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जनवरी 2017

एक सड़क, एक शहर, एक बागीचा

मंगलेश डबराल

आइस्लिंगेन यात्रावृत्त





एक सड़क है जो पूरे शहर में घूमती चली जाती है, चौराहों को घेरती, गलियों में बंटती और फिर शहर के दूसरे सिरे से किसी दूसरे शहर की तरफ जाती हुई। चौराहे भी लगभग एक जैसे हैं गोया कोई एक चौराहा है जो जगह-जगह पुनरावृत्ति करता चलता है। सिर्फ उन पर स्थित शिल्प ही यह बताते हैं कि वे अलग-अलग चौराहे है।  आइस्लिंगेर टोर नाम के जिस होटल में रुका हूँ, वहाँ से थोड़ी ही दूर चौराहे पर लाल स्कर्ट या घाघरे की शक्ल में एक महिला आकृति है, जो इस्पात के एक पतले खम्भे पर टिकी है। गर्दन और सर नहीं हैं, लेकिन स्कर्ट के घेर में एक ऐसी गति है कि उसके बेचेहरा होने पर बहुत देर बाद ध्यान जाता है और तब भी वह अधूरी नहीं लगती। इस्पात की बनी युवती भीतर लगी मशीन की मदद से घूमती रहती है। चटख लाल परिधान में चारों दिशाओं में उसका नृत्य दूर से ही आकर्षित करता है। उसका नाम भी दिलचस्प है : 'दी वेगवाईसेरिन' यानी दिशासूचक स्तम्भ। शुरू में ही स्थित होने के कारण यह शायद शहर की सबसे बड़ी पहचान भी है।
यही एक सड़क एक नगर केंद्र, एक माध्यमिक विद्यालय, एक पुस्तकालय, और एक कब्रगाह तक ले जाती है। दूकानों को छोड़कर ज़्यादातर चीज़ें एक से ज्यादा नहीं हैं. मेरी कल्पना में ऐसे ही शहर आदर्श हैं जो यथार्थ में शायद कहीं नहीं मिलते। आंतोन चेखोव की कहानियों में वर्णित सुन्दर शहर जिनके आरपार हम एक बार या एक सांस में ही जा सकते हैं और जो एक पारदर्शी कांच की तरह होते हैं। आइस्लिंगेन ऐसा ही शहर है। एक शिशु-शहर, जिसके एक छोर पर पतली सी नदी फिल्स अपने थोड़े से पानी के साथ बहती है जैसे कोई बच्ची पानी को अपनी मुठ्ठियों में बांधे दौड़ रही हो। यह पहले एक नाले से ज्यादा नहीं थी लेकिन शहर से प्रेम करने वालों ने उसे पुनर्जीवित करके एक नदी की तरह बहा दिया।
मुझे पता नहीं था कि धरती के नक्शे पर आइस्लिंगेन कोई शहर हो सकता है। एक दिन एक आयोजन में मुंबई के मैक्स म्यूलर भवन के निदेशक डॉ मार्टिन वाल्डे से मुलाकात हुई और उनसे पूछा। तो उन्होंने कहा, 'आइस्लिंगेन नहीं, एसलिंगेन एक शहर है जो नेकार नदी पर बसा है।' घर आते हुए सोचता रहा कि मैं किसी कहीं नहीं के शहर के लिए निमंत्रित हूँ। 'गूगल देवता' की शरण में गया तो पता चला दोनों अलग-अलग शहर हैं लेकिन आइस्लिंगेन बहुत ही छोटा, करीब बीस हज़ार की आबादी का है।
बहरहाल, मैं कविता सुनाने आइस्लिंगेन पंहुच गया हूँ। दिल्ली से म्यूनिख की उड़ान के बाद हड़बड़ाते हुए जहाज बदल कर स्टुटगार्ट आया था जहाँ आइस्लिंगेन के नगर भवन—राठाउस- की एक अधिकारी ऊटे श्योंडन अपने पति के साथ मुझे लेने आयी हैं। उनके पति ने मुस्कुराते हुए अपना परिचय दिया, 'मैं इनका ड्राइवर हूँ!' अपने स$फेद बालों में वे भव्य और युवा लग रहे हैं। यह कहने पर ऊटे कहती हैं, 'लेकिन ये सहत्तर साल के हैं'। पति बात काटते हैं,' नहीं ऊटे, उनहत्तर का हूँ।' इस पर ऊटे कहती हैं, 'मैं आपको जवान रखने की कोशिश करती रहती हूँ!'
बहरहाल, आधा घंटे में शहर आ जाता है।
होटल का नाम आइस्लिंगेर टोर यानी आइस्लिंग का द्वार। यह कुछ बंगाली नाम लगता है। यह इस शहर की पहली इमारत है और उसी के बाद शहर शुरू होता है। इसकी ऊंचाई और नाम से ज़ाहिर है कि यह यहाँ का सबसे अच्छा होटल होगा। कमरे में चाय बनाने के लिए केतली रखी है और साथ में कई तरह की चाय की पुडिय़ाँ। दार्जिलिंग, अर्ल ग्रे, ट्विनिंग, ग्रीन, लेमन, मिंट, सिनामेंन, एप्रीकॉट, मैंगो और पता नहीं क्या। यानी होटल की रहस्यमय शक्तियां जानती हैं कि चाय मुझे कितनी पसंद है। यूरोप के एक कॉफी-प्रिय देश में चाय की विविधता देखकर सुखद आश्चर्य होता है। पहला कदम यही है कि एक चाय बना कर पी जाये, सो अर्ल ग्रे से शुरू करता हूँ। चाय का औपनिवेशिक इतिहास याद आता है। अर्ल ग्रे, जो बहुत पुराने वक्तों में ब्रिटेन का प्रधानमंत्री था और जिसे चाय के विचित्र क्रूरतापूर्ण इतिहास के दौरान चीन की तरफ से यह खुशबूदार पत्तियों का तोहफा भेंट किया गया था। चाय ने इतिहास में कई गुल खिलाये, अफीम के अवैध व्यवसाय की नींव डाली, चीन को अफीमची बना डाला। मुंबई की बुनियाद खड़ी की और हिन्दुस्तानियों को इसकी लत लगा दी। सहसा मुझे िफलस्तीन के एक चर्चित कवि नजवान दरवीश की याद आयी जिनसे दिल्ली में भेंट हुई थी और जिनकी एक कविता में चाय की मा$र्फत एक राजनीतिक प्रतिरोध को देखकर मैं दंग रह गया था। उस कविता का बेहतरीन अनुवाद दोस्त कवि असद जैदी ने किया था। कविता इस तरह है :
'जिन औरतों ने बागानों में चाय की फसल पैदा की और फिर उसे 'अर्ल ग्रे' के डिब्बों में बंद किया, क्या वे मुझे मा$फ कर देंगी कि मैं चाय के एक कप में, जिसमें तीन सौ साल पहले की उनकी यातना घुली हुई हैं, यों ही पिये जाता हूँ।
'क्या मुझे मा$फ कर देंगी मेरी बहनें, जिन्हें इस नमक से बने शहरों में दो सौ डॉलर में बेच दिया गया।

