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जनवरी 2017

स्वर का पथ

अविनाश मिश्र

मूल्यांकन



अनीता वर्मा की कविता-सृष्टि पर एकाग्र




''गायन शुरू करने से पहले मैं अपने ईश्वर, अपने गुरु का स्मरण करता हूं। मैं प्रार्थना करता हूं : 'मैं तो कुछ भी नहीं हूं। मुझे शक्ति दीजिए। मैं तो कुछ भी नहीं हूं।'
...और तब आपकी रगों में शक्ति का संचार होने लगता है और आप अनुभव करने लगते हैं कि आपका अंतर्जगत प्रकाश से भरने लगा है।''
भीमसेन जोशी

बीसवीं सदी के आखिरी वर्षों में हिंदी कविता में अपनी काव्य-अस्मिता अर्जित करने वालीं अनीता वर्मा की कविता-सृष्टि का विकास-क्रम विलंबित के वैभव में विन्यस्त रहा आया है। शारीरिक और मानसिक वजहों से वह अपने समवयस्क कवयित्रियों-कवियों के मुकाबले नियमित और बहुत अधिक कविताएं नहीं लिख पाई हैं। इस तथ्य के प्रकाश में अनीता वर्मा की कविताएं प्रदीर्घ अंतरालों का आयत्त राग प्रतीत होती हैं। यह अंतराल अगर बुझते नहीं हैं तो इसकी एकमात्र वजह इनके बाद संभव होने वाली रागात्मकता का इंतजार है। इस प्रसंग में कवयित्री के अब तक आखिरी और दूसरे कविता-संग्रह 'रोशनी के रास्ते पर' की आखिरी कविता का शीर्षक 'स्थिर बिंब' याद आता है। बाहर के देखे हुए को अनीता ने अपनी कविताओं के भीतर एक स्थिर बिंबात्मकता दी है :

मेरे बाहर रहता है मेरा भीतर
मेरे भीतर मेरा बाहर
पहाड़ नदी जंगल

भीतर को बाहर और बाहर को भीतर करती हुईं अनीता वर्मा की कविताएं एक संगीतात्मक असर लिए हुए हैं। कवयित्री के पहले कविता-संग्रह की पहली ही कविता में भेद के भीतर जाने की आकांक्षा प्रकट हुई है। रहस्य के घुंघराले केश हटाकर उसका मुख देखने की बात भी इसी कविता में है और ज्ञान से दूर जाने की भी। ज्ञान से यह दूरी यहां इसलिए आकांक्षित है ताकि एक निर्बोध निस्पंदता तक जाया जा सके : 

अनुभूति मुझे मुक्त करो
आकर्षण मैं तुम्हारा विरोध करती हूं
जीवन मैं तुम्हारे भीतर से चलकर आती हूं
प्रार्थना

इधर की बिल्कुल नई कविताओं में भी अनीता वर्मा से उनका 'बाहर' छूटा नहीं है। यह भी काबिले-जिक्र है कि व्यापक मानवीयता पर पूर्ण विराम लगाकर अंतर्मुखी अध्यात्म का नया वाक्य शुरू करने वाली रचनाकार अनीता वर्मा अब तक नहीं हुई हैं। उनकी काव्य-स्त्री अब तक अपना जीवन-वाद्य और उसका स्वर संभाले हुए है :

इसी बीच धीरे-धीरे विकास की हवा चलने लगी
गायब होने लगे नीम, आंवले और बेल के पेड़
बड़ी-बड़ी इमारतें मिट्टी के भीतर से उग आईं
गौरैयों ने बदल ली अपनी जगह
न जाने कहां चली गईं किसी छांव की खोज में
मकान और बाजारों ने धीरे-धीरे घेर ली सारी जगह
अब अमरूद और बेर घर-घर नहीं बंटते
कोई किसी का दुख भी नहीं बांटता
कभी-कभी अचानक कोई गंध भूले से चली आती है
जंगल, मिट्टी और घास की याद दिलाती हुई
चेहरों से जा चुकी है पानी और हवा की नमी
उन्हें खोजना एक पुरानी सुरंग से गुजरने जैसा है

