मुखपृष्ठ पिछले अंक ये रास्ते पहाड़ के चढऩा जरा संभल के
जनवरी 2017

ये रास्ते पहाड़ के चढऩा जरा संभल के

राजेश नायक

यात्रा वृत्त





मुक्तेश्वर से नंदादेवी शिखर देखकर मैं मूक हो गया। क्षण भर के लिए शायद निर्विचार भी। तभी तंद्रा टूटी। पुरानी भूल याद आई। तत्क्षण आंखें मूंदीं, हाथ जोड़े, माथा नवाया और पर्वतराज से क्षमा मांगी। वज़ह बताना फज़ूल है। लड़कपन की गल्ती का ज़िक्र उसे दोहराने जैसा ही है और यह कोई अच्छी बात नहीं है। ऊंट के लिए अच्छा यही है कि पहाड़ के नीचे आए तो कम से कम अपना कद पहचाने। कुछ ऐसा ही एहसास हुआ और मैं निर्भार हो गया। नए साल की पहली सुबह इतनी सुहानी, श्वेत-धवल और आध्यात्मिक होगी, ये कभी सोचा न था।
बीते साल के आखिरी दो दिनों के बीच की रात बरसात हुई और सुनने में आया कि कहीं दूर ऊंचाई पर हिमपात भी हुआ है। इस बावत् कतई कुछ ज्ञात न था कि हम उस तरफ बढ़ रहे हैं। गंतव्य पता हो तो फिर बेचारे रहस्य, रोमांच, अचरज का क्या होगा! उन्हें कौन पूछेगा? बहरहाल पहाड़ का पहला पड़ाव आ गया। सुबह हो गई। बारिश भी थम गई। मंज़र बदल गया। सफर की थकान छूमंतर हो गई। दरअसल पंत-परिवार की अत्यंत आत्मीय अगवानी का असर जो है। हालाकि 'जो' अभी सो रहा है।
धुंध अब भी पेड़ों-पहाड़ों से लिपटी हुई है। दूर के नज़ारे झीने पर्दों की ओट में सिमट गए हैं। पर पास का पहाड़, तलहटी में लेटी झील और उसमें बनते-बिगड़ते बिंब ब्रिगेडियर पंत के घर से साफ नज़र आ रहे हैं। उनका बंगला भीमताल के इस नैसर्गिक विस्तार का शानदार हिस्सा है। बंगले के बरामदे में बैठकर एक उम्र गुजारी जा सकती है। मौसम के बदलते रंग-ओ-मिजाज़ से रूबरू हुआ जा सकता है। वैसे यह महज़ एक ख़याल है। फितूर भी हो सकता है।
दिक्भ्रमित तो मैं हमेशा से ही था। शाम को कनॉट सर्कस की लॉबी में टहलते हुए अमूमन हर बार बाराखंभा का रास्ता पूछना पड़ा, क्योंकि घर के लिए बस वहीं से लेता था। फिर पहाड़ के इर्द-गिर्द घूमते-रास्तों पर दिशाभ्रम एकदम ला•ज़िमी है। यह तो पता था कि हम उत्तरोत्तर उत्तर की तरफ बढ़ रहे हैं पर एक जगह स्थिर होने के बाद भी स्थिति कुछ देर घनचक्कर जैसे बनी रही। वह तो दोपहर बाद बादल छटे तो पता चला कि पीठ पूरब की तरफ है और जैसे ही दायें देखा तो देखता ही रह गया। हिमस्नान करके धूप सेंक रहा था एक उत्तुंग शिखर।
