की दरख्वास्त ख़ारिज कर दी गयी थी. पासपोर्ट लौटा दिए जाने के बाद वीज़ा दफ्तर से संवाद की बहुत कम गुंजाइश बचती है। पासपोर्ट लौटते वक्त कोई आधा दर्जन शर्तों की एक पीले रंग की पर्ची मुझे थमायी गई थी जिसमें चिन्हित शर्तों का अनुपालन असंभव था। अपनी संभावित यात्रा के हर पड़ाव के बारे में बताते हुए मुझे अपने तथाकथित स्पौंसर का कच्चा चिठ्ठा भी देना था। और आख़िरी शर्त यह थी कि मुझे नया पासपोर्ट बनाना था क्योंकि पुराना दस्तावेज़ वैध होते हुए भी अधिकारियों की  पसंद के मुआफिक नहीं पाया गया था। एक दोस्त ने कहा कि मेरे वीज़ा न मिलने की असली वजह मेरे पासपोर्ट पर छपा ईरान का वीज़ा है। बेशक मैं ईरान गया था, लेकिन अमरीकी वीज़ा अधिकारी ने इसके बारे में मुझसे कोई सवाल नहीं किया था और यदि वह सवाल करता भी तो मैं बताने के लिए तैयार था कि मेरी ईरान की यात्रा का राजनीति से दूर दूर तक कोई संबंध नहीं था। लेकिन कुछ भी पूछने की जगह जब उसने मुस्कराते हुए पासपोर्ट मुझे लौटा दिया था तो मैंने तय किया कि अब मैं दुबारा 'अंकल सैम’ के देश में जाऊंगा ही नहीं।

अमेरिका न जाने का मेरा संकल्प बरकरार रहता, यदि लातिन अमेरिका की यात्रा से पहले मुझे यह न बताया जाता कि वहाँ के अधिकांश देशों में अमरीकी वीज़ा होने पर अलग से वीज़ा लेने की ज़रुरत नहीं पड़ती। चूँकि हमें कई देशों में जाना था और उनमें ब्राज़ी ल को छोड़कर बाकी सभी में अमरीकी वीज़ा मान्य था, इसलिए झक मारकर मुझे दुबारा अमरीकी कोंसुलेट के चक्कर काटने पर मजबूर होना पड़ा। सौभाग्यवश इस बार नए कोरे पासपोर्ट से, जिसमें ईरान या कहीं और का कोई वीज़ा नहीं था, मुझे आसानी से अमरीकी वीज़ा मिल गया। अब आप इसका जो भी अर्थ चाहे निकाल सकते हैं। यूं भी भारत से लातिन अमेरिका की यात्रा को संयुक्त राष्ट्र अमेरिका की सरहदों में प्रवेश किये बगैर संपन्न करना लगभग असंभव है।

और एक तरह से यह ठीक ही है, क्योंकि जिस प्रदेश में हमें जाना है, वहाँ की समूची सामजिक और राजनीतिक आबोहवा संयुक्त राष्ट्र अमेरिका और उसकी विदेशी नीतियों से जुड़ी हुई है और यह घेराबंदी परोक्ष होते हुए भी इतनी मुकम्मल है कि अंकल सैम की इच्छा के बगैर वहां पंछी पर नहीं मार सकता। यहाँ के डॉन, माफिया, ड्रग शहंशाह, राजनीतिक नेता और तानाशह- सब की नाभियाँ सी आई ई और वाशिंगटन से सम्बद्ध हैं। यदि इसके बावजूद यहाँ के कुछ देश अपने जनतंत्र और अपनी आतंरिक नीतियों की हिफाज़त कर पाए हैं तो इसे उनकी उद्दंडता और ज़िद ही कहना उचित होगा।

एडूआर्डो गेलियानो की पुस्तक 'ओपन वेंस ऑफ़ लातिन अमेरिका’ की भूमिका में हमारे समय की महत्वपूर्ण लेखिका इसाबेल एलिंदे लिखती हैं—

