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जनवरी 2017

कुछ पंक्तियां

ज्ञानरंजन



हम लड़ेंगे साथी

पंजाबी के क्रांतिकारी कवि अवतार सिंह पाश से हिन्दी में उसी तरह मुहब्बतें की गईं जिस तरह कविता की तीसरी धारा के कवि कुमार विकल, आलोक धन्वा, धूमिल और गोरख पांडे से की गई। हिन्दी में 'पाश' की कविता को व्यापक रुप से 'पहल' ने प्रकाशित किया। पाश पर पहल का विशेष अंक छपा जिसमें पंजाबी के प्रमुख लेखक चमनलाल, अमरजीत चंदन, सुखचैन मिस्त्री और सत्यपाल सहगल आदि का बड़ा सहयोग था। पंजाब में ये उग्रवाद के उभार के काले दिन थे और देश में बड़ी बेचैनी थी। उक्त अंक के मुख पृष्ठ  पर पाश का एक बड़ा हस्ताक्षर और उनका एक पोट्रेट भी था। यह अंक बहुत लोकप्रिय हुआ। पाश का मुहावरा लोगों की जुबान पर छा गया और उनका एक पोट्रेट भी था। यह अंक बहुत लोकप्रिय हुआ। पाश का मुहावरा लोगों की जुबान पर छा गया और हिन्दी में वे सर्वाधिक कोट किये जाने वाले कवियों में शुमार हो गये। पाश प्रतिरोध, आंदोलन और स्पंदन के जबरदस्त कवि देश भर में स्वीकार किये गये। वे आतंकियों की हिट लिस्ट में आ गये। क्योंकि पाश को पंजाब से गहरा प्यार था। अपने कवि मित्र अमरजीत चंदन के साथ वे लंदन में अस्थायी रूप से रहे। वहाँ से उन्होंने पहल को कुछ दुर्लभ चित्र भी भेजे। और हमारा सीमित पत्र व्यवहार भी हुआ। अमरजीत चंदन की कविताएं भी पहल ने छापीं। एक तरह से पंजाबी कविता के स्वर को प्रमुख स्पेस देने में पहल की बड़ी भूमिका बनी। बाद के दिनों में जालंधर में पाश यादगार समिति ने पहल को यह सब करने के उपलक्ष में सार्वजनिक रूप से सम्मानित किया जिसमें चमनलाल के साथ पंजाबी के महान कथाकार गुरदयाल सिंह भी उपस्थित थे।
पाठकों, पाश पर पहल की विशेष प्रस्तुति के आसपास, यह एक मार्मिक सूचना है कि पाश की उनके गांव में गोली मारकर हत्या कर दी गई। वे विदेश से अपने वतन आये थे। भगत सिंह के बाद पहल की यह धारणा है कि 'पाश' एक वास्तविक शहीदी थे। पाश की कविताओं के हिन्दी अनुवाद के पोस्टर बार बार बनाए गये और हिन्दी के पाठक उन्हें दिल से लगाये हुए हैं। हमें खेद है कि हम चाहते हुए भी, कोशिश करते हुए भी 'पाश' की दुर्लभ डायरी नहीं छाप सके।
अपनी पंक्तियों को विराम देते हुए हम 1988 का वह पत्र छाप रहे हैं जो पाश के अभिन्न साथी पंजाबी, अंग्रेजी के कवि अमरजीत चंदन ने हमें लिखा था। पंजाबी कथाकार गुरदयाल सिंह और स्व. पाश के पत्र भी कभी हम छाप सकें, यह प्रयास जारी है। इस पत्र में चंदन ने पाश की डायरी से एक कविता कोट की है। संभवत: यह पाश की है। पाठक इस पर विचार करें।