मेरा बाहर

इस सदी के प्रारंभिक वर्षों में जब अनीता वर्मा की कविताएं एक किताब की शक्ल में 'एक जन्म में सब' शीर्षक से प्रकाशित होकर आईं तब उन्हें एक ऐसी कवयित्री के तौर पर पहचाना गया जो आत्म-मोह और आत्म-रति के परे अपनी अंदरूनी दुनिया के अन्वेषण में संलग्न है। विष्णु खरे के शब्दों में :  ''अनीता वर्मा को 'आत्मा', 'प्रेम', 'शून्य', 'चुंबन', 'यातना', 'विषाद', 'पवित्र', 'उजास', 'दुख', 'देह', 'रूप', 'मृत्यु', 'निराशा', 'स्पंदन', 'अनंत', 'वृंत', 'सिहरन', 'एकांत', 'छाया', 'स्पर्श', 'उदासी', 'प्राण', 'बेसुध', 'स्निग्ध', जैसे आज की कविता से लगभग निर्वासित प्रत्ययों के हठीले और दुस्साहसिक इस्तेमाल से कोई गुरेज नहीं है।'' 
यह हठीला और दुस्साहसिक इस्तेमाल अनीता वर्मा की कविता-सृष्टि का एक संगीतमय पक्ष निर्मित करता है। इस पक्ष में कोमल स्वरों का बाहुल्य है। यहां यह भी गौरतलब है कि हिंदी कविता संसार में अनीता वर्मा की कविताओं के स्वर को 'राग मंगलेश' में निबद्ध माना गया है। 'राग मंगलेश' से यहां आशय बीसवीं सदी के आठवें दशक के सर्वाधिक महत्वपूर्ण और विशिष्ट कवियों में से एक मंगलेश डबराल के कविता-संसार के असर में संभव हुई कविताओं से है। हिंदी कविता में 'राग मंगलेश' में निबद्ध कविताएं दृश्य में उपस्थित उपद्रव को मद्धम स्वर में अभिव्यक्त करती हैं :

प्रभु मेरी दिव्यता में
सुबह-सवेरे ठंड में कांपते
रिक्शेवाले की फटी कमीज खलल डालती है
एक और प्रार्थना

संगीत को सुनते हुए उसकी कुशलता और सहजता पर बात करने का चलन है, लेकिन हिंदी में रचना के कुशलता (स्वरूप) और सहजता (प्रभाव) से ज्यादा उसके मनोनिवेश पर बात करने की प्रवृत्ति हावी रही आई है। बहरहाल, संगीत की शास्त्रीयता का अगर कोई राजनीतिक पक्ष है, तब वह अनीता वर्मा की कविताओं के स्वर में सुना जा सकता है। यह इसलिए संभव होता है क्योंकि इस स्वर का पथ जीवन के प्रति विमर्श का पथ है। एक मध्यवर्गीय ग्लानि और नैतिक पश्चाताप इस स्वर को बेहद मानवीय बनाते
हैं :
बहुत पहले घर नहीं थे तब लोग विश्वास का घर बनाते थे
पेड़ों के भी हुआ करते थे घर
फिर एक कल्पना ऐसी आई कि घर नदी किनारे बना होगा
उसके पीछे पहाड़ होंगे कुछ चिडिय़ां बोलेंगी
एक नाव नदी में दूर जाती दिखेगी
अब हमने इस घर की तस्वीर बना ली है
जो अपनी जड़ता में दीवारों पर सोती है
बच्चे अक्सर चित्रांकन की शुरुआत में इसमें रंग भरते हैं
जो धीरे-धीरे भूरे या काले रंग में बदलता जाता है
 घर