''बहुत वर्ष पहले, जब मैं छोटी थी तो मेरा भोला विश्वास था कि दुनिया को हम अपनी इच्छाओं और उम्मीदों के मुताबिक़ ढाल सकते हैं। लेकिन गेलियानो की पुस्तक ने इस धारणा को एक सिरे से चकनाचूर कर दिया। सत्तर के दशक में लातिन अमेरिका के बीमार दिल जैसे दिखने वाले नक्शे पर चिली एक छोटा सा देश था जहां साल्वाडोर एलिंदे (लेखिका के चाचा) की समाजवादी सरकार थी। वे प्रदेश के पहले माक्र्सवादी राष्ट्रपति थे जो समानता और मुक्ति के सपनों के साथ जनतांत्रिक चुनावों के रास्ते सत्ता में आये थे। लेकिन गेलियानो की पुस्तक कहती थी कि 500 वर्षों से शोषण और साम्राज्यवाद से दबे इस महाद्वीप में अब कोई सुरक्षित प्रदेश नहीं था और बनने के पहले दिन से ही एलिंदे की सरकार का धराशायी होना तय था। शीत युद्ध के समय पूर्व राष्ट्रपति किसिंजर के शब्दों में 'अपने पिछवाड़े में’ किसी वामपंथी प्रयोग को सफल होने की छूट नहीं दी जा सकती थी। क्यूबा की क्रान्ति बहुत थी, और उसके बाद अब किसी और समाजवादी प्रायोजन को, चाहे वह जनतांत्रिक चुनावों के रास्ते ही क्यों न आया हो, बर्दाश्त नहीं किया जाने वाला था।  और सचमुच 1973 में सैनिक सत्ता परिवर्तन के ज़रिए सत्ता पिट्टू तानाशाह पिनोशे के हाथों में चली गयी। इसी तरह का तख्तापलट कई दूसरे निकटवर्ती देशों में भी हुआ और देखते ही देखते महाद्वीप की आधी जनता दहशत भरा जीवन जीने को मजबूर हो गयी। यह वाशिंगटन द्वारा सोची गयी कूटनीति थी जो दक्षिणपंथियों द्वारा जबरन पूरे लातिन अमेरिका के लोगों पर लाद दी गयी थी और जिसके हर दृष्टांत में भाड़े की सेना ने समाज के अमीर और ताकतवर लोगों को फायदा दिलाने की भरपूर कोशिश की थी। उस दौर में प्रताडऩा, यातना शिविर, सेंसरशिप, बिना मुक़दमे के नज़रबंदी, और फर्जी एनकाउंटर जैसी दमनकारी गतिविधियाँ आम हो गयी थी। 1973 में सेना द्वारा तख्तापलट के बाद मुझे भी चिली से भागना पड़ा। जल्दी में अपने साथ मैं सिर्फ कुछ कपड़े, परिवार की चंद तस्वीरें, अपने बगीचे की मुट्ठी भर मिट्टी के साथ दो किताबें ही ले पायी—पाब्लो नेरुदा की प्रेम कविताएँ और गेलियानो की 'लातिन अमेरिका’, और ये दोनों किताबें उसी पीली जिल्द में आज भी मेरे साथ हैं।’’

एलिंदे, गेलियानो और लातिन अमेरिका की इस दास्तान में हमारे अपने देशों के रूपक  के साथ साथ आने वाले मुश्किलतर दिनों पर घिरते बादलों का अंदेशा भी शामिल है।

 

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नयी दुनिया के नक्शे पर उत्तरी और दक्षिणी अमेरिका के बीच की जो पतली सी पट्टी पनामा नहर द्वारा विभाजित हुई है, वहाँ प्रदेश के सात मुख्तलिफ छोटे छोटे देश बेलीज़, ग्वाटेमाला, एल साल्वाडोर, होंडुरास, निकारागुआ, पनामा और कोस्टा रिका स्थित हैं, जिनकी लगभग 4 करोड़ की सम्मिलित आबादी से अमेरिका को कोई ख़ास फर्क नहीं पड़ता है। लेकिन 13 करोड़ जनसँख्या और दुनिया के 11 नंबर के सबसे घनी आबादी वाले देश मेक्सिको को शामिल करते ही स्थितियां अचानक बदलने लगती हैं। जिस तरह हमारे देश में अमित शाह  'घुसपैठियों’ (यानी बांग्लादेशी और रोहिंग्या मुसलमानों) को देश को चाटने वाली दीमक बताते हैं, कुछ उसी अंदाज़ में ट्रम्प मेक्सिको से आने वाले घुसपैठियों को भ्रष्ट और ड्रग्स का व्यापार $फैलाने वाले अपराधियों की संज्ञा देते हैं। 2017 के चुनावों के दौरान ट्रम्प ने घोषणा की थी कि वे न सिर्फ मेक्सिको और संयुक्त राष्ट्र अमेरिका के बीच एक पुख्ता दीवार बनायेंगे, बल्कि मेक्सिको से उसकी लागत भी वसूलकर रहेंगे। तब से यह भौतिक और मानसिक दीवार 'ट्रम्प दीवार’ नाम से पहचानी जाने लगी है। यह दीवार 'खुशहाल’, 'अमनपसंद’ और 'नियमों का पालन करने वाले’ ख़ूबसूरत अमरीकी नागरिकों को मेक्सिको के 'घुसपैठियों’, 'उठाईगीरों’, 'ड्रग्स रोगियों’ और बदसूरत, अवैध 'कंगालों’ से अलग करती है। इसका जज़्बा असम में लागू हो चुकी और दूसरे राज्यों में धमकायी जाने वाली हमारी अपनी एन आर सी से बहुत अलग नहीं है। जिस तरह बजरंग दल और आर एस एस के उत्साही प्रतिनिधि असम में पचास से साठ लाख (और कभी कभी एक करोड़) बांग्लादेशी घुसपैठियों की मौजूदगी बताते हैं, कुछ उसी अंदाज़ में ट्रम्प कहते हैं कि अमेरिका में अवैध रूप से बिकने वाली 90 प्रतिशत नशीली  'हेरोइन’ मेक्सिको से आती है। इस बीच हर चीज़  में व्यावसायिक  संभावनाएं तलाशने वाली दो सौ से अधिक अमरीकी कंपनियों ने 'ट्रम्प दीवार’ का ठेका लेने और विभिन्न आधुनिक पद्धतियों से इसे अभेद्य बनाने के लिए तरह तरह की तजवीजें पेश की हैं।

