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दिसंबर - 2019

अजीब आदमी था वो—कैफ़ी

यूनुस ख़ान

जन्मशती पर विशेष

 

 

कैफ़ी आज़मी

 

पड़ताल कैफ़ी की गीतकारी में सरोकारों की

 

जानी-मानी गायिका शुभा मुद्गल ने अपने लेख में एक बड़ी मानीखेज़ बात कही थी। उन्होंने कहा था—'हिंदी फिल्मी गाने हमारे समय के मुहावरे हैं, ये आधुनिक कहावतें हैं’। कितनी अजीब बात है कि जहां पश्चिम के सिनेमा में फिल्मी -गानों या संगीत को पटकथा की धारा में एक अवरोध माना जाता रहा है, वहीं हिंदी सिनेमा ने पटकथा में गीतों को पिरोकर कहानी को आगे बढ़ाने एक साधन खोज निकाला है। दिलचस्प बात ये है कि फिल्मी-गीतों का दोहरा जीवन होता है। वे अपनी फिल्म की कहानी में किसी और भूमिका में होते हैं, जबकि कहानी से परे उनका अपना एक स्वतंत्र अस्तित्व होता है, वे किसी व्यक्ति के तात्कालिक जीवन, परिस्थितियों और भावनाओं से जुड़कर एक बिलकुल अलग मंच तैयार करते हैं। इस मायने में फिल्मी-गीत हमारे जीवन और स्मृतियों में बहुत गहरे धंस जाते हैं।

कितने ही ऐसे गीतकार और गायक हुए हैं—जिनका काम अलग-अलग व्यक्तियों के जीवन में बहुत गहरा असर करता रहा है। सिने-संसार में ऐसे कई लेखक और गीतकार आए, जिनका ताल्लुक किसी विचारधारा से था और उसकी उँगली पकड़े रहते हुए भी उन्होंने अपने पेशेवर जीवन को निभाया। सिनेमा में ऐसा पेशेवर काम वो कर गए, जिसकी आज भी मिसाल दी जाती है। ख्वाजा अहमद अब्बास, अली सरदार जाफरी, मजरूह सुल्तानपुरी और कैफ़ी आज़मी का नाम इस संदर्भ में बाक़ायदा लिया जा सकता है। साल 1919 कैफ़ी आज़मी का जन्मशती वर्ष है। साल 2019 कैफ़ी आज़मी की जन्मशती का साल है। पूरी दुनिया में जगह-जगह ज़्यादातर शायर कैफ़ी को सलाम किया जा रहा है। पर फिल्मी-गीतकार के रूप में कैफ़ी को कम करके नहीं देखा जा सकता। इस लेख में हम देखेंगे कि कैफ़ी किन वजहों से ना चाहते हुए भी फिल्मी-दुनिया की तरफ मुड़े और किन हालात में उन्होंने फिल्मी-दायरे में रहते हुए क्या-क्या लिखा।

हिन्दुस्तान के बेहतरीन शायरों में शुमार कैफ़ी की कहानी बड़ी दिलचस्प है। उत्तर प्रदेश के आज़मगढ़ जिले के एक छोटे से गांव मिजवां में 14 जनवरी सन 1919 को जन्मे कैफ़ी साहब का असली नाम अतहर हुसैन रिज़वी था। कैफ़ी आज़मी के पिता चाहते थे कि वो मौलाना बनें। अंदाज़ा लगाइये कि इतना दीनी-माहौल था और वक्त गवाह है कि ऐसे माहौल में ही बग़ावत के बीज पनपते हैं। बहरहाल कैफी को लखनऊ पढ़ाई के लिए भेज दिया गया। उन्हें इस पढ़ाई से कोई सरोकार नहीं था। मदरसे में भी कैफी ने अपने भीतर के शायर को जिंदा रखा। महज़ ग्यारह बरस की उम्र से ही कैफ़ी आज़मी ने मुशायरों में हिस्सा लेना शुरू कर दिया था, वहां उन्हें काफी दाद भी मिला करती थी। लेकिन बहुत से लोग जिनमें उनके पिता भी शामिल थे, ऐसा सोचा करते थे कि कैफ़ी आज़मी मुशायरों के दौरान खुद की नहीं बल्कि अपने बड़े भाई की ग़ज़लों को सुनाया करते है। एक बार बेटे की परीक्षा लेने के लिये पिता ने उन्हें गाने की एक पंक्ति दी और उस पर उन्हें ग़ज़ल लिखने को कहा। उन्होंने इसे एक चुनौती के रूप में स्वीकार किया और उस पंक्ति पर एक ग़ज़ल की रचना की। उनकी यह ग़ज़ल उन दिनों काफी लोकप्रिय हुई और बाद में बेगम अख़्तर ने उसे अपनी आवाज़ दी-