एक स्त्री-कवि होते हुए भी अनीता वर्मा ने घर को स्त्री-दृष्टि से नहीं एक मानवीय निगाह से देखा है। कविता में स्त्री-दृष्टि के अधिमूल्यन वाले एक वक्त में इस निगाह से देखना एक गैर-स्त्रीवादी तरीके के अंतर्गत माना जा सकता है। लेकिन अनीता वर्मा की अब तक शाया समग्र कविता-सृष्टि इस तरीके से ही संचालित है। प्रेम के लिए प्रकृति के पास जाती हुई स्त्री (प्रेम), प्रेम के भीतर एक व्यर्थ होती हुई स्त्री (व्यर्थ), बाजार को अपने कदमों में झुकाती हुई स्त्री या सामान कोई भी हो हमेशा बेची जाती हुई स्त्री (इस्तेमाल), सांस लेने और मुक्त होने के बीच फर्क करती हुई स्त्री (स्त्रियों से ), एक लाख के मुआवजे पर बेतहाशा रोती हुई स्त्री (एक दुर्घटना और), महंगी शॉल ओढ़कर ठंड में कांपते रिक्शेवाले के प्रति प्रायश्चित से भरी हुई स्त्री (एक और प्रार्थना) चमकीले लिबास, सस्ते पाउडर-पुते चेहरे, उलझे-चिकने केश और काजल की मोटी रेखा लिए दूर से ही दिखती कठपुतलियों जैसी स्त्री (बूढ़ानाथ की औरतें), प्रेम में भी भर दिए गए भय की रखवाली करती हुई स्त्री (भय), मिलावट के महादृश्य से अनजान रोज शाम दूध लेने जाती हुई स्त्री (आश्वस्त), अनाथों-निराश्रितों को घर की छाया देती हुई स्त्री (मां का हाथ: मदर टेरेसा के लिए), पुरुष जिसमें अपने चेहरा देख सके उस आईने की तरह नजर आती हुई स्त्री (स्त्री का चेहरा) और डॉक्टर बनकर बच्चों और स्त्रियों को अच्छा करती हुई आदिवासी स्त्री (रोशनी) को अनीता वर्मा की कविताओं में पाकर कौन कहेगा कि उनकी कविताएं स्त्री-दृष्टि से संपन्न नहीं हैं। लेकिन यों कहा जाता रहा है और इस प्रकार कहा जाता रहा है कि जैसे यह कोई दोष हो, और स्त्री-दृष्टि का दावा करतीं सारी कविताएं बहुत निर्दोष हों। 'रोशनी के रास्ते पर' में शामिल एक कविता से इस स्थिति की विडंबना को समझा जा सकता है :