इसी दीवार पर चुटकी लेते हुए पूर्व राष्ट्रपति बराक ओबामा ने कहा था कि ''रिपब्लिकन नेताओं ने (दीवार के बार में) जो भी सुझाव हमें दिए थे, उन्हें हम अमल में ला चुके हैं। लेकिन कुछ लोगों को कभी संतुष्ट नहीं किया जा सकता। ये लोग अपनी अपेक्षाएं लगातार बदलते रहते हैं. कभी ये कहेंगे कि फेंस और अधिक ऊंची होनी चाहिए। कभी यह कि उसके इस ओर एक पानी से भरी गहरी खाई होनी चाहिए। फिर शायद वे खाई के पानी में सैंकड़ों मगरमच्छ छोडऩे का सुझाव देंगे। मैं इस सारी राजनीति को बहुत अच्छी तरह समझता हूँ!’’

दरअसल हर देश के राजनीतिज्ञों के पास देशप्रेम या राष्ट्रवाद की दुहाई देने के लिए एक नामज़द दुश्मन का होना बेहद ज़रूरी होता है। दुश्मन की शनाख्त के बगैर लड़ाई की परिकल्पना नहीं की जा सकती। यह दुश्मन दूसरे अधिक ज़रूरी मुद्दों से लोगों का ध्यान हटा उन्हें भावात्मक 'ब्लैकमेल’ अथवा छद्म राष्ट्रवाद की ओर धकेलता है। इसी के आवेग में  लोग एम्बसियों और हाई कमिशनों के आगे धरने करते हैं, अश्रु गैस छोड़ी जाती है और चंद लोगों को ज़रा देर के लिए हिरासत में लेने के बाद शाम से पहले छोड़ दिया जाता है। अमेरिका के जनमानस के लिए यह दुश्मन मेक्सिको है और भारत में यही संदिग्ध रूतबा पाकिस्तान को प्राप्त है। इसी के आधार पर टी वी चैनलों और अखबारों की रोटी रोज़ी  चलती है, इसी की दुहाई देकर  इमरान के पुतले जलाए, मोर्चे निकाले और दंगे भड़काए जाते हैं, इसी के नाम पर इलेक्शन जिताए और हराए जाते हैं। 'हिन्दू’ के एक लेख में जॉर्ज वर्गीज़ कहते हैं कि 'भारत के लिए पाकिस्तान सबसे बड़ा बाहरी दुश्मन ही नहीं, हिन्दू राष्ट्रवाद से असहमति का सबसे सुविधाजनक लेबल भी है’। देश से बाहर निकलें तो ब्रिटेन में इसी दुश्मन का नाम ब्रेक्सिट है और चीन में सारा राष्ट्रवाद स्वतंत्र स्वायत्ता प्राप्त हांगकांग पर जाकर समाप्त होता है।

 

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हमें 'हाउडी मोदी’ वाले ह्यूस्टन से चलकर धरती की इसी लम्बी पट्टी से होते हुए कोस्टा रिका और उससे आगे लातिन अमेरिका की मुख्य धरती पर जाना है। इस पट्टी के एक ओर पूर्व में उत्तरी प्रशांत सागर है तो पश्चिम में कैरेबियन खाड़ी और उससे आगे उत्तरी अटलांटिक समुद्र, जहां के सम्मिलित प्रदेश को वेस्ट इंडीज़ की संज्ञा दी जाती है और जहां सबसे बड़े द्वीप क्यूबा से लेकर कोई डेढ़ दर्जन छोटे द्वीपों पर बसे देश हैं जिनमें बारबाडोस, जमाईका, हैती और त्रिनिदाद प्रमुख हैं। भूमध्यरेखा के निकट होने के कारण यहाँ की आबोहवा हमारे दक्षिण भारत से मिलती जुलती है।

यही वह प्रदेश है जहां क्रिस्टोफ़र कोलंबस के तीन जहाज़ों के बेड़े ने 12 अक्टूबर 1492 में पहली बार क्यूबा के तट से आगे सैन साल्वाडोर के समुद्र में लंगर डाला था। फिर आकाश में उड़ते सफ़ेद पक्षियों के रास्ते का अनुसरण करता हुआ वह पहले बहामाज़, फिर क्यूबा के उत्तर पूर्वी तट और हैती के तटों तक आ गया था। तब इस प्रदेश में बीस हज़ार पहले पूर्वी एशिया से आये टाइनो, गलिबी और सिबोने जातियों का वास था। ये सभी दोस्ताना स्वाभाव के शांतिप्रिय लोग थे, जिन्होंने कोलंबस के 39 नाविकों को सहर्ष वहां रुक जाने की इजाज़त दे दी थी।