इतना तो ज़िंदगी में किसी की खलल पड़े

हँसने से हो सुकून न रोने से कल पड़े।

जिस तरह हंस रहा हूं मैं पी-पी के अश्क-ए-ग़म

यूं दूसरा हंसे तो कलेजा निकल पड़े।

मुद्दत के बाद उस ने जो की लुत्फ़ की निगाह

जी ख़ुश हो गया मगर आंसू निकल पड़े।

ये थी कैफ़ी के लिखने की शुरूआत। पर आगे चलकर वो कम्यूनिस्ट हो गए। मज़दूरों के हक़ के लिए लड़ते थे। वो ज़माना ही ऐसा था, बड़े-बड़े नाम इप्टा और प्रोग्रेसिव राइटर्स एसोसिएशन में थे। साहिर लुधियानवी, अली सरदार जाफरी, प्रेम धवन, बलराज साहनी। जानी-मानी लेखिका इस्मत चुग़ताई भी प्रोग्रेसिव राइटर्स एसोसिएशन की मेम्बार थीं। कैफी उन दिनों बाकायदा कॉमरेड थे। शौकत कैफ़ी से उनकी शादी हो चुकी थी। पहली संतान पैदा होने वाली थी। संघर्ष के दिन थे। कैफी कम्यूनिस्ट पार्टी के अख़बार 'कौमी जंग’ के लिए लिखते थे। और मज़दूर,  किसान यूनियनों के लिए काम करते। उन्हें चालीस रूपए तनख्वाह मिलती थी। इतने में गुज़ारा चल नहीं सकता था। तो इस्मत चुग़ताई को समझ में आया कि इन लोगों के लिए कुछ करना चाहिए। शायद आपको याद हो कि इस्मत चुग़ताई के पति शाहिद लतीफ़ बड़े लेखक निर्देशक थे। सन 1941 में आई अशोक कुमार के अभिनय वाली फिल्म 'झूला’ उन्होंने लिखी थी और 'जिद्दी’ उन्होंने निर्देशित की थी, जिसके ज़रिये देव आनंद और किशोर कुमार का करियर शुरू हुआ था। बहरहाल... इस्मत चुग़ताई ने अपने हमसफर शाहिद लतीफ़ से कहा कि वो कैफी आज़मी को अगली फिल्म  में बतौर गीतकार काम दे दें। इस तरह सन 1951 में आयी फिल्म 'बुज़दिल’ के लिए शैलेंद्र के होते हुए भी कैफी आज़मी को गीतकार चुन लिया गया। इसलिए 'बुज़दिल’ में कुछ गाने शैलेंद्र के हैं और कुछ कैफ़ी के। इस काम के एवज़ में उन्हें  तब मिले एक हजार रूपए,  उस ज़माने में ये बड़ी रकम हुआ करती थी। इस फिल्म के सितारे थे प्रेमनाथ और निम्मी, संगीत सचिन देव बर्मन का था।

शाहिद लतीफ के साथ गीतकारी का जो सिलसिला शुरू हो गया, तो आगे चलकर कैफ़ी ने उनकी कुछ और फिल्मों में भी गाने लिखे। फिल्मी-दायरे में रहते हुए कैसे उन्होंने प्रगतिशील मूल्यों को कायम रखा- इसकी कई मिसालें मिल जायेंगी। शाहिद लतीफ के संदर्भ में हम फिल्म  'सोने की चिडिय़ा’ को याद कर सकते हैं जो सन 1958 में आई थी। ये फिल्म इस्मत चुग़ताई की कहानी पर बनी थी, फिल्म में शायर एक अभिनेत्री से कहता है— 'जानती हो, ग़रीब लोग फिल्म देखने क्यों जाते हैं, पाँच आने के झूठे ख्वाब और तुम्हारे हुस्न की चमक देखने के लिए’। एक ग़रीब लड़की के संघर्ष, शोषण और उसकी कामयाबी के खोखलेपन की कहानी थी ये फिल्म। इस फिल्म में शाहिद लतीफ ने कैफ़ी की न•म 'मकान’ को शामिल किया था। फिल्मो में अभिनेता बलराज साहनी इसे पढ़ते हैं-