जब मैं पैदा हुई तो मुझमें दोष था
क्योंकि मैं लड़की थी
जब थोड़ी बड़ी हुई तब भी दोषी रही
क्योंकि मेरी बुद्धि लड़कों से ज्यादा थी
थोड़ी और बड़ी हुई तो दोष भी बड़ा हुआ
क्योंकि मैं सुंदर थी और लोग मुझे सराहते थे
और बड़ी होने पर मेरे दोष अलग थे
क्योंकि मैंने गलत का विरोध किया
बूढ़ी होने पर भी मैं दोषी रही
क्योंकि मेरी इच्छाएं खत्म नहीं हुई थीं
मरने पर भी मैं दोषी रही
क्योंकि इन सबके कारण असंभव थी मेरी मुक्ति
 दोष
समकालीन स्त्रीवाद की एक कठोर आलोचक के रूप में चर्चित क्रिस्टीना हॉफ सॉमर्स ने आइरिश मर्डोक के उन्हें लिखे एक निजी पत्र को अपने एक लेख में इस्तेमाल करते हुए कहा है :  ''स्त्री अध्ययन का अर्थ यही हो सकता है कि आमतौर पर मानवता की महान किताबों के बनिस्बत मात्र औरतों द्वारा लिखी गई औसत और गौण किताबों को पढऩे के लिए आगे आना... यह एक अंधी गली है, एक ऐसा खतरा जो मनुष्य प्रजाति के मुख्यधारा चिंतन से औरतों को काटने की साजिश से जुड़ा हुआ है।''
इस उद्धरण के आलोक में कहें तब कह सकते हैं कि अनीता वर्मा की कविता-सृष्टि इस साजिश को समझते हुए प्रगतिशील रही आई है और इस वजह केवल स्त्री-राग से उसने अपने स्वर का रसायन निर्मित नहीं किया है। न ही इस राग को पाने की इस स्वर में कोई चाह नजर आई है और न ही इस चाह या अचाह को प्रमाणित करने के लिए इसकी संरचना में कोई शब्दापव्यय। इसलिए इस स्वर को इसकी समग्रता में ही समझा जा सकता है। यह समग्रता मानव-द्वेषी शक्तियों के प्रतिकार से संभव हुई है — जैसा कि यहां पूर्व में भी कहा गया कि अनीता वर्मा की कविताएं एक संगीतात्मक असर लिए हुए हैं — कुछ इस प्रकार का संगीतात्मक असर जिसकी शास्त्रीयता का अपना एक राजनीतिक पक्ष भी है। इस संगीत को समझने के लिए भी वैसे ही प्रयत्न काम आएंगे जैसे संगीत को समझने के लिए जरूरी हैं। एक-एक स्वर को अलग-अलग समझने के प्रयत्न यहां कामयाब नहीं होंगे, क्योंकि अकेले स्वर का कोई संगीत नहीं होता है। अकेला स्वर संगीत का अंग है, लेकिन वह संगीत नहीं है। अनेक स्वरों के मिलने से संगीत पैदा होता है। स्वरों को समझकर संगीत को नहीं समझा जा सकता। इस स्पष्टता के साथ कहें तब कह सकते हैं कि अनीता वर्मा की कविताओं को स्त्री-कविता की तरह नहीं पढ़ा जा सकता है। उनकी कविताएं इस इंचीटेप से परे हैं या कहें स्त्री-कविता का फीता अनीता वर्मा के काव्य-विस्तार के आगे छोटा पड़ता है। यह विस्तार संवेदना और आशावाद का विस्तार है और एक समग्र राजनीतिक विवेक से संपन्न है। इस अर्थ में अनीता वर्मा की कविताएं स्त्री-कविता के संसार को सीमित करने वाली कविताएं नहीं हैं। इनमें उपस्थित रुदन व्यापक है और प्रतिकार बहुआयामी। वह शब्दातिशयता इनमें नहीं है जिससे गुजरकर तमाम स्त्री-कविताएं 'एक ही फैक्ट्री से निकलीं असेंबली लाइन कविताएं' बन जाती हैं। ये कविताएं बहुत लोकतांत्रिक ढंग से मुक्ति को आत्म-संचयन नहीं एक सामूहिक आकांक्षा और उसके लिए जारी प्रयत्नों को एक सामूहिक कार्रवाई मानती हैं। इस गतिविधि में ये अपने आस्वादक का स्त्रीकरण करने पर आमादा नहीं हैं। दरअसल, हिंदी में मौजूद बहुत सारी स्त्री-कविता बगैर तैयारी के ही प्रदर्शित हो गई है। वह एक लिहाज में खुलेआम 'हूट' नहीं हुई है, वर्ना अब तक तो वह काफी लज्जित हो रियाज के सख्त और साध्य संसार में लौट गई होती। 
यहां कहने का आशय यह है कि जो कुछ नेपथ्य में करना चाहिए, वह हिंदी की अधिकांश स्त्री-कविता मंच पर कर रही है। जैसे कोई गायिका सुनने को प्रस्तुत सभागार के सम्मुख आधे घंटे तक अपना तानपूरा ही मिलाती रहे और उसके साजिंदे (यहां समीक्षक) तबले पर हथौड़ी पीटते रहें। इस दृश्य में अनीता वर्मा की कविता-सृष्टि का संगीत अपनी सार्वजानिकता में बहुत परिपूर्ण नजर आता है। कहीं थोड़ी-सी भी दुर्बलता इस स्वर में नहीं है :