'अर्ल ग्रे,
कोई ज़िक्र नहीं करता उन औरतों के नामों का, जो खेतों - बागानों में मर-खप गयीं
कोई नहीं जानता उन औरतों के नाम, जिन्हें नमक के शहरों में बेच दिया जाता है।
ईश्वर के आंसुओं से भरे समुद्र में विशाल जहाज़ चले जाते हैं
उपनिवेशों की यातना ढोते हुए
यह चाय एशिया की बेटियों की है—ओ अर्ल ग्रे, चोट्टे, लुटेरे अर्ल ग्रे।'

बहरहाल, अर्ल ग्रे। एक उच्चवर्गीय, अय्याश चाय। हालाँकि वह मुझे अपने घर में पी जाने वाली चाय से अलग नहीं लगी, फिर भी मैंने उसके दो पैकेट चुपके से अपने बैग में डाल दिये हैं। होटलों से मामूली चीज़ें छिपाकर लाने की पुरानी आदत अभी छूटी नहीं है। वीरेन डंगवाल और मैं कई बार होटलों से चम्मच, प्लेटें जैसी छोटी चीज़ें चुराने के साथी भी रहे। वे हमारे जैसी औकात वालों के लिए तमगों से कम नहीं थीं। यह उठाईगीरी कभी चम्मचों-प्लेटों से आगे नहीं गयी, लेकिन इसमें यथास्थिति में एक तोडफ़ोड़ जैसा सुख महसूस होता था। फ्रिज में वाइन और बियर की कुछ बोतलें, कद्दू के बीजों और नमकीन काजू के पैकेट। पर्दे हटाने पर सामने एक घना-सुन्दर जंगल दिखता है जिसके पत्ते पीले और लाल होने लगे हैं। आसपास कुछ लताएँ भी हैं जो एकदम लाल हैं। लैपटॉप चालू करने की कोशिश की तो पता चला कि यहाँ तकनीक ही दूसरी है, जिसमें दो पिन के सौकेट होते हैं। नीचे रिसेप्शन पर बैठी स्थूल सी भली सी युवती से पूछता हूँ, वे बहुत खोजती हैं, अपने किसी वरिष्ठ से बात करती हैं, लेकिन कोई ऐसा प्लग नहीं मिला जो हिन्दुस्तानी ढंग का हो।
अकस्मात होने वाली यात्राएं रोमांच से कहीं अधिक रहस्यों और अदृश्यताओं से भरी होती हैं। एक बच्चे की आंख में झलकने वाले आश्चर्यलोक की तरह। यात्रा-भीरु होने के बावजूद दूसरे देशों की जो यात्राएँ मेरे हिस्से में आयीं उनमें ज़्यादातर अनायास और अप्रत्याशित ही थीं। जैसे आसमान से उतरी हों। आइस्लिंगेन की एक कवि टीना स्ट्रोहेकर ने एक दिन एक किताब में मेरी कुछ कविताओं के जर्मन अनुवाद पढ़े। यह किताब 'लिविंग लिटरेचर' कई वर्ष पहले दिल्ली के मैक्स म्युलर भवन में हुई एक कविता कार्यशाला का नतीजा थी, जिसे वरिष्ठ कवि विष्णु खरे और मुक्तिबोध पर शोध करनेवाली और उन दिनों गोइठे इंस्टिट्यूट की निदेशक बारबरा लोत्ज़ ने आयोजित किया था। इसमें प्रकाशित मेरी एक छोटी सी कविता 'शहर' कहीं टीना की संवेदना से जुड़ गयी और उन्होंने मेरी तलाश शुरू की। उन्होंने पास के शहर ट्यूबिंगेन के विश्वविद्यालय में भारत विद्या के प्राध्यापक दिव्यराज अमिया से सम्पर्क किया और दिव्यराज ने दिल्ली के अपने दोस्तों से जो जवाहर लाल नेहरु विश्वविद्यालय में उनके सहपाठी रहे और जिनमें शेखर जोशी के बेटे और जनसंस्कृति मंच के फिल्म प्रभाग के कर्ताधर्ता संजय जोशी प्रमुख थे। संयोगों के इस सिलसिले में टीना से संपर्क हुआ। लेकिन सबसे अप्रत्याशित पहलू यह था कि टीना  ने अपने शहर के मेयर को लिखा कि आप अपने नये बन रहे नगर केंद्र की इमारत के प्रवेश द्वार पर इस कविता को खुदवाइए। आश्चर्य कि मेयर ने इस पर अपनी मुहर लगा दी और इस तरह  वह बहुत  पुरानी, छोटी सी कविता, जिसे मैं भूल चूका था या भूल कर भी याद नहीं करता था, नगर केंद्र में दर्ज हो गयी। किस जगह—यह मुझे पता नहीं।
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शाम  टीना स्ट्रोहेकर का घर। यह एक पहाडी पर है। शांत और कामकाजी किस्म का। कोई तड़क-भड़क नहीं। लकड़ी की डाइनिंग मेज़ सबसे ज्यादा दृश्यमान है। लकड़ी के घरों में एक सुकून का एहसास होता है जैसे हम प्रकृति के भीतर आ गये हों। यह अनुभव सीमेंट-कंक्रीट के घरों से बहुत अलग है। दीवारों पर बहुत सारी पेंटिंग, रेखांकन और फोटो प्रिंट लगे हैं। टीना अपनी किताबों का संग्रह दिखलाती हैं, जो काफी बड़ा है. उनकी कविता पुस्तकें, उनके पोलिश अनुवाद। टीना के पति पीटर रिट्ज इस तरह मिलते हैं जैसे मुझे पहले से जानते हों। वे विनोदी स्वभाव के, मस्त लगते मनुष्य है। मैं उनके लिए खादी की एक बड़ी जेकेट लेकर आया हूँ, तो वे कहते हैं, 'मैं अपना वज़न थोडा कम करूँगा और तब इसे पहनूंगा।' वे स्थानीय जिमनाजियम में जर्मन और अंग्रेजी साहित्य के प्राध्यापक रहे। अब नगरपालिका के सदस्य हैं  और शहर को संवारने में सक्रिय रहते हैं। इन दिनों वे एक परियोजना पर काम कर रहे हैं जिसमें यहाँ जन्मी उन हस्तियों का परिचय विभिन्न जगहों पर प्रदर्शित किया जा रहा है जिन्होंने कुछ बड़े काम किये। इनमे एक हैं बेक, जिन्हें जर्मनी की एक लोकप्रिय बियर 'बेक्स' बनाने का श्रेय जाता है। पीटर कुछ अ$फसोस के साथ कहते हैं,'' बेक यहाँ से ब्रेमेन चल गये थे जहां उन्होंने बियर का प्लांट लगाया और फिर लौटकर नहीं आये।'
पीटर के एक ऐसे विलक्षण शौ$क के बारे में भी पता चला, जिसकी कल्पना मुझे नहीं थी और वह है दुनिया भर की रबर की मुहरें इक_ा करना। एक कमरा ऐसी ही मुहरों से भरा है जिसे वे अपना कारखाना कहते है। छोटी-बड़ी, कई तरह की इबारतों वाली मुहरें और रोमन अक्षर जिन्हें दुनिया में पता नहीं कहाँ-कहाँ से इकठ्ठा किया गया है और उनके लिए कई आकार के दराज़ बनाये गये हैं। इनमें गंभीर से लेकर मजाकिया तक हर तरह के वाक्य और चित्र बने हैं। पीटर कुछ कार्ड उठाते हैं और उन पर ठप्पा लगाकर मुझे देते हैं। मसलन, एक आदमी एक शव या बेहोश आदमी को कंधे पर उठाये हुए है और नीचे सन्देश लिखा है: 'वी डिलीवर ऐवरीथिंग..कांटेक्ट फॉर द सर्विसेज।' यह कमरा एक अजायबघर से कम नहीं है। मनुष्य की सभी भावनाओं और संवेगों के लिए यहाँ एक मुहर हाज़िर है। पीटर बताते हैं, उनके जैसे दो-चार मुहर-प्रेमी और भी हैं।