स्पेन की महारानी से आर्थिक मदद पाने के बाद कोलंबस पश्चिम से भारत (इंडीज़) के नए रास्तों की खोज में पश्चिम की ओर अटलांटिक महासागर में निकला था। रानी से हुए इकरारनामे के अनुसार सफल हो जाने पर उसे 'महासागर एडमिरल’ का खिताब और अर्जित की गयी समस्त धन-सम्पदा का दस प्रतिशत मिलने वाला था। लेकिन कोलंबस ने जिसे 'ईस्ट इंडीज़’ समझा था, वह दरअसल अमेरिका का समूचा महाद्वीप और उसके नज़दीक अनेक स्वतंत्र द्वीपों में फैला कैरिबियान प्रदेश था। सवा पांच सौ पहले की उस कोलंबस यात्रा ने जहां एक ओर संस्कृति, अभिनव खाद्य पदार्थों और जीवन पद्धतियों का समूचा ज्ञान-संसार  पश्चिम की 'नयी दुनिया’  की शक्ल में विश्व को दिया था,  वहीं दूसरी ओर इसके आगमन ने उस नए महाद्वीप की संस्कृति, उसके इतिहास और पर्यावरण को हमेशा के लिए बदल दिया था और इस परिवर्तन का  खामियाज़ा हम सब आज, आने वाले कल और इससे आगे पृथ्वी के समूचे विनाश तक लगातार भुगतते रहेंगे।  यह अनायास नहीं हैं कि स्वीडेन से निकली छात्रा ग्रेता थुन्बर्ग रुंधे हुए गले से संयुक्त राष्ट्र में विश्व के सारे नेताओं को कटघरे में खड़ा कर कहती है —

''जिस समय मुझे स्कूल में होना चाहिए था, उस वक्त मैं महासागर के दूसरी तरफ आपके बीच में हूँ, लेकिन आप पर्यावरण की रक्षा के लिए कोई मज़बूत कदम उठाने की जगह हम बच्चों की ओर उम्मीद से देख रहे हैं!  आप यह दुस्साहस आखिर कर कैसे पा रहे हैं?’’

विकास के नाम पर जिस तेज़ी  से आज हम इस ब्रह्माण्ड को विनाश की ओर धकेल रहे हैं, उसका सबसे बड़ा दबाव ग्रेता और उसकी आने वाली पीढिय़ां को भुगतना होगा। पंद्रहवीं सदी में कोलंबस का अमेरिका आगमन इसी तथाकथित 'विकास’ के साथ साथ संस्कृतियों, परिवेशों और पर्यावरण को तहस नहस करने वाली यात्रा का पहला विनाशकारी कदम था।

कोलंबस की जीवनी से स्पष्ट हो जाता है कि पक्का साम्राज्यवादी होने के साथ साथ वह बेहद क्रूर, महत्वाकांक्षी और संस्कृति या पर्यावरण के प्रति गहरा तिरस्कार रखने वाला व्यक्ति था। दुनिया भर में उसी के उत्तराधिकारी आज बहुमूल्य जंगलों में आग लगा आदिवासियों की ज़मीन छीन उसे खदानों और कारखानों के मालिकों के सुपुर्द कर रहे हैं। इसी मानसिकता के तहत हमने अपने देश में रेल के महज़ एक डिपो के लिए कुछ हज़ार पेड़ों को काटने का निर्णय आनन फानन में लेते देखा है।

1493 में अमेरिका की दूसरी यात्रा के दौरान कोलंबस ने अपना असली साम्राज्यवादी रंग दिखाते हुए वेस्ट इंडीज़ (वर्तमान हैती देश, जिसे तब कोलंबस ने 'एस्पानोला’ नाम दिया था) के निरीह मूल निवासियों के विरुद्ध सशत्र हमला बोल दिया था। तब दो सौ पैदल सिपाहियों ने प्रशिक्षित खूंख्वार कुत्तों की सहायता से कोई डेढ़ हज़ार लोगों को कुचलकर दास बनाने के इरादे से जहाज़ के तहखानों में धकेल दिया था। इनमें से आधे स्पेन पहुँचने से पहले ही घुटकर मर गए थे। कुछ धार्मिक नेताओं ने जब इस पर ऐतराज़ जताया था तो सोलहवीं शताब्दी के आरम्भ में स्थानीय 'इंडियन’ निवासियों को दास बनाकर योरोप लाने पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया था। लेकिन उन्हें दास बनाकर उनका शोषण करने और जानवरों की तरह उनसे काम करवाने पर कोई प्रतिबन्ध नहीं था। स्थानीय निवासियों को जबरन कैथोलिक धर्म अपनाने के इरादे से गोरी सेना हर लड़ाई में फतह के बाद स्थानीय निवासियों को स्पेनिश भाषा में, बिना किसी दुभाषिये का सहारा लिए, नोटरी पब्लिक की उपस्थिति में निम्न फरमान  सुनाती थी—

''यदि तुम नहीं मानोगे, या आनाकानी करोगे तो मैं शपथ लेता हूँ कि ईश्वर की मदद से तुम पर सशस्त्र हमला बोल, तुम्हें हर संभव तरीके से चर्च और दूसरी सत्ताओं के आगे झुकाकर मैं तुम्हारी स्त्रियों और बच्चों को दास बनाऊंगा और सत्ता जैसी आज्ञा देगी, तुम्हें बेच, तुम्हारी संपत्ति हथिया, तुम्हें जितना भी हो सकेगा, कष्ट और विपत्ति का सहभागी बनाऊंगा!’’