सब कुछ देख लेने से रहस्य खत्म हो जाता है
और सब कुछ दिखाया नहीं जा सकता 
इसलिए मंच के पास होता है नेपथ्य
आवाजें फैलती हैं दर्शक-दीर्घा में
दृश्य थम जाता है
कोई क्रूरता, प्यार या चमक
वहां पूरे नहीं अंटते
उनकी आत्माएं तैरती रहती हैं आस-पास
मंच

*
''उस्ताद के गायन में मैंने पूरी दिव्यता और वैभव के साथ राग को विकसित होते हुए देखा। षडज के साथ निषाद के विद्रोही योग को देख मैं मानो उन्मत्त-सा हो गया। मध्यम से षडज की सघन मींड असाधारण थी। हर स्वर अगले स्वर को बाहें पसार बुला रहा था और यों वे एक-दूसरे में घुल रहे थे। सांस और संगीत एक दूसरे में उस सीमा तक घुल गए थे जहां दोनों में अभेद हो जाता है।''
मल्लिकार्जुन मंसूर

हर्बर्ट स्पेंसर ने The Origin and Function of Music शीर्षक अपने प्रबंध में इस प्रकार के दिनों की कल्पना की है, जब हम संगीत में ही बातचीत करेंगे। सभ्यता जब इतनी उन्नत होगी कि हमारे हृदय की अंगहीन, रुग्ण, मलिन वृत्तियों को फिर सशंकित भाव से छुपाकर नहीं चलना पड़ेगा। वे परिपूर्ण, स्वस्थ और सुमार्जित हो उठेंगी। स्पेंसर के इस कथ्य के आलोक में देखें तो अनीता वर्मा की कई कविताएं संगीत का आचरण लिए हुए हैं। ये 'पथभूली' कविताएं नहीं हैं क्योंकि ये अपने आलाप से ही अपने स्वर का पथ जानती हैं। संगीत के साथ-साथ इनमें रंगों का भी आचरण है। यह यूं ही नहीं है कि अनीता ने क्लासिक चित्राकृतियों और चित्रकारों पर कुछ बहुत स्मरण-योग्य कविताएं लिखी हैं:

मुझे यातना देते रहे मेरे अपने रंग
इन लकीरों में अन्याय छिपे हैं
यह सब एक कठिन शांति तक पहुंचना था
पनचक्कियां मेरी कमजोरी रहीं
जरूरी है कि हवा उन्हें चलाती रहे
वान गॉग के अंतिम आत्मचित्र से बातचीत

अनीता वर्मा की कविता-सृष्टि में चित्रमयता और बिंब-निर्माण के विशेषत्व वाली कई कविताएं हैं। इन कविताओं में आईं पंक्तियां पूरी कविता में कभी-कभी यों लगती हैं जैसे एक बड़े कैनवास पर निर्वासित तूलिकाघात। यह आघात कैसे अपनी बढ़त और लयकारी का विवेक संभाले हुए है, इस सिलसिले में यहां अलग-अलग कविताओं से कुछ पंक्तियों को उद्धृत करना प्रासंगिक होगा :

एक सुंदर जीवन अपनी यातना कह नहीं सकता
    [ रात के तारे ]

इस संसार का यात्री होना कठिन काम है
    [ चेतना ]

महानताएं भी अंतत: बढ़ाएंगी क्षुद्रताओं को
    [ महज एक उम्र ]

हंसी को भी अपना भय छिपाने की जगह बना लेती हैं स्त्रियां
    [ भय ]

खोती हुई चीजें हमेशा सुंदर होती हैं
    [ वहां क्या है ]

यथार्थ को आईना दिखाता है यथार्थ
    [ चेतना ]