आज की रात बहुत गर्म हवा चलती है

आज की रात न फुट-पाथ पे नींद आएगी

सब उठो, मैं भी उठूँ तुम भी उठो, तुम भी उठो

कोई खिड़की इसी दीवार में खुल जाएगी।

हिंदी के पेशेवर सिनेमा में इस तरह के प्रगतिशील मूल्यों वाली कविता शामिल होने के दिन तकरीबन उसी दौर में आ रहे थे। 'सोने की चिडिय़ा’ की एक और ख़ासियत है इसके गीतकार। इस फिल्म के गाने साहिर और मजरूह ने लिखे थे। है ना आश्चर्य कि एक फिल्म  से तीन प्रगतिशील लेखक एक साथ जुड़े, कैफ़ी, साहिर, मजरूह।

कैफ़ी की शादी की दास्तान भी कमाल की है। हुआ यूं कि कैफ़ी किसी मुशायरे में शिरकत करने के लिए हैदराबाद आए थे। खूबसूरत चेहरा, बिखरे बाल। नाज़ुक सी आवाज़। बेहतरीन तरीके से पढऩा। उन्होंने जो नज़्म पढ़ी- वो थी 'औरत’।

उठ मेरी जान मेरे साथ ही चलना है तुझे

क़द्र अब तक तेरी तारीख़ ने जानी ही नहीं

तुझमें शोले भी हैं बस अश्क-फिशानी ही नहीं

तू हक़ीकत भी है दिलचस्प कहानी ही नहीं

तेरी हस्ती भी है इक चीज़ जवानी ही नहीं

अपनी तारीख़ का उन्वान बदलना है तुझे

उठ मेरी जान...।

बस शौक़त को औरतों की आज़ादी का ऐलान करती ये नज़्म इतनी पसंद आ गयी कि उन्होंने कैफ़ी से शादी करने का फैसला कर लिया। आपको ये जानकर हैरत हो सकती है कि कैफ़ी की ये नज्म चालीस के दशक के आखिरी दौर की है और बहुत आगे चलकर इसे सन 1997 में फिल्म 'तमन्ना’ में शामिल किया गया था, इसे गाया था सोनू निगम ने।

हमारी फिल्मों में रूमानियत के सिवा गाने लिखने की गुंजाइश ज़्यादा होती नहीं है। और कैफ़ी ने रूमानियत के दायरे में रहकर ऐसे गाने लिखे हैं- जो इंसानी जज्बाात और शायरी की ऊँचाई बन गये हैं। गुरूदत्त  की फिल्म  'काग़ज़ के फूल’ सन 1959 में आयी थी, गुरूदत्त’ की दुनियावी नाकामी और कलात्मक कामयाबी की एक मिसाल। इस फिल्म के गाने कैफी ने लिखे थे। 'बिछड़े सभी बारी-बारी’ में वो लिखते हैं--

उड़ जा उड़ जा प्यासे भँवरे, रस ना मिलेगा ख़ारों में

कागज़ के फूल जहाँ खिलते हैं, बैठ ना उन गुलज़ारो में

नादान तमन्ना रेती में, उम्मीद की कश्ती खेती है

इक हाथ से देती है दुनिया, सौ हाथों से लेती है

इसी फिल्म  में उन्होंने 'वक्त  ने किया क्या हंसी सितम’ जैसा गीत भी दिया। किस तरह बदलते ज़माने के साथ जज्बात सूख रहे हैं और इंसान पत्थर होता चला जा रहा है इसकी मिसाल है ये गाना। आज इतने बरस बाद भी इस गाने का असर मद्धम नहीं हुआ है। गुरूदत्त ने जब असमय मौत को गले लगा लिया तो उन्हों ने गुरूदत्त की याद में एक नोहा लिखा, उसकी कुछ पंक्तियां-