कोलंबस मुख्यत: सोने-चांदी और भारत में पाए जाने वाले बहुमूल्य मसालों की तलाश में योरोप से निकला था. इन मसालों के इस्तेमाल से सर्दियों के मुश्किल दिनों में मांस को सडऩे से बचाया जा सकता था. स्पेन की महारानी से हुए इकरारनामे के मुताबिक़ सारी संपत्ति का दस प्रतिशत हिस्सा कोलंबस को मिलने वाला था। वहां पहुंचने के बाद उसका ख़याल था कि वह जापान के उस हिस्से में आ पहुंचा है जहां लोगों के पास बेहिसाब सोना बताया गया था। लिहाजा पकड़े गए हर निवासी को जीवनदान के बदले महीने के अंत में सोने की एक निश्चित मात्र ढूंढकर लाने की शर्त दी गयी थी। लेकिन कैरिबियन के उन द्वीपों में सोना आखिर था कहाँ? परिणामस्वरूप उसकी अंधी तलाश में हज़ारों ने अपनी जानें गंवायी थी। बाद के दशकों में  श्वेत सेनाओं द्वारा पेरू, कोलंबिया और ब्राज़ी ल में सोने और चांदी की जो पागल लूट  मचने वाली थी, उसका किस्सा अभी आना बाकी है। लेकिन पंद्रहवीं शताब्दी के अंतिम वर्षों में कोलंबस का कैरीबियान अभियान प्राकृतिक सम्पदा के ज़रिए शोषण और गुलामी की एक अन्य कहानी भी लेकर आया था।

कैरीबियान की दूसरी खेप में कोलंबस अपने साथ योरोप के नज़दीक कैनरी द्वीप से गन्ने की कुछ जड़ें लेकर आया था। उसने उन्हें वर्तमान डोमिनिकन गणतंत्र की मिट्टी में गाड़ दिया था और कुछ ही सप्ताह  में जब वे पौधे तेज़ी  से बढ़ निकले थे तो ख़ुशी से भरकर उसने वहाँ गन्ने के दो तीन छोटे छोटे खेत उगाने का फैसला लिया था। तब योरोप में शक्कर इतनी दुर्लभ और महंगी थी कि महाराजाओं के दहेज तक में उसका ज़िक्र होता था। सिसीली और मदीरा के सीमित क्षेत्र में गन्ना उगाया जाता था। शहरों के दवाखानों में चीनी ग्राम के हिसाब से खरीदी और बेची जाती थी।

अगले कुछ ही दशकों में पूरे कैरीबियान के विभिन्न द्वीपों में गन्ने की खेती का जो तूफ़ान आने वाला था, उसने मीलों फैले संतरों, आमों और फलों-सब्जियों के उपजाऊ जंगलों और इनमें रहने वाले विलक्षण जीव-जंतुओं को नष्ट कर गन्ने की खेती के लिए सपाट ज़मीन में तब्दील कर दिया था, जिससे प्राकृतिक पानी दूषित हो गया था और भोजन देने वाली धरती अपनी समूची उर्वरा शक्ति खो अब महज़ भूख उगाने लगी थी। गन्ने तथा चीनी से बनने वाला अथाह पैसा विदेशी श्वेत मालिकों की तिजोरियों को भरने लगा था। हालत यह थी कि दो तीन दशकों के अंतराल में ही योरोप की 70 से 90 प्रतिशत चीनी की आपूर्ति कैरीबियन से होने लगी थी और यह सिलसिला आज तक कायम है, हालांकि धरती की उर्वरा शक्ति के घटने के साथ साथ प्रदेश में गन्ने की प्रति हेक्टेयर पैदावार भी लगातार घटती चली गयी है।

'पुराने दिनों में क्यूबा में यात्रा करने वाले उसे शीशम, देवदार और महोगनी के घने जंगलों से ढंका बताते थे। गन्ने के हमले में ये सारे जंगल राख हो गए। गन्ने की बढ़त इन जंगलों की मौत का ऐलान थी। अभी कुछ समय पहले तक 'रिओ सगुआ’ की नदियों में गरीब नाविक अपने साथ एक बांस के नीचे लगी लम्बी कील लेकर चलते थे जिसे वे रह रहकर पानी के नीचे छिपे तल पर भाले की तरह चुभाते थे। जब उनका निशाना किसी लकड़ी पर जा लगता तो वे मेहनत के साथ  गन्ने के लिए काटे किसी पेड़ का तना पानी से बाहर निकालते थे।  इस तरह आज भी वे लोग  जंगल की लाशों पर अपनी जीविका चला रहे हैं ....’

कैरीबियान में श्वेतों का आगमन अपने साथ चेचक और दूसरी बीमारियाँ लाया था और इन नए रोगों से प्रतिरोधकता के अभाव में हज़ारों स्थानीय निवासी हर रोज़ मरने लगे थे। एक अनुमान के अनुसार कोलंबस के आगमन के बाद के 158 वर्षों में कोई ग्यारह करोड़ स्थानीय मूल निवासी इन रोगों से मारे गए। हत्या द्वारा ली गयी जानें इन आंकड़ों से अलग थीं। इन्तहा यह थी कि कई द्वीपों से स्थानीय लोगों का पूरी तरह सफाया हो गया था। इतिहासकार कहते हैं कि स्थानीय बाशिंदों की इन व्यापक मौतों से एक ओर अश्वेतों से उनका संघर्ष दब गया था तो दूसरी ओर धरती को गन्ने के खेतों में बदलने के अभियान में और तेज़ी  आ गयी थी क्योंकि जंगल के असली दावेदार अब बाकी नहीं बचे थे।