रात की तरह मृत्यु की परछाईं नहीं होती
    [ अस्पताल डायरी ]

घृणा एक राजनीतिक निर्णय है
    [ निर्णय ]
दूसरा आंसू भी पहले आंसू की तरह नहीं बहता
    [मंच पर ]

कहते हैं कि संतूर में सौ तार होते हैं और प्रत्येक तार सौवें तार तक दूसरे तार को जागृत करता चलता है। यह भी कहते हैं कि संतूर का शांत संगीत मानव-शरीर की सारी कोशिकाओं को छूकर क्षतिग्रस्त कोशिकाओं में बहुत सीमा तक सुधार कर सकता है। इससे पीड़ा वास्तव में कम हो सकती है। ऊपर उद्धृत एक-एक कविता-पंक्ति संतूर के एक-एक तार सरीखी है। अनीता वर्मा की कविताओं में दर्द के व्यापक संसार का यह पंक्तिकरण आस्वाद को झंकृत करती हुई आहतव्यता रचता है।
*

''मेरे लिए संगीत में सबसे महत्वपूर्ण प्रक्रिया है— अंतर्मुखी होना। संतूर बजाना मेरे लिए मनोरंजन भर नहीं है, यह मुझे अंतर्मुखी बनाता है। यह संगीत की आध्यात्मिक विशेषता है। शैली केवल माध्यम है। इससे ऊपर उठकर अपने आपको अभिव्यक्त करने में ही उपलब्धि है।''
शिव कुमार शर्मा

अनीता वर्मा ने 'हृदय' शीर्षक अपनी एक कविता में हृदय की भाषा को सपनों की भाषा कहा है। यह हृदय दूसरे हृदयों की खोज में अदृश्य खिड़कियां खोलता है और दुख की छाया में बैठकर सुस्ताते हुए हवा में रोशनी के फूल पिरोता है। यह हृदय ब्रह्मांड से एकाकार हो भीतर कहीं समय की तरह बजता है— टिक-टिक टक-टक। यह हृदय अचानक टेबल पर रख दिया जाता है — भीतर से बाहर और अलग, कुछ अनजान हाथों में — दिल के माहिर रफूगरों के बीच। उसकी धड़कन दूर कहीं ब्रह्मांड में चली गई है, कविता के अंत में जिसे वह वहां से भेजता है। यह एक कविता का सार नहीं, अनीता वर्मा की कविताओं के स्वर का पथ है। इस पर चलना नीरवता का निर्माण करना है। इस अनुच्छेद के ऊपर उद्धृत प्रख्यात संतूरवादक शिव कुमार शर्मा के अनुभव के आश्रय से कहें तब कह सकते हैं कि इस निर्माण को स्पर्श करना अनीता वर्मा की कविताओं की आध्यात्मिक विशेषता है। यह नीरवता एकांत के रूढ़ अर्थों का निरसन करते हुए संभव हुई है और इसने सृजन, देह, घर, प्रेम, नींद और बाजार को उनकी समग्र अर्थ-उत्तेजनाओं के साथ अभिव्यक्त किया है। इस पथ पर सब कुछ देकर पाई हुई रिक्तता का अंकन देखा जा सकता है :

मैंने आवाज हवा को दी
वह बह सके
रूप जंगल को दिया
वह कुछ कह सके
सांसें समुद्र को दीं
वह रहे तरंगित
पंख पहाड़ों को दिए
वे आएं सपनों में चलकर
प्रेम को दी आत्मा
इस तरह हुई मैं रिक्त
रिक्त

कुमार गंधर्व अक्सर अपने पुत्र और शिष्य मुकुल शिवपुत्र से कहते थे कि बगैर छंद के फूल नहीं खिलता है। इस नजर से देखें तो अनीता वर्मा की कविता-सृष्टि में लय के फूल खिले हुए नजर आते हैं। ये कविताएं लयहीनता के लिए प्रस्तुत ही नहीं हैं। यह कोशिश इन्हें एक जरूरी संतुलन देती है। असर की तान बचाने के लिए ये कविताएं लय को अगोरती चलती हैं :