रहने को सदा दहर में आता नहीं कोई

तुम जैसे गए ऐसे भी जाता नहीं कोई

इक बार तो ख़ुद मौत भी घबरा गई होगी

यूँ मौत को सीने से लगाता नहीं कोई

सन 1962 के भारत-चीन युद्ध के बाद निराशा का माहौल था और जाने-माने निर्माता निर्देशक चेतन आनंद ने इस युद्ध के परिदृश्यय पर अपनी फिल्म 'हक़ीक़त’ बनाने का फैसला किया। वो एक दिन कैफी साहब से मिलने पहुंचे। चेतन आनंद यानी नीचा नगर, अफसर, टैक्सी ड्राइवर, फंटूश जैसी फिल्मों के निर्देशक। उनकी पिछली फिल्म 'किनारे किनारे’ भी पिट चुकी थी। कैफ़ी आज़मी ने कहा, 'भाई....लोग मुझे अनलकी कहते हैं, आप मुझसे काम क्यों करवाना चाहते’ हो।  चेतन आनंद ने जवाब दिया—'अनलकी तो लोग मुझे भी कहते हैं और आप पर भी ये ठप्पा लग गया है। क्यों न दो अनलकी लोग साथ हो जाएं और क्या पता तकदीर कुछ रंग दिखा दे’। फिर हुआ भी ऐसा ही। 'हक़ीक़त’ भारतीय सिनेमा के इतिहास की एक कालजयी फिल्म बन गयी। इसे दूसरी सर्वश्रेष्ठ फीचर फिल्म का राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिला। संगीतकार मदनमोहन के स्वरबद्ध किए 'हक़ीक़त’ के गाने सही मायनों में सुनहरा इतिहास रचने वाले बने। 

ज़िंदा रहने के मौसम बहुत हैं मगर

जान देने की रुत रोज़ आती नहीं

हुस्न और इश्क़ दोनों को रुसवा करे

वो जवानी जो खूँ में नहाती नहीं

बाँध लो अपने सर पर कफ़न साथियो,

अब तुम्हारे हवाले वतन साथियो।।

भारतीय सिनेमा के देशभक्ति गीतों की सूची में यह गीत हमेशा शामिल होता है। उन्होंने एक और देशभक्ति गीत रचा था—'हिंदुस्तान की क़सम/ ना झुकेगा सर वतन का/ हर जवान की क़सम’। कैफ़ी के भीतर का शायर हमेशा उस व्याक्ति के पक्ष में खड़ा नज़र आता है जो संत्रास और पीड़ा झेल रहा है, जो युद्ध और दमन का शिकार है। 'हक़ीक़त’ में उनका एक गीत है—'आई अब की साल दीवाली/ मुँह पर अपने खून मले/ आई अब की साल दीवाली/चारों तरफ़ है घोर अन्धेरा/ घर में कैसे दीप जले’। फिल्म से परे इस गाने को वृहत्तर परिदृश्य में देखें तो आपको हर युग में इस गीत की कई परतें खुलती नज़र आयेंगी।

क्या  पानी की कमी से जूझती दुनिया के लिए कोई गीत आपको फिल्म-संसार के खाते में अंकित नज़र आता है। कैफी ने ये भी किया। जी हां, सन 1971 में जब ख्वााजा अहमद अब्बास ने अपनी फिल्म बनायी 'दो बूंद पानी’ तो इसमें कुछ गीत कैफी के भी थे। ज़रा देखिए कि महिलाएं इस फिल्म में 'पीतल की गागरी के बहाने’ क्या गा रही हैं—'एक दिन ऐसा भी था, पानी था गाँव में/ लाते थे गगरी भरके तारों की छाँव में/ कहाँ से पानी लाएँ, कहाँ ये प्यास बुझाएँ/ जल-जलके बैरी धूप में सँवलाया रंग, दुहाई रे/ पीतल की मेरी गागरी, दिल्ली से मोल मंगाई रे...’। इसी फिल्म  में उन्होंने लिखा—'अपने वतन में आज दो बूंद पानी नहीं’। इस गाने में राजस्थान के एक गांव में पानी की भीषण समस्या और लोगों के शहर की और पलायन को उजागर करती हुई पंक्तियां हैं —'प्यारी धरती छोड़ें कैसे/ कसमें अपनी तोडें़ कैसे/ मरना होगा मर जायेंगे, जीते जी मुंह मोड़ें कैसे/ चाहा जो उठना कभी, बात ये दिल ने मानी नहीं/ अपने वतन में आज दो बूंद पानी नहीं’। मुकेश के गाये इस गीत के संगीतकार थे जयदेव।