हल्द्वानी में सुबह बस-स्टैंड पर कोई मुसाफिर हिमपात की बात कर रहा था। यह वही पर्वत है। परत-दर-परत बर्फ से ढका। हमारे सफर का रुख अब उसी तरफ है। चील-चक्कर पर जो की कार लयात्मक अंदाज से बढ़े जा रही है। हम बस एक दो जगह पल दो पल के लिए रुके। वृद्ध भिक्खू रम का लोटा लिया। बेमौसम खिल उठे बुरांस को पास से देखा। थोड़ी ढेलेबाजी भी की और फिर दिन ढलने से पहले जो की कार कॉलेज के दिनों के उसके यार के शानदार रिजॉर्ट के अहाते में जा लगी। एक कद्दावर व्यक्ति ने हमारा स्वागत किया। उनका नाम भूल रहा हूँ। शायद 'आर' से शुरू होता है। उन्हें मिलाकर अब हम 'चार आर' हो गए। ऋचा,जो, मैं और मेहरा साब।
दृश्य फिर बदल गया। शाम हो गई। बर्फबारी थम गई। ठिठुरन बढ़ गई। पर आग और दहकते अंगारे देखकर गर्माहट महसूस हुई। सनसनीखेज़ सर्दी में अलाव से लगाव स्वाभाविक है। हथेलियों के जरिये हमने तपन ज•ब की, कॉफी पी, पीठ सेंकी और फिर छिटककर अपने पसंदीदा काम में रम गए। जो किचिन में चला गया। मैं गुसलखाने में घुस गया। ऋचा लाइब्रेरी में किताबों से मुखातिब हो गईं और राजन मेहरा शायद पैमाने सजाने में मसरूफ हो गए।
साल की अंतिम शाम के जश्न का कोई तामझाम नहीं है। भीड़-भाड़, शोर-शराबा, गीत-संगीत, नृत्यादि कुछ भी नहीं। रस फिर भी बरस रहा है। समस्त तनावों से मुक्त बस एक शाम मुक्तेश्वर के नाम। कोकरम के कड़वे-तिक्त घूंटों के बीच कुछ तीखा चबाते हुए हम बस कुछ खट्-मिट्ठी यादों के वरक पलटते जा रहे हैं। अपने हिस्से के किस्से, रोचक प्रसंग, दिलकश यादें, लानत-मलामत और आधे-अधूरे सिलसिले- मुसलसल बस यही सब चल रहा है। सघन होकर शाम न जाने कब निस्तब्ध रात में तब्दील हुई। आसमां जाने!
आधी रात के बाद बातों का सिलसिला टूटा और महफिल मुल्तवी हुई। सुना है रूहें भी पलक झपकती हैं लिहाजा हम भी सो गए और बस एक झपकी में ही सवेरा हो गया।
सुबह की नर्म धूप बर्फ की सख्त सतह पर उतर आई। सूरज ने जैसे चांदी पर सोने का पानी चढ़ा दिया। किरणें दरख्तों से टपकती बूंदों में रंग भर रही हैं और चिडिय़ों की चिकल्लस चल रही है। गोरैया की कद-काठी का रंग-बिरंगा जोड़ा चोंच लड़ा रहा है। राजन के ग्रंथागार में इसका नाम-पता दर्ज है। ऋचा को शायद याद हो। मोबाइल में तस्वीर भी होगी। हम गुनगुनी धूप में गरमा-गरम चाय पी रहे हैं और चुपचाप सब देख रहे हैं।
हम जिस रिजॉर्ट में हैं, असल में है तो वह बादलों पर सपनों का एक घर। उत्कृष्ट काष्ठ से निर्मित-सज्जित, शांत-जीवंत। हर कोना आकर्षक और अनूठा। हर दिशा में दृश्यों का एक अटूट सिलसिला। एक-दूसरे से जुदा पर जुड़े हुए। अनगिनत पर्वत श्रेणियां, दुर्गम घाटियां, लहलहाती सीढिय़ां, विशाल वृक्षों की श्रृंखला, उनसे उतरती धूप, गुम होती परछाइयां, धुंध का आवरण और दूर जमीं पर झुका बेसुध आसमां। उफ! इतना सब एकमुश्त और वह भी एकदम मुफ्त।