प्रिय कामरेड ज्ञान,    लंदन
11.06.1988

आपका ख़त आज मिला।
पहले चमनलाल का भी मिला। इसने लिखा है कि पाश को समर्पित मेरी कविताएं और लेख अनुवाद कर के आपको भेज चुका है। (लेख में इसने अपने आप कुछ हिस्से काट दिये हैं। ऐसे लोगों में चारुवाद का हैंगओवर अब तक है।)
हिन्दी में पोस्टर परम्परा शुरु करनी चाहिए। हिन्दी की लोकप्रिय सरल पंक्तियाँ इस्तेमाल की जा सकती हैं
पहल का अंक जब भी मिला, मैं चंदा तुरंत भेज दूँगा।
अपनी कविताएं भी भेजूँगा। अनुवाद के लिए महाकवि पंकज सिंह को झेलना पड़ेगा।
पाश की डायरी मेरे पास है। इसमें पैंसिल से हिन्दी में कुछ पंक्तियाँ हैं। पता नहीं इसकी हैं किसी और हिन्दी कवि की। फिर भी लिख रहा हूँ। शायद कामकी हों:-
साँप को साँप ही कहो
अगर कोई भी (किसी का) सौंदर्य उखड़ता है
तो वह साँप का ही पक्षधर होगा
साँप कहने से किसी की हत्तक नहीं होती
साँप को साँप कहने से उसके माथे में खौलता
रक्ष दुविधा (?) वही देता (?)

साँप को साँप कहने से उसका फुँकारना संगीत नहीं रहता

साँप को साँप न कहने से तुम सुरक्षा का प्रथम खो देते हो

आजकल लंदन में निर्मल वर्मा तशरीफ़-फ़र्मा हैं। साथ एक देवी गगन गिल हैं। मंगलेश बुल्गारिया जा रहा है। ये सूचनाएं ''समाचार आसपास'' से मिलीं।

आपका
(अमरजीत)






नोट: हमारे साथी कवि पंकज सिंह अब नहीं रहे। पिछले दिनों ही उनका निधन हुआ। मशहूर कथाकार निर्मल वर्मा भी अब नहीं रहे। संभव है अमरजीत चंदन की कविताएं (पंकज सिंह द्वारा अनूदित) हम भविष्य में छाप सके।

 

 

प्रकाशकीय

कुछ ज़रुरी और घोषित सामग्री इस अंक में नहीं जा पा रही है। इसका हमें खेद है। उन्हें स्थगित किया गया है। उत्तर आधुनिकता पर सुबोध शुक्ल का लेख, 'बस्ती बस्ती पर्वत पर्वत' स्तंभ में जितेन्द्र भाटिया की सिरीज़, पंकज सुबीर की कहानी, सूरज पालीवाल, अरुण होता के मूल्यांकन लेख नहीं गये हैं। इस बार सर्वश्री मनोज रूपड़ा, सुभाष पंत और प्रज्ञा की लंबी कहानियां अंक का आकर्षण हैं। असद ज़ैदी, देवी प्रसाद मिश्र, रंजीत वर्मा, प्रकाश चंद्रायन की कविताओं में राजनैतिक अन्तर्ध्वनियां मिलेंगी। एक लंबे अंतराल के बाद हिंदी की शानदार कवियित्री अनिता वर्मा की कविताएं आई हैं। इन सबको कठिनाई से पाया गया है।
मंगलेश डबराल का सबसे ताज़ा वृत्त इस अंक का आकर्षण है। हिंदी अध्यापन-आलोचना की अकादमिक हालात पर पहल हमेशा टिप्पणी करती रही है, अब राहुल सिंह खुलकर लिख सके हैं। पाठक जगदीश्वर चतुर्वेदी और आनंद प्रधान के लेखों को मिलाकर पढ़ें, इसमें सोशल मीडिया और 'उत्तर सत्य' के स्वतंत्र सवाल हैं। इसी प्रकार समकालीनता पर पहली बार गंभीर विश्लेषण जितेन्द्र गुप्त ने किया है।
जर्मनी में पहल की जो अनुक्रमणिका प्रकाशित हुई थी, उसकी सभी प्रतियां पूरे यूरप में वितरित हो गई हैं और उसका गहरा स्वागत हुआ है, ऐसा हमें सर्वश्री कर्मेन्दु शिशिर और जर्मनी से दिव्यराज से सूचित किया है।
पहल की सदस्यता के लिए हम सूचित नहीं करते हैं। समय पर अपनी सदस्यता राशि साथी भेज दें, अन्यथा सूची को सुधारना पड़ेगा। पहल के लिए आपका सहयोग वंदनीय है।


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