सात बूंदों के सात स्वर बजते हैं
पहाड़ों की पुरातन छाया में
आज जलती रहती है

पिघलता है तटों पर चंद्रमा
एक झरना गिरता है बच्चों की नींद पर
जंगल की एक आवाज पसरती जाती है
समुद्र का गीत

ललित कार्तिकेय के शब्दों में इन कविताओं को पढऩा एक पवित्र और निष्पाप आलोक में घिरने जैसा अनुभव है। इन कविताओं में पुरानेपन से जो एक लगाव है, वह इन्हें बहुत दूर के नहीं बहुत निकट के इतिहास से जोड़ता है :

जो नियम सभ्यता ने बनाए हैं उनका इतिहास है
तुम खोज सकते हो उनका तर्क
कुछ के प्रमाण भी कि वे क्यों बने होंगे इसी तरह
वे शक्ति और अधिकार के खेल हैं
उनके नीचे कुचला हुआ आता है जीवन
नियम
अनीता वर्मा की कविता-सृष्टि में आए 'सितार' के रूपक से कहें तो इस स्वर के लिए हिंदी कविता के घर में एक कोना सुरक्षित है। शेष घर की तुलना में यह कुछ ऊंचा और कुछ पवित्र है। यह स्वर दूसरी इस्तेमाल की जा चुकी चीजों की तरह नहीं, एक बहुमूल्य संपत्ति की तरह है। उंगलियों का स्वप्न देखते हुए यह अपने खोल के भीतर सो रहा है। जब कभी वह रोता है तो उसके आंसू बाहर नहीं निकलते। बाहर सिर्फ धूल जमती रहती है जिसे रोज थोड़ा होशियारी से झाड़-पोंछ दिया जाता है।
***

संदर्भ :
प्रस्तुत आलेख में अनीता वर्मा के अब तक प्रकाशित दो कविता-संग्रहों — 'एक जन्म में सब' (2003) और 'रोशनी के रास्ते पर' (2008) और 'शुक्रवार' के दीपावली विशेषांक-2016 और 'पहल' के प्रस्तुत अंक में प्रकाशित कविताओं को आधार बनाया गया है। भीमसेन जोशी का कथ्य 'इंडिया टुडे' (6-20 अप्रैल 1997) में उनकी तस्वीर के साथ प्रकाशित है। शिव कुमार शर्मा का कथ्य भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित 'संतूर : मेरा जीवन संगीत' (लेखक : शिव कुमार शर्मा और ईना पुरी, अनुवादक : शैलेंद्र शैल) शीर्षक पुस्तक से और मल्लिकार्जुन मंसूर का कथ्य सूर्य प्रकाशन मंदिर से प्रकाशित उनकी आत्मकथा 'रसयात्रा' (कन्नड़ से अंग्रेजी अनुवाद : राजशेखर मंसूर, अंग्रेजी से हिंदी अनुवादक : मृत्युंजय) से लिया गया है। क्रिस्टीना हॉफ सॉमर्स का उद्धरण आधार प्रकाशन से प्रकाशित पुस्तक 'गूंगे इतिहासों की सरहद पर : पश्चिम का समकालीन स्त्री-चिंतन' (चयन एवं अनुवाद : सुबोध शुक्ल) से है। विष्णु खरे और ललित कार्तिकेय को उद्धृत करने के लिए अनीता वर्मा के कविता-संग्रहों के ब्लर्ब और पीठ पर दर्ज वाक्यों पर ध्यान दिया गया है। संगीत से जुड़े विवरण वाणी प्रकाशन से प्रकाशित रवींद्रनाथ टैगोर की पुस्तक 'संगीत-चिंतन' को पढ़कर अर्जित किए गए हैं।     





संपर्क - अविनाश मिश्र (साहिबाबाद) - 09818791434


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