पीटर और टीना दोनों आइस्लिंगेन की सामाजिक-सांस्कृतिक हस्ती हैं। कविता से टीना के लगाव को देखकर आश्चर्य होता है। उन्होंने कई चौराहों, पार्को, सड़क के किनारों पर दुनिया के बाईस कवियों की कविताओं को कांच की पट्टिकाओं या पैनलों पर खुदवाया है और आइस्लिंगेन को कविता के शहर या  बागीचे में बदल दिया है। पूछने पर वे कुछ नाम लेती है: ऐलिस वाकर, ग्युन्टर ग्रास, हेर्टा म्युलर,  सेस नूटेबूम, पेई ताओ, तोमास ट्रांसट्रोमर, आदम ज़गयेवस्की, योको तवादा। सारे बड़े नाम। उनका इरादा इस काव्य उद्यान को और भी बड़ा करने का है। मेरी कविता भी इसी का एक हिस्सा बनी है। इन्हीं कवियों में एक योसेफ म्यूह्ल्बर्गर भी हैं, जो चेक मूल के थे लेकिन जीवन के उत्तरार्ध में आइस्लिंगेन में रहे। वे एक किताब देती हैं जिसमें शीशे के इन शिल्पों को दिया गया है। धुंधले भाप सरीखे पैनलों पर पारदर्शी अक्षरों में उकेरी हुई कविताएँ। देखकर रोमांच हो आता है। अपने शहर से इस तरह भी प्यार किया जा सकता है।
टीना को म्यूह्ल्बर्गर से खास लगाव है। उन पर उन्होंने दो किताबें प्रकाशित की हैं जिनमें म्यूह्ल्बर्गर के संपर्क में आये लोगों के संस्मरण और उन जगहों के बारे में आलेख हैं जहाँ उन्होंने जीवन बिताया। मैंने  इस कवि का नाम कभी नहीं सुना, लेकिन जिस उत्साह से टीना उनके बारे में बताती हैं, उससे लगता है मैं भी उन्हें जानता हूँ। म्यूह्ल्बर्गर चेकोस्लोवकिया से विस्थापित होकर आइस्लिंगेन आये थे क्योंकि वहाँ  नात्सियों ने उनकी कविता के प्रकाशन पर रोक लगा दी थी। वे समलैंगिक भी थे इसलिए उन्हें एक ठीक-ठाक सामाजिक जीवन जीने में दिक्कतों का सामना करना पड़ा और कुछ उपेक्षित रहे। टीना हर दो साल में म्यूह्ल्बर्गर महोत्सव भी आयोजित करती हैं  और अपने शहर के कवि की याद बचाये रखती हैं।
शाम को पीटर और टीना शहर के एक लोकप्रिय रेस्तरां में मुझे ले गये जहां एक बैंड कार्यक्रम पेश करनेवाला था, लेकिन हमारी वजह से बैंड के लोग कुछ इंतज़ार करते रहे। रेस्तरां लोगों और शोर से भरा हुआ था और सभी एक दूसरे से परिचित लग रहे थे। कहीं कोई अपरिचय नहीं। लगता था कि दोनों के लिए पूरा शहर ही घर है। रास्ते में एक कलाकार रोक्साना से भेंट हुई जो रोमानियाई मूल की हैं। वे भी रेस्तरां में साथ थीं। रात में जब टीना और पीटर मुझे छोडऩे होटल आये तो मैंने उनसे कमरे में चल कर कुछ पीने के लिए कहा। मेरे पास कुछ आयरिश व्हिस्की थी। पीना पीटर के लिए एक ऐन्द्रिक कार्रवाई है जिसे देखकर मुझे अच्छा लगा हालाँकि मैं एक साल पहले हुई एन्जियोप्लास्टी के कारण कुछ सावधानी से पी रहा था।
सुबह हल्की बारिश थी। कल का मौसम बिलकुल बदल गया था। सड़क पर कारों का काफिला सा जा रहा है। यूरोपीय देशों में मौसम देखते ही देखते बदल जाता है और एक दिन में कई मौसम मिल सकते हैं। सामने मेंपल और ओक के पेड़ों के नारंगी पत्ते उस दिन का इंतज़ार कर रहे हैं जब वे ज़मीन पर गिरने लगेंगे और जंगल की पसलियाँ दिखने लगेंगी। बारिश बंद होते ही पैदल शहर की तरफ निकलकर कुछ चौराहों, पार्कों और मूर्तिशिल्पों को देखता चलता हूँ। एक चौराहे पर लाल रंग के लोहे के डंडों से बने क्यूबिस्ट संयोजन पर निगाह अटक जाती है। जैसे कोई मनुष्य हाथ उठाये हुए या कुछ कहने के लिए शहर के बीचोंबीच रास्ता रोक कर खड़ा हो गया हो। यह शायद शहर का सबसे प्रमुख चौक है। कुछ आगे चलकर किसी पक्षी के तीन विशालकाय पंखों या पत्तियों की शक्ल का शिल्प है, जिसका रंग हल्का पीला है..
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आज का दिन एक पुराने कवि एडुआर्ड म्यूरिके को समर्पित है। पीटर, टीना और मैं उस गाँव में पहुंचते हैं जहां म्यूरिके रहते थे। नाम है औक्सनवांग। उन्हें जर्मन गीति-कविता का महाकवि माना जाता है। स्टुटगार्ट में जन्मे म्यूरिके 1832 से 1833 तक सिर्फ एक वर्ष यहाँ पादरी के तौर पर रहे थे, लेकिन उनके निवास को एक संग्रहालय में तब्दील कर दिया गया है, जिसका रख-रखाव म्यूरिके के वंशज करते हैं। चिठ्ठियाँ, हस्तलिपि, फर्नीचर और तस्वीरें। संग्रहालय की संचालक को म्यूरिके की कई कविताएँ जुबानी याद हैं जिन्हें वे सुन्दर ढंग से सुनाती हैं। उनके गीतों को कई संगीतकारों ने भी संयोजित किया है। कई  कविताएँ अंग्रेजी अनुवाद में भी उपलब्ध हैं। संग्रहालय के सामने एक प्यारा सा लकड़ी का चर्च है जिसका जिम्मा म्यूरिके के पास था। यह किसानों के चर्च की तरह लगता है जहाँ ईसा मसीह की प्रतिमा के नीचे फल-फूल, सब्जियां, भुट्टे, कद्दू आदि रखे हुए हैं। औक्सनवांग में खेती-किसानी से जुड़े कुछ शिल्प दिलचस्प हैं, भैंस और गाय, नांद में पानी डालता किसान, आदि। इस सुन्दर सी पहाड़ी से दूर तक बहुत से गाँव-कस्बे दिखाई देते हैं। यह छुट्टी का दिन है। बहुत से परिवार पिकनिक मनाने आये हैं, बच्चियां पतंग उडाती हुई भाग रही हैं, ढलानों से  धुंआ उठ रहा है, लोग आग जलाकर खाना बना रहे हैं। जगह-जगह लोगों के कपडे पड़े हुए हैं। ऊपर एक निरभ्र आकाश है। जिसका नीला रंग लगता है अभी बहने लगेगा। एक 'पैस्टोरल' सा दृश्य या जंगल में मंगल. पीटर बताते हैं, यह जर्मनी का सबसे समृद्ध इलाका है क्योंकि यहाँ बहुत से संयंत्र और उद्योग हैं हालाँकि पहले यहाँ बहुत गरीबी थी और यहाँ के लोगों को उजड्ड माना जाता था।