लेकिन गन्ने की खेती और उससे जुड़ा चीनी का उत्पादन खेतों और कारखानों में हज़ारों मजदूरों से कड़े परिश्रम की मांग करता था और गिने चुने आभिजात्य वर्ग के गोरों से यह काम नहीं हो सकता था। इस स्थिति से निपटने के लिए मालिकों ने अफ्रीका से  बलपूर्वक पकड़े गए हज़ारों अश्वेतों को गुलाम बना जानवरों से भी बदतर हालत में कैरीबियान के खेतों और चीनी के कारखानों में काम करने पर मजबूर किया था। ब्रिटिश संग्रहालय में उपलब्ध दस्तावेजों के अनुसार विरोध करने वाले या अस्वस्थ गुलामों को जबरन चीनी के खौलते कड़ाहों में फेंक दिया जाता था और अपराधियों को कारखाने के लोहे के रोलरों के बीच पीस दिया जाता था. अनुमान है कि सोलहवीं शताब्दी से 1866 एक करोड़ से भी अधिक गुलाम अमेरिका लाये गए, जिनमें से अधिकाँश वहाँ की गन्ने और चीनी की मिलों में कार्यरत थे। इसके चलते कई द्वीपों में इन अश्वेत गुलामों की संख्या उनके श्वेत मालिकों से कहीं अधिक हो गयी थी। आगे चलकर इन गुलामों ने विद्रोह भी किया जिसके फलस्वरूप लातिन अमेरिका ने दशकों तक खून खराबा देखा।

मेरी नज़र में शोषण, दमन और विनाश के इस इतिहास को छुए बगैर लातिन अमेरिका की किसी यात्रा को मुकम्मल नहीं माना जा सकता।

गेलियानो ने एक जगह लिखा है कि 'जिन चीज़ों के बगैर ज़िन्दगी के मायने नहीं बचते, उन चीज़ों के लिए जान दे देना मायने रखता है।’

इत्तफाक से दुष्यंत कुमार की पंक्तियाँ हू-ब-हू इसी जज़्बे को अपने शब्दों में यूं दोहराती हैं:

जियें तो अपने बगीचे में गुलमोहर के तले

मरें तो ग़ैर की गलियों में गुलमोहर के लिए!

 

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कैरीबियान में ही स्थित है त्रिनिदाद द्वीप जिसे कोलंबस ने अपनी तीसरी यात्रा के दौरान ईश्वर की 'ट्रिनिटी’ के आधार पर 'ला आईला दे ला त्रिनिदाद’ नाम दिया था। यहाँ एक ज़माने में प्रति वर्ष साल ढाई लाख टन चीनी बनती थी, जो घटते घटते अब मात्र एक हज़ार टन रह गयी है. यहाँ की अधिकाँश जनसँख्या अश्वेत दासों के रूप में अफ्रीका और गिरमिटिया समुदायों की शक्ल में भारत और सुदूर चीन से आये मजदूरों की है। 1845 से 1917 के बीच कोई 15 लाख भारतीय 'गिरमिटिया’ मजदूर यहाँ आये थे और आज देश की 35 प्रतिशत जनसँख्या इनसे और इनके  वंशजों से बनी है। इन्हें यहाँ 'ईस्ट इंडियन’ नाम से पहचाना जाता है। 1962 में त्रिनिदाद अंग्रेज़ी  शासन से आज़ाद हुआ और उसकी स्वतंत्रता की लड़ाई में भारतीय मूल के नेता रुद्रनाथ कपिलदेव का बड़ा हाथ रहा। त्रिनिदाद के अलावा गुयाना और सूरीनाम जैसे देशों में भी 25 से 40 प्रतिशत जनसँख्या  भारतीय मूल के वासियों की है। इनमें से अधिकाँश के दादा/दादी  या परदादा 'गिरमिटिया’ बनाकर भारत से यहाँ लाये गए थे। यह उन्नीसवीं शताब्दी में अंग्रेजों द्वारा चलाई गयी एक तरह की दास प्रथा ही थी जिसे भारत की तत्कालीन ब्रिटिश सरकार का समर्थन और संरक्षण प्राप्त था। 'गिरमिट’ या 'अग्रीमेंट’ के आधार पर भारत से अंग्रेजों के दूसरे उपनिवेशों में श्रम के लिए भेजे जाने वाले वाले स्त्री और पुरुष मजदूरों को यह नाम दिया गया था। वेस्ट इंडीज़ में आने वाले भारतीय मजदूरों में बड़ी संख्या भारत के उत्तरी प्रान्तों से आने वालों की थी। ये भोजपुरी या मगधी बोलते थे और स्थानीय क्रियोल भाषा के साथ मिलकर अब इनकी भाषा का एक स्थानीय स्वरूप बन चुका है।

अंग्रेज़ी  लेखिका पेगी मोहन (जो स्वयं भारतीय मूल की त्रिनिदाद निवासी  रही हैं) ने अपनी कृति 'जहाजिन’ में बहुत मेहनत के साथ बस्ती, उत्तर प्रदेश की भोजपुरी बोलने वाली 90 से अधिक उम्र वाली कुछ वास्तविक 'जहाजिनों’ के जीवन-सूत्रों की तलाश की है।  