सपनों का ऐसा घर बनाने-बनवाने वाले तो रुख़सत हो गए। पर बेजोड़ अभिजात  विरासत छोड़ गए। फ्रैंच-ब्रितानी रिहायशी शिल्प का नायाब नमूना। अंग्रेज हुक्मरानों के दौर की बात और थी। तब मज़लूम गुलामों के हुज़ूम हुआ करते थे। हुनर के हिसाब से हर काम सख्ती से लिया जाता था। इसी सिलसिले में अरण्य दोहन, 'आखेट जिसका अभिन्न अंग है', शुरू हुआ और फिर शिकारगाह, ऐशगाह, सैरगाह, ख़्वाबगाह वगैरह बने। काठगोदाम भी बना। पर मौजूदा दौर में ऐसे घरों को धरोहरों की तरह सहेजना सहज नहीं है। लेकिन जो भी ऐसा कर पा रहे हैं -उन्हें सलाम! बार-बार हज़ार बार।
पहाड़ पर पहाडिय़ों के बीच मैं देहाती फंस गया। धूप पीकर बर्फ कांच की तरह सख्त हो गई। फिसलन बढ़ गई। उस पर जूते घिसे हुए। फिसले तो समझो गए। ऋचा मोटी किताब और कॉफी का कप लेकर बगीचे में जम गईं और एक तरह से जता दिया कि 'मैं यहां से हिलने वाली नहीं हूँ।' फिर भी जो ने चलने का इशारा किया तो जवाब में ऋचा ने पहले सूरज की तरफ देखा और फिर अपनी मखमली जूतियों को भी। जो समझ गया। जो भी समझा हो, वो जाने। हम बढ़ लिए। राजन मेहरा और जो के पीछे मैं ऊपर चढ़ चला एहतियाती कदम जमाते हुए। चढ़ाई कतई दुर्गम न थी, लिहाजा फिसलने का डर जाता रहा और जल्द ही हम मुक्तेश्वर की छत पर पहुंच गए। सूर्य सुबह से ही हमारा पीछा कर रहा है और अब कंधे तक आ गया है। आसमान साफ है। कहीं कोई व्यवधान नहीं है। हम दूर तक सब देख पा रहे हैं। उस विराट की झलक भी जिसे देखने की ललक मन में न जाने कब से थी।
हम पक्के रास्ते से उतर आए। ऊपर बस रेस्त्रां में कॉफी भर पी और अब आंतें कुलबुला रही हैं। रिजॉर्ट पहुंचते ही हम डायनिंग हाल में जम गए। धैर्य जवाब दे, इसके पहले ही रसोई संभालने वाले बालक पराठे, मक्खन, साग और दो-तीन किस्म का अचार ले आए। हम शुरू हो गए। इस बीच हमने न कोई बात की और न ही इधर-उधर देखा। पर्याप्त पराठे सूतने के बाद ही सांस ली। दो घूंट पानी पिया। तभी कॉफी आ गई। वह भी पी ली। अभी कप रखा ही था कि शरबत आ गया। एकदम विपरीत पेय। पशोपेश में देख मुझे जो जोर से बोला- अबे पी लो यार कुछ नहीं होगा और मैं अपने को रोक नहीं पाया। क्या करें, बुरांस का कलर और फ्लेवर ही कुछ ऐसा है।
मेहरा साब से हमने विदा ली और मुक्तेश्वर से निकल पड़े। जो ने स्विफ्ट तत्परता घुमाई। मुख्य मार्ग पर आते ही गाड़ी ने गति पकड़ ली। हम मौन हैं। कभी-कभार ऐसा होता है। चुप रहने का मन करता है। बस यूं ही बिला वजह। हम भीमताल लौट आए। दोपहर हो गई। बदली फिर घिर आई। हमें फिर कहीं निकलना है। जुनेली को भनक लग गई है। इसीलिए अपने बब्बा के मोरक्काई झग्गा का कोना पकड़े है और ठुनठुनाए जा रही है। दरअसल उसके पैर में तकली$फ है। सभी उसे बहलाने का जतन कर रहे हैं। ब्रिगेडियर पंत चाह कर भी नहीं चल पा रहे हैं। घर में घूमते-फिरते ही अचानक उनका पैर मोच गया है। इत्तफाक़ से उनके जूते एकदम फिट आ गए हैं और अब कुछ मेरी चाल भी बदल गई है। हम फटाफट चल दिए और जल्द ही दोगांव पहुंच गए।