सन 1962 में फिल्म 'शोला और शबनम’ में उन्होंने एक मार्मिक गीत लिखा—'जाने क्या ढूंढती रहती हैं ये आंखें मुझमें/ राख के ढेर में शोला है ना चिंगारी’। इस गाने की आखिरी पंक्तियां हैं-

'आरज़ू जुर्म, वफ़ा जुर्म, तमन्ना है गुनाह

ये वो दुनिया है, जहाँ प्यार नहीं हो सकता

कैसे बाज़ार का दस्तूर तुम्हें समझाऊँ

बिक गया जो वो खरीदार नहीं हो सकता ...’

एक पेशेवर फिल्म का यह गीत लगातार बाज़ार बनती इस दुनिया में खत्म होते इंसानी जज्बात पर गंभीर प्रश्न उठाता है। इन पंक्तियों के साथ एक पेशेवर गीतकार एक प्रगतिशील शायर का परचम लहराए नज़र आता है। कैफी इस तरह के गीतों के लिए साहिर के बाद सबसे ज्यादा महत्वरपूर्ण गीतकार बन जाते हैं। सन 1974 में फिल्मी 'संकल्प’ के लिए वो लिखते हैं—'जनता भोली-भाली है, पेट भी जेब भी खाली है/ नारों से गरमा दो लहू, वादों से बहलाए चलो/ भीतर-भीतर खाए चलो, बाहर शोर मचाए चलो’। ज़ाहिर है कि ये गाना उतना लोकप्रिय नहीं हुआ पर खोजकर इसे सुनें तो इसकी एक एक पंक्ति इस सड़ी व्यवस्था की पोल खोलती नज़र आती है।

बहुत कम लोग जानते हैं कि कैफी ने सन 1960 में फिल्म  'एक के बाद एक’ में परिवार नियोजन पर बहुत ही शानदार गीत? लिखा था। शानदार इस मायने में कि यह गाना सीधे नहीं बल्कि बड़ी बारीकी से अपनी बात कहता है। ध्याान रहे कि यह गीत लड़के की चाह में लगातार संतानें पैदा करते जा रहे परिवारों पर तंज़ करता है, उन्हें आगाह करता है—

न तेल और न बाती न काबू हवा पर

दिये क्यों जलाये चला जा रहा है

तेरे भूल पर कल यह दुनिया हँसेगी

निशानी हर इक दाग़ बनकर रहेगी

तू भरने की खातिर मिटा जा रहा है

दिये क्यों जलाये चला जा रहा है

इस सबके बावजूद कैफी उम्मीद के गीतकार और शायर हैं। वो कहते हैं—'बदल जाये अगर माली/ चमन होता नहीं खाली/ बहारें फिर भी आती हैं, बहारें फिर भी आयेंगी’। मुमकिन है कि ये गीत फिल्मी-परिदृश्य में धंसकर कुछ और बात कहता हो—और अपनी स्वतंत्र यात्रा में हर समय की व्यवस्था पर टिप्पणी करता नज़र आ रहा हो।

सन 1967 में कैफी ने फिल्म 'नौनिहाल’ में नेहरू के लिए बाक़ायदा एक गीत रचा। इस गाने में उन्हों ने किस खूबसूरती से विश्व राजनीति और पंचशील की अवधारणा से जोड़ा है, देखिए-

मेरी दुनिया में ना पूरब है ना पश्चिम कोई

सारे इन्सान सिमट आये खुली बाहों में

कल भटकता था मैं जिन राहों मैं तन्हा तन्हा

काफ़िले कितने मिले आज उन्हीं राहों मैं

और सब निकले मेरे हमदर्द मेरे हमराज़ सुनो...