''बतियाइन बहन?’’ वह टेप रिकॉर्डर चलता देखकर पूछती है, फिर मेरी अनुमति पाकर कहना शुरू करती है, ''पारबती हमार नाम बा! पेंशन मीलेला ओही से। पारबती। पर दूसर ऐसे बोलवे के बा दीदा। ओही नाम फेमली मे, सगरो किरवल (स्थानीय क्रीयोल), इन्डियन, सब, सब पुछेला, किरौनियान (क्रीयोल महिलायें) जाला पानी के यहान, सब पुछेला: एह दीदा, तू हियाँ बा?....हाँ भईया,हमार जनम भइल बा मुलुक मे, बस्ती जीला! हमार बाप कहार में डोली ढोवत रहल, बाभन-छत्री के डोली। ओही मे घुस के बैठायलेन, तब दू आदमी एहार, दू आदमी ओहार, ओहि मे जाई। हमार बाप रहल रौनियार कहार, आ माई रहल ढोडिया!....हमने सब के मुलुक से ली आनल। पकड़ पकड़ के फूलम करल। हाँ, कुंवारी हम रहली—ना सच्चे कुंवारी रहली, हम बियाह कर के अयली। आ हमार आदमी मुल्के मे बा। हम अकेले अयली ओके छोड़ के....भागे आवल, भागी आवल!’’

                                                                                             ('जहाजिन’ की वास्तविक रिकॉर्डिंग से)

 

पार्वती और उनके साथियों को 1880 से 1900 के बीच फैज़ाबाद के मैजिस्ट्रेट से 'गिरमिट’ पर अंगूठा लगाने के बाद पैसेंजर गाड़ी से कलकत्ता लाया गया था और फिर स्टीमर में ढाई महीनों की मुश्किल यात्रा के बाद वे अपनी ज़बान में 'चीनी-दाद’ पहुंचे थे, जहां उन्हें गन्ने के खेत और चीनी के कारखाने में मजदूरी करनी थी। आते समय पार्वती को एक वर्ष बाद लौट सकने का झांसा दिया गया था, लेकिन हकीकत में वह कभी लौट नहीं सकी।

पार्वती की कहानी देश से त्रिनिदाद आयी लगभग हर 'जहाजिन’ की कहानी है। जहाज़ के  मुश्किल सफ़र में कई लोग और बच्चे रास्ते में ही चल बसे. उन्हें कहा गया था कि गन्ने के खेत में काफी पैसा कमाकर वे वापस आ सकेंगे। लेकिन यह सब झूठ था। उन्हें वहाँ जबरन ईसाई बनाकर एक नया नाम और पहचान दी गयी और देश की यादें अब उनके लिए सिर्फ उनके गीतों और लोरियों में सिमटकर रह गयी हैं। यह सब भी शायद एक पीढ़ी के बाद पूरी तरह धुलकर साफ़ हो जाएगा ....

''अरे , बिरहा ता गावा, ते गावा गड़ेरिया

बिरहा ता सूना, ता सूना गड़ेरिया’’

 

''जैसे रोज-रोज आवेला तू, टेर सुनि के

आइयो रे निदिया, निदार बन के

 

का होई सोनवा, का होई चांदिया

हमरा के चाही, मैया, तोहरी ही गोदवा’’

('जहाजिन’ की वास्तविक रिकॉर्डिंग से)

 

1838 में जिस दिन कैरीबियन क्षेत्र में दास प्रथा समाप्त हुई थी, उसी दिन वहां यह   'गिरमिटिया’ प्रथा शुरू कर दी गयी थी। सच यह है कि दोनों में  कोई ख़ास अंतर नहीं था। प्रति दिन 25 सेंट पाने के लिए इन्हें सुबह से शाम तक खटना पड़ता था और लौट भागने का कोई विकल्प उनके पास नहीं था। इतिहासकार ह्यू टिंकर ने इसे 'पुरानी दास प्रथा का नया रूप’ बताया था। महात्मा गांधी, गोखले, जिन्ना और अन्य नेताओं के निरंतर विरोध के बाद अंतत: 1917 में  अंग्रेजों को 'गिरमिटिया’ प्रथा समाप्त करने पर मजबूर होना पड़ा।  

आर्थिक जानकार आज भी मानते हैं कि उस दौर में त्रिनिदाद के चीनी उद्योग को अप्रतिम ऊंचाइयों तक पहुंचाने में इन मेहनती और ईमानदार 'गिरमिटिया’ मजदूरों का बहुत बड़ा हाथ रहा।  आज इस उद्योग के लगभग अस्त हो चुकने के बाद भारतीय मूल के अधिकाँश सदस्य दूसरे उद्योगों में खप गए हैं, उनमें से कुछ ने ऊंची शिक्षा प्राप्त की है, और इक्का दुक्का लोग लौटकर वापस भी आये हैं।