वापसी में टीना के घर। पीटर इतालवी वाइन पेश करते हैं। बेहतरीन। मशरूम खिचड़ी जैसा कोई व्यंजन भी, जो उन्होंने खुद बनाया है। इसका स्वाद शुरू में विचित्र लगता है, लेकिन कुछ कौर के बाद मजेदार है। यूरोप में घर पर खाना बनाना एक दुर्लभ घटना है। ज़्यादातर लोग बाहर खाते हैं और शायद इसमें उनका ज़्यादातर पैसा खर्च होता है। यूरोप में रेस्तराओं की बहार है। मैं फिर से टीना का किताबघर देखता हूँ। सब जर्मन में हैं। यानी मेरे लिए काला अक्षर भैंस बराबर। टीना देर तक अपनी कविता परियोजना पर बात करती हैं और पोलैंड के अपने अनुभवों के बारे में भी जहां उनके कई मित्र हैं। विस्वावा शिम्बोर्स्का, तादेऊश रोज़ेंविच और ज़गयेव्स्की और ईवा लिप्स्का की कविता चर्चा में आती है। टीना को जर्मनी ही नहीं, दुनिया के सभी बड़े कवियों की जानकारी है। हाइनरिख हाइने, बेर्टोल्ट ब्रेख्त और पौल सेलान उन्हें  प्रिय हैं—म्यूह्ल्बर्गर  के अलावा। लेकिन ब्रेख्त के नाटक उन्हें बहुत पसंद नहीं हैं। 'उनमें जटिलता कम है, और ज्यादा सरलीकृत हैं। ब्रेख्त की कविताएँ लेकिन अद्भुत हैं। अफसोस यही है कि उन्होंने अपनी कविताओं को उतनी तरजीह नहीं दी।' टीना उनकी जर्मन वार प्राइमर, बको शोकगीत और प्रेम कविताओं पर बात करती है। मैं उन्हें बताता हूँ कि ब्रेख्त के नाटक सैकड़ों बार भारत की सभी प्रमुख भाषाओं में खेले गये है। ब्रेख्त का रंग-शिल्प एशियाई देशों के रंगमंच से बहुत समानता रखता है, इसलिए उनकी शैली काफी अपनाई गयी है और कविताओं के भी बहुत अनुवाद हुए है।
टीना अपनी एक कविता 'कोम्मे' दिखाती हैं, जिसके अनुवाद दस भाषाओं में हुए हैं। यह उन शरणार्थियों को संबोधित है जो अमेरिकी हमलों, युद्ध, गृहयुद्ध और आतंकवाद से तहस-नहस सीरिया और दूसरे अरब देशों से शरणार्थी होकर यूरोप और खास कर जर्मनी के दरवाज़ें खटखटा रहे हैं। जर्मनी उन्हें शरण देने के मामले में सबसे उदार है। हम हंगरी आदि देशों की कट्टरता और निर्ममता के बारे में भी बात करते हैं। यह कविता दुनिया के विस्थापितों से संवाद करने को कहती है और उनकी तरफ दोस्ती का हाथ बढाती है। टीना अब विस्थापितों की कविता को अपने शहर की पट्टिकाओं में जगह देने की योजना बना रही हैं ताकि यह बड़े कवियों के साथ-साथ संतापित-निर्वासित कवियों का उद्यान भी बन सके। पीटर की इस सब में गहरी दिलचस्पी है हालाँकि वे कवि नहीं हैं। वे सोशल डेमोक्रेट विचारों के हैं, हिटलर के परम विरोधी और हर गंभीर बात का विनोदी पहलू देखने वाले मस्तमौला, जो अब अपना शेष जीवन पीते हुए बिताना चाहते हैं।
रात हुए अभी ज्यादा वक्त नहीं हुआ है। लेकिन शहर सुनसान है। नौजवान लोग सब बारों-रेस्तराओं में बैठे खा-पी रहे होंगे। रात में सारी चीज़ें बदल जाती हैं। आसमान, सड़कें, पार्क, पेड़ और मकान अजनबी हो जाते हैं। शायद सिर्फ छोटी चीज़ेंं वैसी ही रहती हैं जैसी वे दिन में थीं। यह रहस्य कभी मेरी समझ में नहीं आया, और अब तो खैर मेरी निगाह धुंधली हो चली है और कानों से भी कम सुनाई देने लगा है। होटल पंहुचते हुए मुझे बेतरह अपनी युवावस्था की याद आती है।
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वह क्या है जो किसी जगह को शहर बनाता है? शायद यह कि गाँव की गलियाँ अक्सर गाँव में घूमती रह्ती हैं। अलसाई हुई, धूप सेंकती लगती हैं या बारिश में निश्चेष्ट पडी भीगती हैं। लेकिन शहर की सड़कें-भले ही वे पतली हों—हमेशा शहर से बाहर की और निकलती और कहीं जाती रहती हैं। टीना ने बताया कि आइस्लिंगेन दो गाँवो को मिलाकर बनाया गया है। लेकिन यह गाँव नहीं है क्योंकि इसमें एक ऐसी गति और त्वरा है जो गाँव में नहीं होती। शायद यह एक ऐसा शहर है जिसका केंद्र तो निर्मित हो चुका है, लेकिन शहर का फैलना और बड़ा होना अभी बाकी है। सुबह जब यहाँ से कारों का हुजूम बाहर जाता हुआ दिखाई देता है तो यही लगता है। लोगों की तरह शहरों का भी बचपन, यौवन और बुढापा होता है। शायद बनारस जैसे हमारे कुछ नगरों को छोड़कर, जो ऐसे दिखते हैं जैसे जन्म से ही बूढ़े थे। हमारे शहर कैसे नष्ट हए, यह समाजशास्त्रीय अध्ययन का एक बड़ा विषय हो सकता है। खासकर ऐसे देश के लिए जहाँ हड़पा और मुअंजोजो-दाडो सभ्यता में आदर्श नगर रहे हों।
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दो किलोमीटर पर ग्युपिंगेन शहर है जहाँ टीना ने कुछ वर्ष पढ़ाने का काम किया। उनके सभी घनिष्ठ दोस्त इसी शहर में हैं। वे मुझे यह जगह खास तौर से दिखलाना चाहती हैं, यहाँ उनका किराये का एक फ्लैट भी है जिसे वे अपना स्टूडियो कहती हैं और जब उन्हें एकांत की ज़रुरत होती है तो यहाँ आ जाती हैं हालाँकि मुझे यह एक एकांत से दूसरे एकांत में जाने जैसा लगता है, लेकिन पश्चिमी देशों में व्यक्ति की निजता की बहुत अहमियत है। इस फ्लैट में कंप्यूटर हैं, किताबें और दीवारों पर पेंटिंग हैं और लोहे के तारों से बना एक झाड़ीनुमा शिल्प है। सहसा मुझे आइस्लिंगेन के लाल 'संकेतचिन्ह' की एक छोटी सी प्रतिकृति दिखाई देती है। टीना कहती हैं, 'यह कलाकार आन्या लुइंथले हैं जिसने लाल रंग और स्त्री आकृति में कई दिलचस्प प्रयोग किये हैं और उनके कई काम स्टुटगार्ट में भी लगे हैं।'