मेरी आवाज़ सुनो।।

इसमें कोई शक नहीं कि कैफी मुहब्बतों के शायर हैं। पर उनका अंदाज़ देखिए कि फिल्म 'आखिरी ख़त’ में उनके ज़रिये नायिका बहारों से अपना जीवन संवारने की इल्तिजा करती दिखती है—'तुम्हीं से दिल ने सीखा है तड़पना/ तुम्हीं को दोष दूंगी, ऐ नज़ारों, बहारों मेरा जीवन भी संवारो’। 'अनुपमा’ में वो नायिका के लिए लिखते हैं—'दिल की तसल्ली के लिये, झूठी चमक झूठ निखार/ जीवन तो सूना ही रहा, सब समझे आयी बहार/ कलियों से कोई पूछता, हंसती हैं या रोती हैं/ ऐसी भी बातें होती हैं’। मेरा सवाल ये है कि हमने इस गाने को कभी फिल्म के संदर्भ से इतर पुरूषवादी समाज में प्रेम में पड़ी एक स्त्री  की सूक्ष्म अनकही वेदना से जोड़कर क्यों नहीं देखा? कैफी ने फिल्म 'अर्थ’ में तो जैसे आधुनिक स्त्री की एक मुकम्मल तस्वीर खींच डाली है। सन 1982 नहीं आज की इस सेल्फी-परक दुनिया पर इस गाने को कस कर देखिए—आपको इसकी नई परतें खुलती नज़र आयेंगी—

'आँखों में नमी हँसी लबों पर/

क्या हाल है क्या दिखा रही हो/

तुम इतना जो मुस्कुरा रही हो/

क्या ग़म है जिसको छिप रही हो’।

कैफी कैसे अपने समय के आगे के गीतकार थे—इसकी एक और मिसाल है उनका एक गीत, फिल्म है—'फिर तेरी कहानी याद आई’। आपको बता दें कि आइंस्टाइन और अन्य वैज्ञानिकों ने समय को एक सतत प्रवाह कहा है, ना कोई कल ना आज। भौतिकी के इस गूढ़ सिद्धांत को कैसे कैफी इस गीत में ढाल देते हैं देखिए।

आने वाला कल बस एक सपना है

गुज़रा हुआ कल बस एक अपना है

हम गुज़रे कल में रहते हैं

यादों के सब जुगनू जंगल में रहते हैं।।

वैसे ये जिक्र भी करते चलें कि बहुत बरस पहले सन 1997 में कैफ़ी आज़मी के अशआर का एक ऑडियो-अलबम जारी किया गया था, जिसका नाम था-'कैफियत’। इस अलबम में कैफी ने खुद अपनी रचनाएं पढ़ी थीं, इस मायने में यह एक अनमोल संग्रह बन गया है। इस अलबम में कैफी कहते हैं—

'पत्थर के खुदा वहां भी पाए

हम चाँद से आज लौट आए

जंगल की हवाएं आ रही हैं

काग़ज़ का ये शहर उड़ ना जाए’।

कैफी कितने बड़े शायर थे, इसकी मिसाल है 'हीर रांझा’। सन 1970 में आयी चेतन आनंद की इस फिल्म के सारे संवाद कैफी ने कविता में लिखे हैं। ये कमाल उसके बाद किसी फिल्म ने इतने बड़े पैमाने पर नहीं किया। तभी तो कैफी पर उनके दामाद और जाने माने शायर, लेखक और गीतकार जावेद अख्तर ने ये नज्मी लिखी है--

वो ज़िन्दगी के सारे ग़म, हरेक दुख, हरेक सितम से कहता था,

कि तुझसे जीत जाऊंगा मैं,

कि तू तो आ के मिटा ही देगी एक दिन, भुला ही देगा ये जहां,

तेरी अलग है दास्तान,

वो आंखें जिनमें ख्वाब हैं, वो दिल, हैं जिनमें धड़कनें,

वो बाजू जिनमें है सकत, वो होंठ जिन पे हर्फ़ हैं,

मैं रहूंगा उनके दरमियां जो मैं बीत जाऊंगा,

अजीब आदमी था वो।

 

 

आवाज की दुनिया के जादूगर। मीडिया लेखन यदा कदा करते हैं। मुंबई में रहते हैं।

संपर्क- मो. 9892186767

 


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