सफर का असल रोमांच अब शुरू हुआ। जो ने गाड़ी किनारे लगाई। बाहर आया और बोला- देखो सड़क के उस तरफ खड़ा यह जो पहाड़ दिख रहा है न, बस एकदम सीधे-सीधे इसी पर चढऩा है और जल्द ही हम हिमालयन फार्म पहुंच जाएंगे। मैंने पहले पहाड़ को देखा और फिर घूरकर जो को देखा। चेहरे पर हवाईयां उड़ती देख ऋचा को हंसी आ गई। दोनों ने सड़क पार की और हंसते-हंसते पहाड़ चढऩे लगे। उनका अनुसरण करने के अलावा मेरे पास कोई चारा भी नहीं था।
पहाड़ पर मैदानी इलाकों की तरह पगडंडियां तो होती नहीं हैं। बस झाड़-झंखाड़ और ऊबड़-खाबड़ बेतरतीब चट्टानों के बीच ही कुछ राहें होती हैं जो सिर्फ पहाड़ पर पले-बढ़े लोगों को ही दिखाई देती हैं। मुझे तो सिर्फ जोखिम दिखाई दे रहा है। बहरहाल यार पर एतबार करके डर को दरकिनार किया और चढऩे लगा। पहाड़ी दंपत्ति की हौसला अफजाई से चढ़ाई आसान हो गई। हम अंधेरा होने के पहले ऊपर पहुँच गए। इतनी ऊंचाई पर आकर अचरज हुआ। क्योंकि न तो सांस फूली और न ही कहीं फिसला। अब समझा, जो ने ससुर के जूते क्यों दिलवाए थे।
हिमालयन फार्म एक रहस्य की तरह नमूदार हुआ। निराट जंगल और बस एक कच्चा घर जिसकी बाहरी दीवार को एक बड़े कैनवास की तरह इस्तेमाल किया गया है और विविध रंगों से उस पर वन्यजीव, फल-सब्जी और जनजातियों की आकृतियां उकेरी गई हैं। घर के सामने पत्थरों के बेतरतीब चौगान में टॉम और उसकी टीम टहनियों से पिरामिड बना रहे हैं। सभी से हलो-हाय हुई। चाय का दौर शुरु हुआ। कुछ लोगों ने दालचीनी का पानी पिया। दोनों तरह के गरम पेय दो बड़ी केतलियों में सुबह-शाम देर तक उपलब्ध रहते हैं। चूल्हे में आग हर वक्त बनी रहती है।
अंधेरा घना हो गया। ठंड बढ़ गई। गीली टहनियां सुलगाने की कवायद शुरू हुई। पहले धुआं उठा और फिर लपटें उठने लगीं। म$गरिबी चेहरे यक़बयक़ दमक उठे। सूर्य से अर्जित ऊर्जा ने घर भी रोशन कर दिया। सभी आग के आसपास बैठे हैं। जो, टॉम से स्पेनिश गिटार पर टिप्स ले रहा है। कुछ लोग बातचीत में मशगूल हैं और मैं अभिभूत हूं। तभी कुछ पकने की गंध रसोई से होकर हम तक आई और फिर खाने की घंटी भी बज उठी। खाने के बाद देर तक मैं गए साल की आखिरी और नए साल की पहली शाम के सम्मोहन में डूबता-उतराता रहा। फिर न जाने कब नींद लग गई।
अगले दिन सुबह जब धूप खिल उठी तो समझ आया कि बहुत ऊंचाई पर है हम। बहुत नीचे कपसीले बादलों के टुकड़े हिचकोले खा रहे हैं। फार्म में उपज भी हो रही है। हमने भी श्रमदान किया और फिर शाम ढलने के पहले उतर आए। उतरने में दिक्कत तो हुई पर फिसलने की नौबत नहीं आई। रहबर जो भरोसेमंद था। उसने पहले ही हिदायत दे रखी थी कि बस तिनके का सहारा मत लेना। हम फिर भीमताल आ गए। धूल-मिट्टी झाड़ी। नहाया और खा-पीकर ढेर हो गए। सुबह देर तक सोते रहे।