एक दीवार पर कम्युनिस्ट क्रांतिकारी और विचारक रोज़ा लक्ज़मबर्ग पर एक लम्बे लेख की अखबारी कतरन चिपकी है जिसमें रोज़ा की उस चित्रकला का भी ज़िक्र है जो उन्होंने जेल में रहते हुए की थी। रोज़ा के रेखांकनों की शैली के कुछ काम भी कमरे में रखे हुए हैं। यह देखकर खुशी होती है कि टीना रोज़ा की प्रशंसक हैं। मैं उनसे कहता हूँ, रोज़ा के बारे में मेरी जानकारी बहुत सीमित है, लेकिन लगता है सोवियत शैली की क्रान्ति में रोज़ा को ठीक से नहीं समझा गया। क्रांतियों की विफलता के इस दौर में 'स्थायी क्रांति' की उनकी अवधारणा अब भी बहुत आकर्षित करनेवाली है।'
एक चौराहे पर टीना के घनिष्ठ मित्र और कवि गेर्ड कोल्टर मिलते हैं और हम एक रेस्तरां में कॉफी पीने जाते हैं। गेर्ड बहुत शरीफ लगते हैं। पढ़ाते थे और कहते हैं, 'मैं कम सुनने, कम देखने लगा हूँ। दांत खराब हो चले हैं और सर्दी बहुत लगती हैं।' इतने सारे हादसे एक साथ सुनकर मैं सन्न रह जाता हूँ और  समझ नहीं आता क्या कहूं। राहत यही है कि यह कहते हुए वे हंसते रहते हैं जैसे अपने इस हाल की खिल्ली उड़ा रहे हों। मैं उनसे कहता हूँ, मुझे भी देखने -सुनने की समस्या होने लगी है। लेकिन कोई बात है कि गेर्ड का व्यक्तित्व पारदर्शी पर्दे की तरह लगता है। चलते हुए वे कहते हैं, 'मैं कल आपके कविता पाठ में आऊंगा।' टीना प्रेम से अपना शहर दिखा रही हैं जो आइस्लिंगेन से काफी बड़ा है और उसका मुख्य केंद्र तो इतना सुन्दर है की वहाँ बैठने की इच्छा होने लगती है। सहसा टीना एक आदमी को रोकती हैं, 'ओ मुस्तफा, मुस्तफा'! मुस्तफा उनके गले से लिपटते हैं। टीना कहती हैं, 'मेरे सबसे अच्छे दोस्त!' मुस्तफा तुर्की के हैं और कई वर्ष से यहाँ हैं। उनकी बीवी अलग हो गयीं और तबसे बुरी तरह टूट गये हैं। टीना लोगों के हालचाल पूछती हुई शहर का स$फर पूरा करती हैं और हम एक रेस्तरां में खाने बैठते हैं, हालाँकि देर हो गयी है और अब बचा-खुचा ही उपलब्ध है। मुझे हैरत होती है कि लोग कैसे इस तरह बाहर खाने की सामथ्र्य जुटा पाते हैं। शायद वे बहुत पैसा कमाते होंगे। टीना मुझे भुगतान करने से रोकती हैं। उम्मीद है, मेरा खर्च नगरपालिका की जेब से ही जा रहा होगा। टीना को आइस्लिंगेन की तुलना में ग्युपिंगेन बेहतर लगता है, और उल्म नाम का शहर दोनों से कहीं बेहतर। उल्म में उनका जन्म हुआ और उन्हें उल्मवासी होने का गर्व है। उन्होंने यहाँ भी मेरा एक पाठ रखा दिया है।
ग्युपिंगेन में बहुत सी जानकारियां मिलीं। यहाँ यहूदियों की आबादी बहुत थी जिन्हें नात्सी सेनाओं ने मार डाला। टीना एक रब्बी एरोन तांज़र का घर दिखाती हैं, जिन्होंने यहाँ एक बड़ा सा पुस्तकालय बनवाया था। उन्हें मार दिया गया। फिर एक सिनेगौग। वापसी में एक ग्रीक ऑर्थोडॉक्स चर्च पड़ता है, जिसका स्थापत्य अनोखा है। टीना इतिहास और वर्तमान की त्रासदियों से गहरा सरोकार रहती हैं। विस्थापितों और अपनी जगह से उखड़े लोगों के प्रति उनके भीतर बहुत संवेदना है। शरणार्थियों को संबोधित उनकी कविता 'कोम्मे' का हिंदी अनुवाद 'आओ' शीर्षक से कर दिया है। कविता बहुत सरल भाषा में लिखी गयी है ताकि लोग आसानी से समझ सकें: 'आओ, बैठो/ हमारे पास बैठो/ मेज से रोटी लो/ एक गिलास पानी पियो/ तुम मेरी ओर देखो/ देखो मेरी ओर/ मुझसे बात करो/ हम गंभीर बात करेंगे/ हम पाना चाहते हैं कोई राह/ बात करो हरेक के साथ/ अरे ज़रा सुनो इन तमाम भाषाओं को/ यही है शांति की मुमकिन राह/ यहीं से हमें करनी होगी शुरुआत/ सुनो, कितनी सारी भाषाएँ है/ दोस्तों की।'
अगले दिन शाम को नगर केंद्र की नयी इमारत में मेरा कविता पाठ है। शाम को स्टुटगार्ट से दिव्यराज अमिया आते हैं. वे मेरे वक्तव्य को जर्मन में प्रस्तुत करेंगे। दिव्यराज से दिल्ली में मुलाकात हुई थी। वे जवाहर लाल नेहरु विश्वविद्यालय में जर्मन पढ़े हैं। वहां छात्र संगठन आइसा में सक्रिय थे और अब भी माक्र्सवादी हैं, लेकिन वे सभ्यता और श्रम विरोधी एक वैचारिक मुहीम से भी जुड़े हैं जिसकी मान्यता है कि कृषि सभ्यता के साथ ही मनुष्य का शोषण शुरू हुआ। नतीजतन आज सब लोग एक तरह के बंधुआ मजदूर हैं और मनुष्य की मुक्ति कृषि-पूर्व के मूल्यों से ही संभव है। यह बहुत दिलचस्प आन्दोलन है जिसके कई सिद्धांतकार हैं और कार्ल माक्र्स को प्रस्थापना बिंदु मानते हैं। बहरहाल, मुझे खुशी हुई कि अपने मुल्क का एक आदमी तो यहाँ मिला।
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सुबह पीटर दम्पति के साथ शहर की सैर। हम मूर्तिशिल्प और इंस्टालेशन देखते चलते है। पीटर वह ज़िमानाज़ियम दिखाते हैं जहाँ वे पढ़ाते थे और जहां मुझे भी कविता पढनी होगी छात्रों के बीच। यह यहाँ का अकेला विद्यालय है और कॉलेज की पढाई के लिए स्टुटगार्ट जाना पड़ता है। एक दिलचस्प इंस्टालेशन है: 'अचल रंगमंच'। इसमें एक बड़ी सी भेड़, एक स्तम्भ से बाहर निकलता हुआ हाथ, और एक सिलिंडरनुमा मनुष्याकार है जिसमें सर वाले हिस्से से एक हरा पौधा बाहर निकल रहा है। एक जगह  'आइस्लिंग द्वार' नाम के शिल्प में लोहे की एक छड़ को वृत्ताकार जमा दिया गया है तो एक और शिल्प में सिर्फ एक बड़ा सा स्पीकर चौराहे पर विराजमान है। पीटर हमें एक सिमेंट्री में ले जाते हैं, जहां ग्युन्टर ग्रास की एक कविता 'जीवन के बीचोबीच' शीशे की पट्टिका पर खुदी है। शायद कब्रगाह के लिए सबसे उपयुक्त पंक्तियाँ जिनमें जीवन की उदासी के साथ-साथ एक उम्मीद भी है। मृत्यु और जीवन को इतने पास लाने वाली, एक साथ इतनी मार्मिकता और विडम्बना से बात कहती हुई मैंने बहुत कम कविताएँ देखी होंगी:

'मैं मृतकों के बारे में सोचता हूँ
वे जो कहीं गिनती में नहीं है और वे जिनके नाम हैं।
फिर रोज़मर्रा ज़िंदगी दस्तक देती है 
और फेंस के उस पार बागीचा आवाज़ देता है
चेरियाँ पक चुकी हैं !'

हम लोग कविता के पास खड़े होकर कुछ फोटो लेते हैं। मैं इस चयन के लिए टीना की तारीफ करता हूँ। पीटर कुछ यहूदी बच्चों की कब्रों के पास ले जाते हैं जिनसे यातना शिविरों में इतना ज्यादा काम कराया गया कि वे मर गये। शरणार्थी यहूदियों की भी कुछ कब्रें हैं। कब्रगाह को देखते हुए एक अजीब सी सिहरन होती है। बारिश हो रही है, लेकिन हम भीगते हुए देर तक वहाँ टहलते हैं। इस यात्रा में दखाऊ जैसे नात्सी यातना शिविर को देखने की इच्छा थी, लेकिन चूक हो गयी, अब  समय नहीं है क्योंकि सभी कार्यक्रम पहले से तय कर लिये गये हैं। शायद मुझे दिल्ली से चलने से पहले योजना बना लेनी चाहिए थी।
हम लोग कुछ कविता-शिल्पों को देखते हुए लौटते हैं। सभी में कोई न कोई मार्मिक अनुभव दर्ज है। शहर के पुस्तकालय के पास म्यूह्ल्बर्गर की कविता, एक सड़क के किनारे पेई ताओ, एक कोने पर अमेरिकी अश्वेत उपन्यासकार ऐलिस वाकर की पंक्तियाँ: 'घर बनाने के लिए ज़रुरत होती है मिट्टी की / और रेशों की/ और दोस्त पड़ोसियों की।' पुराने नगर-केंद्र के बाहर म्यूह्ल्बर्गर की कविता लगी है:

'समुद्री तूफान ने जब जहाज़ को ऊपर उछाला
बंजर मस्तूल फिर से अपना पेड़ होने के लिए लौट आया
बचाव के लिए शाखाएं बन गया
रोशनी को पकडऩे के लिए फिर से जड़ बन गया
और टुकड़े-टुकडे होने से बचा रहा'।

एक जगह महान डच कवि-उपन्यासकार सेस नूटेबूम की बहुत सुन्दर कविता है:

'मैं रास्ता हूँ

मैं एक तीर की तरह हूँ
दूरी पर गया हुआ 
लेकिन दूरी पर  
मैं दूर हूँ।

तुम अगर मेरे पीछे आओ
यहाँ, वहा, यहाँ
तो तुम्हें मिल ही जायेगा
रास्ता

रास्ता दूरी पर है।'  

इस कविता में कैसा दार्शनिक अंदाज़ है और 'चरेवैति-चरेवैति' का भाव। मैं टीना से कहता हूँ, 'क्या आप इन सभी कविताओं के अंग्रेजी अनुवाद करके मुझे भेज सकेंगी? क्या आपकी भी कोई कविता लगी है यहाँ?' हाँ, टीना की कविता 'झरने का पानी' भी कुछ आगे दर्ज है:

'हम सब खोजते रहते हैं
आकाश का नीलापन और प्रकाश।
हम झरनों के पास जाते हैं
पानी के लिए और सोचते हैं
युगों के बारे में और ज़मीन के नीचे
गुम्बदों के पत्थरों के बारे में।
सुखद है बोतलों को भरना
ठंढे पकडऩे योग्य चमत्कार से
जो चमकीला लगता है और बाद में
गिलास को ढँक देता है
जंग-लगे एक भूदृश्य के साथ।'