कैरीबियन प्रदेश के चर्चित भारतीय मूल के लोगों में नोबेल पुरस्कार विजेता वी एस नायपॉल और वेस्ट इंडीज़ के कई प्रसिद्ध क्रिकेट खिलाडिय़ों का नाम सहज ही लिया जा सकता है। त्रिनिदाद और उसके निकटवर्ती क्षेत्र में तेल मिलने के बाद इस देश की अर्थव्यवस्था में आमूल परिवर्तन आया है और 'चीनी-दाद’ का वह गन्ने और चीनी का युग इन 'जहाजिनों’ के लिए अब किसी बुरे सपने की तरह बहुत पीछे छूट गया है।

 

                                                               ***

 

कोस्टा रिका के बीचोंबीच स्थित तीन से चार हज़ार फीट की ऊँचाई की केन्द्रीय पठारनुमा घाटी को 'सेन्ट्रल वैली’ के नाम से जाना जाता है, जहां इस छोटे से देश के दो तिहाई लोग रहते हैं। यहीं इसके चार बड़े शहर सैन खोसे, अलाजुएला, हेरेडिया और कार्तागो स्थित हैं, जिनकी सम्मिलित 20 लाख की आबादी से इस उनींदे देश का अधिकाँश कारोबार चलता है।

हूस्टन से साढ़े तीन घंटे की फ्लाइट द्वारा कोस्टा रिका की राजधानी सैन खोसे पहुँचने के बाद हमारी निगाहें कुछ उत्सुकता के साथ स्थानीय लोगों को ढूंढ रही थी। लेकिन इमीग्रेशन के इस ओर फ्लाइट से उतरने वाले अधिकाँश यात्री अमरीकी सैलानी थे। स्थानीय नागरिकों के लिए बने काउंटर से दो चार सवारियां हमारी निगाह में आने से पहले ही जल्दी से उस ओर निकल गयी। शेष भीड़ को हमारी तरह अमरीकी वीज़ा दिखाकर पार होना था।

दरअसल कोस्टा रिका में वहां के मूल कोस्टा रिकन निवासी को ढूंढ पाना उतना ही मुश्किल है जितना संयुक्त राष्ट्र अमेरिका में किसी रेड इंडियन का सुराग पा लेना। कहा जाता है कि सोलहवीं शताब्दी में गोरे स्पैनियार्डों के आगमन के चंद दशकों में ही अधिकाँश स्थानीय बाशिंदे बीमारियों का शिकार होकर चल बसे थे और जो थोड़े बहुत बचे थे, उन्हें सिपाहियों ने ज़मीन के लिए लड़ी जाने वाली लड़ाइयों में मौत के घाट उतार दिया था। हालांकि सैन खोसे के एक फैशनेबल मोहल्ले में स्थित स्थानीय जातियों के उत्पाद बेचने वाले शोरूम की मानें तो देश में अब भी एक लाख से अधिक मूल निवासी (कुल जनसंख्या का लगभग ढाई प्रतिशत) मौजूद हैं और सरकार उनके संरक्षण और विकास के लिए हर संभव प्रयास कर रही है। लेकिन उनका यह कथन अपने देश में कश्मीर में 'सब कुछ ठीक होने’ के सरकारी बयानों से अधिक विश्वसनीय नहीं लगता। यूं ऐतिहासिक दृष्टि से यहाँ मध्य अमेरिका की कम से कम आठ मुख्तलिफ जनजातियों की उपस्थिति दर्ज़ की गयी है। लेकिन किताबी ज्ञान और सच्चाई में शायद काफी अंतर होता है।

कोस्टा रिका के वर्णनों में जोज़फ़ ऑफ़ नैज्रेथ के नाम पर बसी उसकी राजधानी सैन खोसे को जीवन स्तर एवं नागरिक सुविधाओं के लिहाज से लातिन अमेरिका के बेहतरीन एवं सुरक्षित शहरों में गिना गया था। ऐसे में जब स्थानीय गाइड ने हमें आगाह किया था कि शाम ढलने के बाद शहर की गलियों में भटकना खतरे से खाली नहीं है, तो आश्चर्य होना स्वाभाविक था।

हमारी कहानी का महा(खल)नायक कोलंबस अपनी तीसरी  यात्रा के दौरान 1502 में पहली बार कोस्टा रिका आया था और कहा जाता है कि यहाँ उसने जितना सोना देखा था, उतना उसे पूरे जीवन में देखना नसीब नहीं हुआ था। ज़ाहिर है कि कोलंबस सोने के अलावा कोई और भाषा नहीं समझता था, लिहाजा उसके सहयोगी जिल गोंज़ालेज़ दाविला ने अभिभूत होकर इस प्रदेश का नाम 'रिच कोस्ट’ (धनवान तट) यानी कोस्टा रिका रख दिया था। लेकिन हिंदी में कहावत है कि 'जहां जहां पैर पड़े संतन के, तहाँ तहाँ बंटाधार!’ लिहाजा कोलंबस के आगमन के कुछ ही दशकों में यह 'धनवान तट’ इस नयी दुनिया के सबसे नामालूम, खस्ताहाल और उपेक्षित प्रदेश में तब्दील हो चुका था।

आने वाले सप्ताहों की रिहाईश के दौरान हमें इसी उपेक्षित प्रदेश की ज़मीनी हकीकत को देखना और समझना था। 

(अगले अंक में जारी )

 

 

 

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