ब्रिगेडियर पंत का घर हमारा मरकज़ी ठिकाना है। यहां से हम कभी भी किसी भी दिशा में निकल पड़ते हैं और अब नैनीताल आ गए हैं। अट्ठाइस सालों में अट्टालिकाओं का अंबार खड़ा हो गया है। नैनी झील पर्यटन की भेंट चढ़ गई है। जून छयासी में जब आया था तब तल्लीताल में शाह बंधुओं के शाही बंगले हुआ करते थे। प्रियारी में उन्हीं में से एक में मैं रुका था। अब वहां ईंट-गारे की बहुमंजिला इमारतें खड़ी हैं। तब जून में भी सर्दी का एहसास था। दिन में भी हाफ स्वेटर की ज़रूरत महसूस हुई और यारों के यार सुनील शाह ने लगभग मुफ्त दिला दी।
बदलाव को लेकर मेरा कोई विशेष आग्रह-दुराग्रह नहीं है। एक स्वाभाविक प्रक्रिया है। पहले बहुत बढिय़ा था और अब बहुत बुरा है। सब फालतू बातें हैं। ऐसा होता तो फिर शायद हम ढिबरी युग से कभी उबर ही नहीं पाते। मेरा आग्रह तो बस इतना ही है कि अपने हिस्से का कचरा साथ ले जाना न भूलें। वो तो बस यूं ही माल रोड पर टहलते हुए कुछ यादें ताजा हो उठीं। यार का घर नहीं दिखा तो भावुक हो उठा।
सफर का उत्तराद्र्ध भावर में आकर ठहर गया। हम गौलापार आ गए। काठगोदाम और हल्द्वानी से बस तीन-पांच किलोमीटर के फासले पर बसा एक उनींदा गांव। जो के घर के बाहर खेती-बाड़ी और बैल जोड़ी देखकर मैं शैशव में लौट गया। साठ के दशक में गोसलपुर में बिजली नहीं थी। छुट्टियां साल में एक सौ पैंसठ दिन होती थीं। हम अक्सर गांव में दादा-दादी के पास ही रहते थे। हर मौसम का मज़ा लेते थे। बहन जुनेली के बराबर थी और मैं बस दस बरस का था।
छोटी जोत के किसान को हरवाहे की तरह खेत में जुतना-जुटना पड़ता है। उम्र के हिसाब से मुझे भी मशक्कत करना पड़ती थी। ढोरों को पानी पिलाना, सानी बनाना और सार साफ करना रोजमर्रा के काम थे। पर सबसे ज्यादा मजा हम उम्र साथियों के साथ फसलों को रौंदने वाले सुअर-साड़ों को खदेडऩे में आता था। गोफन, गुलेल से परिंदों को उड़ाने का भी अपना एक मज़ा था। खूब श्रम करते। खूब भूख लगती। खूब पेल के खाते। इस तरह तन-मन से हम हृष्ट-पुष्ट हो गए और रंग दादा-दादी की तरह गंदुमी हो गया।
अम्मा में दादी का अक्स दिखा। नीचा स्वर, मद्धिम आवाज, वही लहजा और खिलाने का अंदाज़ भी वही। 'बेटा बस एक और गरम-गरम घी-गुड़ के साथ एकदम आखिरी।' और यार तुम तो जानते ही हो कि आग्रह का मैं कितना कच्चा हूं।

 


राजेश नायक प्रतिष्ठित पत्रकार रहे हैं। जनसत्ता में लंबे समय पत्रकारिता की। बाद में छोड़कर जबलपुर बस गये। मो. 09826640718


Login