ऐसी बहुत सी मार्मिक कविताएँ. संक्षिप्त, लेकिन गहरी। किसी में पेंटिंग जैसा दृश्यात्मक ठहराव तो कोई घर की तलाश में भटकती हुई। पोलिश कवि ज़गयेव्स्की की कविता में अपने जलते हुए शहर का वर्णन है, जहां लाउडस्पीकर फुसफुसाकर कह रहा है: 'जाओ, जाओ, कही और खोजो। यह तुम्हारा घर नहीं है। अपना सच्चा घर तलाश करो।' चीनी कवि पेई ताओ इन दिनों निर्वासन में रहते हैं और यूरोप में बहुत चर्चित हैं। वे पहले चीन की कम्युनिस्ट पार्टी (अब नाम मात्र की) के सदस्य थे, लेकिन थियेनआनमन चौक में युवा आन्दोलन का समर्थन करने के कारण उन्हें निर्वासित होना पड़ा। उनकी कविता 'घर की राह' भी लगी है, जो टीना के मुताबि$क कुछ जटिल है। उसकी एक पंक्ति है: 'मैं अपने को घर की तरफ जाते  हुए देखता हूँ/ रात के तमाम खिलौनों के बीच से।' कविता का ऐसा बागीचा और उससे ऐसा प्रेम शायद ही कहीं और हो।
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शाम को राठाउस। धुंधले कांच के दरवाज़ें पर झिलमिल करती हुई एक इबारत। 'डी स्टाड। यानी 'शहर।' कविता को पारदर्शी अक्षरों में खुदवाया गया है। एक अव्याखेय सा आश्चर्यान्वित एहसास होता है। मेरे जैसे  हिन्दुस्तानी के लिए यह एक नयी चीज़ है। हमारे देश में दो-चार उदाहरणों के अलावा कहीं किसी कवि की पंक्तियाँ सार्वजनिक जगहों पर नहीं हैं। सिर्फ केरल के विधान सभा भवन के सामने कुमारन आशान की प्रतिमा के नीचे उनका एक कथन दर्ज है: 'यथार्थ को बदलो वरना यथार्थ तुम्हें बदल देगा।' दिल्ली के जामिआ मिल्लिआ में मिर्ज़ा ग़ालिब की मूर्ति के नीचे उनका एक शेर दर्ज है: 'जामे  हर ज़र्रा है सरशारे तमन्ना मुझसे/ किसका दिल हूँ कि दो आलम से लगाया है मुझे।' निजामुद्दीन में गालिब के मज़ार पर भी कोई शेर दर्ज है। शायद रबीन्द्रनाथ ठाकुर की कविता शांति निकेतन में या कहीं और उकेरी गयी हो। शायद तिरुवल्लुवर या किसी तमिल महाकवि की कुछ पंक्तियाँ कहीं हों। बस। बड़े-बड़ों की सांस्कृतिक दुर्दशा के आलम में मेरे जैसे अदना की क्या बिसात!
बहरहाल, पीटर, टीना, दिव्यराज और मैं वहाँ फोटो खिंचाते हैं। जो अक्षर रोशनी में हैं, वे साफ दिखते हैं, लेकिन कई अक्षर अंधेरे के कारण नज़र नहीं आते। शहर भी क्या इसी तरह उजाले और अंधेरे से नहीं बने होते? धीरे-धीरे नगरपालिका का यह हॉल भरने लगा है और मुझे किसी सपने जैसी अवास्ताविकता लग रही है। दो से ढाई सौ लोगों के बैठने की जगह थोड़ी देर में भर गयी है और कई लोग खड़े हैं। बीस हज़ार लोगों के शहर में दो-ढाई सौ श्रोताओं का मिलना कम नहीं। यह टीना की लोकप्रियता का ही उदाहरण है। श्रोताओं में बूढ़े लोग ज्यादा हैं, लेकिन कोई गम नहीं, मैं भी युवा नहीं रह गया हूँ। लम्बी सफेद दाढ़ी वाले एक बुज़ुर्ग वाकर्स के सहारे आकर सामने बैठ गये हैं। अपने लाल कपड़ों में वे सैंटा क्लॉस होने का भ्रम देते हैं। कुछ देर बाद शहर के मेयर आते हैं। क्लाउस हेनिगर। काफी चुस्त नौजवान। मैं उन्हें दार्जीलिंग चाय का एक पैकेट भेंट करता हूँ और मुझे एक लिकर की शीशी मिलती है। सुन्दर ढंग से लपेटी हुई। यह किसी सम्मानित फल का अर्क है, लेकिन उसमें अल्कोहल नहीं है इसलिए उसे पीने की बजाय यादगार के तौर पर ही रखा जा सकता है। खैर, मेयर का भाषण कुछ इस तरह है कि कविता हमेशा मनुष्य को, मानवीय उपस्थितियों को आवाज़ देती रहती है और उसी आवाज़ पर मंगलेश डबराल भारत जैसे सुदूर देश से यहाँ आये हैं। कविता की पुकार मनुष्यों की पुकार से भी ज्यादा असरदार होती है। फिर वे कुछ मेरा परिचय देने के बाद आइस्लिंगेन के सार्वजनिक स्थानों पर कविता की उपस्थिति के बारे में बात करते हैं। उनके इस रचनात्मक भाषण पर खूब तालियां बजती हैं। टीना मेरे आने की पृष्ठभूमि बतलाती हैं और विस्तार से परिचय देती हैं।
अब मेरा नंबर है। मैं कुछ हिंदी कुछ अंग्रेजी में शहर की तारीफ में कहता हूँ कि मुझे पता नहीं था कि धरती के नक्शे पर आइस्लिंगेन नाम की भी कोई जगह है, लेकिन वह है और मैं वहाँ हूँ और मैं जैसे किसी स्वप्न में चल रहा हूँ। यह शहर एक छोटा सा भूगोल है, लेकिन छोटी चीज़ें ही बड़ी चीज़ें भी होती हैं और यह इस लिहाज से बड़ा है कि राह चलते आपको जगह-जगह दुनिया की कई भाषाओं की बड़ी कविता दिख जाती है। मुझसे पहले मेरी कविता यहाँ पंहुची और उसने मुझे भी बुला लिया और मैं जैसे उसके पीछ-पीछे चला आया और मैंने देखा कि मुझसे भी बड़े कवियों की मह$िफल यहाँ पहले ही मौजूद हैं। मैंने यह भी कहा कि शहर सिर्फ इमारतों, सड़कों और होटलों से नहीं बनते, बल्कि वे संस्कृतियों, स्वप्नों, स्मृतियों और कल्पनाओं से निर्मित होते हैं। कविता का यह अभूतपूर्व बागीचा तैयार करने के लिए मैंने टीना स्ट्रोहेकर को धन्यवाद दिया और शहर के लोगों को भी, जिन्हें कविता से इतना प्रेम है कि वे टीना के इस काम को निरा सिरफिरापन नहीं मानते।
लिखित वक्तव्य तैयार करने का समय नहीं मिला था, इसलिए कुछ अच्छे-अच्छे वाक्य बोलकर काम चलाया। मेरे वक्तव्य का अनुवाद दिव्यराज करते रहे जिस पर तालियाँ बजीं। अर्थात मेरी जुमलेबाजी काम कर गयी है। आखिर हम उस देश के वासी हैं जिस देश में प्रवचन होते हैं। यह कम आश्चर्य नहीं कि मैं एक बार भी नहीं हकलाया। मैंने कुल पंद्रह कविताएँ मूल में पढ़ी जिनमें से कई अनुवाद टीना और दिव्यराज पहले कर चुके थे और कुछ मैक्स म्युलर भवन की कविता वर्कशॉप में जर्मन कवियों उल्ररीके सांदिग और गेर्हार्ड फाल्कनर ने किये थे। जर्मन अनुवाद टीना ने प्रस्तुत किये। फिर सवाल-जवाब का सिलसिला हुआ जो पश्चिमी देशो का एक अच्छा चलन है। कई सवाल बहुत दिलचस्प थे और लोग जानना चाहते थे कि मेरी सामाजिक-सांस्कृतिक पृष्ठभूमि क्या है, कैसे कविता शुरू की, समाज में स्त्रियों की हालत क्या है, वगैरह। एक व्यक्ति ने पूछा कि 'शहर' कविता लिखने की क्या पृष्ठभूमि है दूसरे ने यह कि एक कविता पूरी होने पर कैसा लगता है। एक युवती का सवाल काव्यात्मक था। उसने कहा, अब जबकि आपकी कविता यहाँ दरवाज़ें पर लगी है और आपसे दूर हो गयी है तो क्या आप उदास हैं कि अब वह आपकी नहीं रह गयी? मैंने कहा, 'कविता जहाँ भी जाती है, उसका पुनर्जन्म होता है, चाहे उसका अनुवाद किया जाये या उसे कहीं उत्कीर्ण किया जाये। मैं एक ऐसे देश का कवि हूँ जहाँ लोग पुनर्जन्म पर विश्वास करते हैं और यह माना जाता है कि आदमी अगले जन्म में चींटी से लेकर हाथी तक किसी भी रूप में जन्म ले सकता है। मुझे खुशी हैं कि आपके शहर में मेरी कविता ने कविता के रूप में ही जन्म लिया है, किसी जानवर के रूप में नहीं।' इस पर लोग खिलखिलाये और तालियाँ बजीं। कार्यक्रम के बाद जब पार्टी हुई तो टीना ने कहा कि वह महिला आपसे मिलना चाहती थी, लेकिन वह ग्युपिंगेन में रहती है सो माफी मांगकर चली गयी। मैं सैंटा क्लॉस लगने वाले अत्यंत वृद्ध सज्जन  से शुक्रिया कहना चाहता था, लेकिन वे कविता पाठ के बाद चले गये। मैं अपने वक्तव्य में उनका ज़िक्र करना नहीं भूला था।
हाँ, देर हो गयी है। लेकिन पार्टी चल रही है। लाल और सफेद वाइन और बियर। ऑटोग्राफ का दौर। ज़्यादातर सफेद बालों वाले स्त्री-पुरुष। कई लोग आकर हाथ मिलाते हैं। एक बंगाली सज्जन अपनी पत्नी के साथ मिलते हैं, जो धातु और खनिज इंजीनियर हैं। उनकी पत्नी कविता-प्रेमी हैं। उनकी बेटी भी अपने जर्मन पति के साथ हैं। पति वेब डिजाइनिंग की कंपनी चलाते हैं। कविता पाठ के इम्तिहान में पास होने की वजह से मैं भी कुछ चहक रहा हूँ। रेड वाइन बेहतरीन है। टीना मुझसे कहीं अधिक प्रसन्न हैं क्योंकि यह उनका कार्यक्रम था जो कामयाब रहा। गेर्ड कोल्टर को मेरी दो कविताएँ पसंद आयीं। कहकर वे विदा लेते हैं। पीटर हस्बे मामूल मज़ें में हैं। दिव्यराज पता नहीं चल रहा कि भीड़ में कहाँ हैं। पीना एक उत्सव की तरह है हालाँकि खाना यहाँ नहीं है। आम तौर पर पीना 'सोशलाइजिंग' का हिस्सा माना जाता  है जबकि खाना कुछ व्यक्तिगत या पारिवारिक काम है।
खाने के लिए हम होटल आइस्लिंगेर टोर आते हैं जो बंद होने जा रहा है लेकिन बेयरे कहते हैं कोई बात नहीं, आप आइए। छोटे शहरों की यह खूबी है। वहां फिर पीने का दौर चलता है। पीटर कहते हैं, मेरा पीने का कोटा हो चुका और वे अपने लिए बगैर अल्कोहल की बियर मंगाते हैं। यानी उसका स्वाद तो बियर जैसा है, लेकिन बगैर नशे के। बाकी लोग आयरिश व्हिस्की मंगाते हैं और फिर तेज़ नशे वाला लिकर, जिसकी एक घूँट काफी होती है। बहुत भूख लगी है। हम बहुत खा रहे हैं। अगली सुबह फिर एक कविता पाठ है।
आइस्लिंगेन के ज़िम्नाज़ियम में बच्चो के सामने क्या सुनाऊँ, समझ में नहीं आता। उनमें से शायद ही कोई जानता हो कि भारत कहाँ है और दिल्ली कहाँ। मैं कुछ सरल कविताएं चुनता हूँ: दादा, माँ, पिता की तस्वीर, घर शांत है, बाहर और वह, जो इस शहर में लगी है। बच्चों से बातचीत देर तक होती है। मैं अपने गाँव, घर, दिल्ली, देश और हिंदी कविता के बारे कुछ कहता हूँ और यह भी कि मैंने लिखना कैसे सीखा। छात्रो के सवाल भी सूझबूझ वाले हैं। एक बच्चे ने पूछा कि भारत और जर्मनी के शहरों में क्या फर्क लगता है, एक छात्रा ने लड़कियों की आज़ादी के बारे में जानना चाहां। किसी ने गाँव और शहर के फर्क के बारे में, तो एक बच्चे ने कहा कि ऐसी कोई चीज़ बताइए जो हमारे यहाँ है और आपके यहाँ नहीं है और आपके यहाँ है, लेकिन हमारे यहाँ नहीं है। मैंने हंसते हुए कहा कि आपके यहाँ हाथी और ऊँट नहीं हैं, लेकिन आपके यहाँ जो 'ऑटोमेशन' है वह हमारे देश में बहुत कम है हालाँकि इससे ज़िंदगी ज्यादा पेचीदा हुई है। मेरी बातों का अनुवाद दिव्यराज कर रहे थे। मैंने उनकी दुभाषिये की भूमिका की तारीफ की तो वे बोले, 'अरे, यह मेरा पहला अनुभव था।' जिमनाजियम के प्राचार्य एक विनम्र नौजवान हैं जो जर्मन और जीव विज्ञान पढ़ाते रहे हैं। हम उनके साथ दोपहर का भोजन करते हैं।
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शाम यानी कविता के उद्यान से विदा लेने का समय है। चार दिन में यहाँ जो कुछ देखा और महसूस किया, वह अभी एक आश्चर्यलोक की मानिंद है और उसे मैं समझ नहीं पा रहा हूँ। फिलहाल टीना और पीटर की भलमनसाहत और मेजबानी ही अभिभूत कर रही है। अब टीना के साथ उल्म के लिए रवाना हो रहा हूँ। अचानक याद आता है, उल्म के किसी बच्चे पर बेर्टोल्ट ब्रेख्त की एक कविता है। टीना कहती हैं, 'हाँ, हाँ, बहुत अच्छी है वह। उल्म के उस लड़के के बारे में जिसने सोलहवीं सदी में एक मशीन ईजाद करके उडऩे का हौसला किया था। उसका एक म्यूजियम भी है जहां उस मशीन का मॉडल रखा हुआ है। आपको दिखाउंगी।'
रेलवे स्टेशन पर ऊटे हमें छोडऩे आयी हैं। वे खूब सिगरेट पीती हैं। कहती हैं, 'उल्म में आपको मज़ा आयेगा। बहुत बढिय़ा शहर है।'
टीना कहती हैं, 'आखिर उल्म मेरा शहर है।'

 

आयोवा की अपनी बहुचर्चित डायरी के बाद हमें लगता है कि भविष्य में मंगलेश डबराल का एक नया वृत्तांत संभावित है। मो. 09919402459


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